समन्वय किसे कहते हैं? समन्वय का क्या अर्थ है?
'समन्वय' का अर्थ है - नियमित क्रम, सहयोग, परस्पर संबंध। व्यापक अर्थ में समन्वय का अर्थ है - पारस्परिक संबंध का निर्वाह, यथा - शब्द और अर्थ, भाषा और भाव, ब्राह्मण और शूद्र का समन्वय। समन्वय का एक संकुचित और विशिष्ट अर्थ है - परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली वस्तुओं या बातों का विरोध परिहार पूर्वक सामंजस्य, यथा- नास्तिक द्वैतवादी सांख्य और आस्तिक अद्वैतवादी वेदांत मतों के विरोध का प्रतिहार करके दोनों में सामंजस्य स्थापन। तुलसीदास दोनों ही अर्थ में समन्वय साधक हैं।
इस पोस्ट में हम तुलसी की समन्वय - साधना के विषय में जानेंगे।
तुलसी की समन्वय साधना
तुलसीदास की समन्वयता का अर्थ मनमाने ढंग से 'कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा' लेकर उसका कुनबा जोड़ना नहीं है, सत्य को देख सकने की उनकी समग्र और सही दृष्टि है। तुलसी ने अपने जीवन में अपनी कठोर साधना के द्वारा इस सत्य का साक्षात्कार और अनुभव किया था। उसके विभिन्न पक्षों को देखा और समझा था। तुलसी ने इन विभिन्न पक्षों का समर्थन किया, उन्हें ग्रहण किया तथा एक पक्ष को दूसरे पक्ष से संयोजित भी कर दिया जिन्हें लोगों ने अलग कर दिया था जबकि वे एक ही सिक्के के दो पहलू थे, विपरीत देखते हुए भी अंततः और सारत: एक ही थे।
तुलसीदास की इस विशेषता को विद्वानों ने प्राय: मधुकरी वृत्ति का भी नाम दिया है क्योंकि सचमुच ही वे सत्य रूपी मधु के अद्भुत पारखी थे। तुलसीदास जी की इस समन्वय - साधना को उनके साहित्य - संसार के सभी पक्षों - दर्शन, धर्म भक्ति, सामाजिक विचारधारा, साहित्य दृष्टि और सौंदर्य दृष्टि में देखा जा सकता है। इन सभी क्षेत्रों में तुलसी की समन्वय - साधना हर युग के लिए अनुकरणीय है।
तुलसीदास की समन्वय - साधना की विशेषताएँ
दर्शन के क्षेत्र में तुलसीदास का समन्वय
1. द्वैत और अद्वैत का समन्वय -
तुलसी का दार्शनिक समन्वयवाद अत्यंत विवाद का विषय रहा है। तुलसी के युग में वेदांत का प्रभुत्व था। उसके भीतर भी दो प्रकार के संघर्ष थे -
(i) सभी वैष्णव आचार्य शंकर के निर्गुणवाद और मायावाद के विरोधी थे।
(ii) सभी अद्वैतवादी माधव के द्वैतवाद के विरोधी थे।
तुलसी ने शंकर के ब्रह्मवाद और रामानुज के विशिष्टाद्वैतवाद तथा अन्य मतों के सहज विचारों का समन्वय कर उन्हें ग्रहण किया। तुलसी ने ब्रह्म की एकमात्र सत्ता को, उसकी अद्वैत सत्ता को स्वीकार किया लेकिन जीव को ईश्वर का अंश मानने के कारण उन्होंने जीव की सत्ता को भी स्वीकार किया है, जबकि शंकराचार्य के अद्वैतवाद में केवल ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार किया गया है और शेष सभी को मिथ्या कहा गया है।
2. निर्गुण और सगुण का समन्वय -
तुलसी के काव्य में भगवान का सगुण रूप ही मुख्यतः अंकित हुआ है जिसका मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि भक्त अपने चारों ओर उस भगवान को देखना चाहता है जो संकट से उसे (भक्त को) उबारे। इसलिए स्वरूपत: अभिन्न होते हुए भी अंतर्यामी की अपेक्षा बहिर्यामी रूप उन्हें प्रिय है परंतु साथ ही तुलसी निर्गुण ब्रह्म में भी अपनी आस्था प्रकट करते हुए कहते हैं - "सगुनहिं अगुनहिं नहिं कुछ भेदा" जिसके अनुसार ब्रह्म एक ही है। वह निर्गुण भी है और सगुण भी। वह व्यक्त और अव्यक्त दोनों है। निर्गुण निराकार रूप में वह अव्यक्त है और अखिल सृष्टि में व्याप्त है - 'सिया राम में सब जग जानी।' सगुण साकार रूप में हुए जगत में अवतार के रूप में व्यक्त होता है। किसी भी रूप में उसकी भक्ति की जा सकती है यह रुचि की बात है।
3. विद्या और अविद्या माया का समन्वय -
तुलसी ने माया के स्वरूप निरूपण में अद्वैतवाद की माया या दूसरे शब्दों में अविद्या माया के अतिरिक्त वैष्णव आचार्यों की विद्या माया को भी स्वीकार किया है जो कि ब्रह्म की सृष्टिकारिणी शक्ति है। विद्या माया मिथ्या नहीं है, वह जीव को ईश्वर (सत) की ओर उन्मुख करती है अविद्या माया की तरह संसार (असत) की ओर नहीं।
4. जगत की सत्यता और सत्यता -
तुलसी नहीं न तो शंकराचार्य के अद्वैतवाद की तरह जगत को सर्वथा असत्य या आभास मात्र माना है और न ही वह विरोधी मतों की तरह सदा सत्य। जगत राममय और राम से अभिन्न होने के रूप में सत्य है क्योंकि तुलसी के अनुसार जगत का सृष्टिकर्ता ब्राह्म ही है और उसकी सृष्टि असत्य या मिथ्या नहीं हो सकती। परंतु जगत को राम के रूप में न देखने पर अर्थात् राम को उसके निमित्त और उपादान कारण के रूप में न देखने पर वह (जगत) असत्य रूप ही है।
"निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं विरोध"
5. माया और प्रकृति -
सृष्टि प्रक्रिया के विषय में तुलसीदास जी ने वैष्णव - वेदांत की माया और सांख्य - योग की प्रकृति का समन्वय किया। उन्होंने प्रकृति को राम के अधीन और माया से अभिन्न मानकर दोनों में एकसूत्रता स्थापित की। सांख्यों के प्रकृति परिणामवाद को समेटते हुए अविकृत ईश्वर परिणामवाद की प्रतिष्ठा की। उन्होंने चार्वाकों के स्वभाव, वैश्विकों के काल- परमाणु, मीमांसकों के कर्म और शैवों की चित्त - शक्ति को रामाश्रित बतलाकर इन सभी का समन्वय किया है।
6. जीव का भेद - अभेद -
तुलसी का जीव- विषयक सिद्धांत वैष्णव वेदांतियों के मतों का समन्वय है। तुलसी ब्रह्मण और जीव के अद्वैत और भेद को मानते हैं। स्वरूप की दृष्टि से जीव और ईश्वर में अभेद है। वह ईश्वर का अंश है,अतः ईश्वर की भांति ही सत्य, चेतन एवं आनंदमय है परंतु ऐश्वर्य आदि की दृष्टि से दोनों में भेद है। जीव ब्रह्म का अंश है।मोक्ष पाकर जीव ब्रह्म का स्वरूप तो प्राप्त कर लेता है पर वह ब्रह्म का ऐश्वर्य नहीं प्राप्त कर सकता - सर्व व्यापकता का, माया धीरात्व का। वह केवल ब्राह्म से अपने भेद को, अपने सच्चिदानंद स्वरूप को पहचान लेता है।
धर्म के क्षेत्र में तुलसीदास का समन्वय
1. शैव - शाक्त - वैष्णव धर्मों का समन्वय -
तुलसी ने अपनी व्यापक धर्म भावना के कारण अपने समय में प्रचलित तीन प्रमुख धार्मिक संप्रदायों शैव, शाक्त और वैष्णव के मध्य आपसी प्रतिद्वंदिता, ईर्ष्या को दूर करने के प्रयास की दिशा में उदारतापूर्वक समन्वय स्थापित करने की सफल कोशिश की। इसके लिए तुलसीदास जी ने राम और शिव को परस्पर एक दूसरे का भक्त बना दिया। तुलसी के राम कहते हैं - "शिव द्रोही मम दास कहावा, सो नर सपनेहु मोहे न भावा।" इसी प्रकार रामचरितमानस के वक्ता - श्रोता के रूप में 'शिव - पार्वती' की योजना समन्वय साधना से ही प्रेरित है। तुलसी ने दिखाया कि जिसे शैव महाशिव कहते हैं, शाक्त परमशक्ति कहते हैं, वैष्णव महाविष्णु कहते हैं, वे सब राम के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। उनमें विरोध और पार्थक्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
2. गृह धर्म, कुल धर्म, समाज धर्म, लोग धर्म और विश्व धर्म का समन्वय -
आचार्य शुक्ल के शब्दों में- "तुलसी ने राम परिवार के चित्रण के द्वारा धर्म की इन ऊँची - नीची विविध भूमियों की झाँकी हमें दिखाई है। धर्म के उत्कर्ष के वास्तविक स्वरूप और उसके मार्ग को स्पष्ट किया है।" तुलसी के अनुसार, राम ही विश्व धर्म हैं। शेष धर्म इसी पूर्ण धर्म के अनुगामी हैं। उनकी मर्यादा का आधार राम हैं। भरत और विभीषण के आचरणों द्वारा उन्होंने इसी पर प्रकाश डाला है।
3. वर्ण धर्म और विश्व धर्म -
जो भी राम का है वह सब तुलसी के लिए समान रूप से वंदनीय और आदरणीय है, चाहे वह जाति से ऊँचा हो या नीच। 'रामचरितमानस' में केवट और निषादराज को तुलसी के राम ने प्रेम - भावपूर्ण गले लगाकर अपनी इसी भावना को स्पष्ट किया है। तुलसी की भक्ति और धार्मिक भावना का यह एक अत्यंत स्पृहणीय तत्व है परंतु जहाँ तक लोग धर्म का प्रश्न है, तुलसी उसमें वर्ण - व्यवस्था को अनिवार्य मानते हैं। समाज के सुव्यवस्थित और सुचारू रूप से संचालन के लिए उन्हें वर्ण धर्म का पालन आवश्यक प्रतीत होता है। तुलसी का यह आग्रह भले ही अनुचित प्रतीत हो परंतु उसमें दायित्व भावना पर जो बल दिया गया है वह अवश्य सराहनीय है। तुलसी स्वधर्म के उल्लंघन को असाध्य और अमंगलकारी मानते हैं।
4. वैराग्य और गृहस्थ धर्म का समन्वय -
तुलसी के समय में अनधिकृत और अनुचित रूप से वैराग्य धारण करने की प्रवृत्ति बहुत बढ़ गई थी, जिससे क्षुब्ध होकर तुलसी को कहना पड़ा- "नारी मुई घर संपत्ति नासी, मूड़ मुड़ाय भयउ सन्यासी।" तुलसी ने इस धर्म विरोधी, पलायनवादी प्रवृत्ति का विरोध किया और गृह धर्म, कुल धर्म और समाज धर्म के पालन की आवश्यकता पर बल दिया और इसका प्रतिपादन किया। उनके अनुसार वैराग्य और साधना गृह में रहकर भी संभव है-
"घर कीन्हें घर जात है, घर छाड़े घर जाइ।"
तुलसी घर बन बीच ही राम प्रेम पुर छाइ।।"
5. साधु मत और लोकमत -
धर्म के पालन में तुलसीदास ने व्यक्ति और समाज के हितों में परस्पर मर्यादा भाव का आग्रह किया है। व्यक्ति मत (साधुमत) और व्यक्तिगत साधना (भक्ति आदि) की श्रेष्ठता और स्वतंत्रता वहीं तक मान्य है जहाँ तक वह लोक से अविरोधी हो। तुलसी के अनुसार व्यक्ति के आचरण को लोकानुमोहित होना चाहिए। साधुमत (व्यक्ति मत) लोकमत का अतिक्रमण केवल तभी कर सकता है जब लोकमत और विश्व धर्म (सर्वोच्च आदर्श) में विरोध स्पष्ट हो। इसके उदाहरणों को 'रामचरितमानस' में भारत एवं विभीषण के आचरण के रूप में देखा जा सकता है।
6. प्रवृत्ति और निवृत्ति (भोग और त्याग) -
तुलसी किसी भी वस्तु के सभी पक्षों को समग्रता के साथ देखते हैं। तुलसी के अनुसार भोग कोई अनुचित, अधार्मिक और भक्ति विरोधी वस्तु नहीं है यदि उसे सही दृष्टि से संपादित किया जाए। सही दृष्टि है सबके साथ मिल- बाँटकर भोगने की या अनासक्त भाव से भोगने की। स्वयं तुलसी के राम ने त्याग और भोग के समन्वय के इसी आदर्श को उपस्थित किया है। स्वधर्म का त्याग कर, उसकी उपेक्षा करके लिया हुआ वैराग्य तुलसी की दृष्टि में निंदनीय है।
7. कर्म, ज्ञान और भक्ति का समन्वय -
तुलसी ने इन तीनों के सामंजस्य और परस्पर निर्भरता को दिखाया। उनके अनुसार - ज्ञान और भक्ति से रहित कर्म अनुचित और अमंगलकारी है, कर्म से रहित भक्ति, भक्ति नहीं पाखंड है और स्वार्थ साधना है। सच्चा ज्ञान और सच्ची भक्ति में कोई भेद नहीं है, अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार किसी को भी अपना प्रमुख मार्ग बनाया जा सकता है।
8. भाग्य और पुरुषार्थ का समन्वय -
तुलसी एकांगी भाग्यवाद के समर्थक नहीं हैं जो अकर्मण्यता का प्रेरक बनता है। पूर्वजन्म के कर्मों का फल को भोगना और नए सिरे से सत्कर्म करना ही सही दृष्टि है।
साहित्य के क्षेत्र में तुलसीदास का समन्वय
1. स्वांतः सुखाय और सर्वजन हिताय का समन्वय -
तुलसी साहित्य रचना को व्यक्तिपरक या व्यक्तिगत आनंद की वस्तु (स्वांत सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा) मानते हैं परंतु तुलसी की विशेषता इस बात में है कि वे व्यक्तिपरकता या आत्मपरकता के उस रूप के हिमायती नहीं हैं जो समष्टि के सुख-दुख, आनंद- विषाद या मंगल अमंगल से विच्छिन्न और आत्म केंद्रित होता है। तुलसी ऐसी किसी भी वस्तु या साधना के उत्कट विरोधी हैं जो समष्टि मंगल और समष्टि सुख को उपेक्षित करती है। इसका उदाहरण उनका संपूर्ण साहित्य है। उन्होंने स्वयं भी अनेक प्रकार से कहा है -
"कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहुँ हित होई।।"
2. विचार और भाव का समन्वय -
जिस प्रकार भक्ति के क्षेत्र में तुलसी ज्ञान और भक्ति का समन्वय आवश्यक मानते हैं, उसी प्रकार साहित्य रचना में वह विचार और भाव, दूसरे शब्दों में बुद्धि पक्ष (मस्तिष्क) और हृदय पक्ष के समन्वय के आग्रही हैं। वह भाव के अंतर्गत प्रलाप को साहित्य नहीं मानते। एकांगी भावना से उच्च कोटि का साहित्य - सृजन संभव नहीं। उनके अनुसार -
हृदय सिंधु मति सीप समाना,
स्वाति सारद कहहिं सुजाना।
जौ बरवै बर बारि विचार,
होहिं कवित मुकुता मनि चारू।।"
यही कारण है कि तुलसी के काव्य में यदि एक ओर रस का अपार कोष मिलता है तो दूसरी ओर उसमें उच्च कोटि के जीवन दर्शन, मूल्य और विचारों के रत्न भी भरे पड़े हैं।
3. भाव पक्ष और कला पक्ष का समन्वय -
काव्य रचना की सफलता उसमें निहित विषय- आधार (भाव) की उच्चता और सरस काव्य - कला (भाषा, काव्य- रूप, छंद आदि) पर निर्भर करती है। इस आधार पर भी तुलसी का काव्य एक उत्कृष्ट काव्य है। भाव पक्ष की गंभीरता, सरलता ने ही तुलसी के काव्य को एक उच्च कोटि के धर्म ग्रंथ का स्थान प्रदान किया है। काव्य कला के संबंध में 'रामचरितमानस' में महाकाव्य और पुराण का समन्वय अपने ढंग का एक ही है। उनके काव्य में शब्द और अर्थ, भाव और भाषा, भाव और छंद, अलंकार और अलंकार्य का अपेक्षित समन्वय दृष्टिगोचर होता है।
4. काव्य के मानदंड -
भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य के छह प्रमुख मानदंड निर्धारित किए गए हैं - रस, ध्वनि, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति और औचित्य। तुलसी ने इन सबका समन्वय किया है, सैद्धांतिक रूप से भी तथा प्रयोगात्मक रूप में भी। उनका काव्य इन सभी काव्य - सौंदर्य - विधायक तत्वों का समन्वय है। पाश्चात्य काव्य समीक्षकों द्वारा प्रतिपादित बिंब विधान, मानवीकरण, ध्वन्यर्थ व्यंजना आदि की रमणीयता भी उनकी रचना की विशेषता है।
5. शील, शक्ति और सौंदर्य का समन्वय -
तुलसी ने अपनी रचना में राम के जिस चरित्र को भारतीय जनता के सन्मुख उपस्थित किया, उसमें उन्होंने सौंदर्य के ऐसे आदर्श को अभिव्यक्ति दी है जो एक संपूर्ण संस्कृति या जाति के जीवन को प्रेरणा देने में सक्षम है। तुलसी ने अंतः सौंदर्य और बाह्य सौंदर्य के उसके दोनों पक्षों को दिखाया और सच्चे सौंदर्य का आदर्श प्रस्तुत किया। तुलसी के राम में जो शील, शक्ति और सौंदर्य की त्रिवेणी का सामंजस्य है, वह इसी तथ्य को प्रकाशित करता है।
अत: तुलसी का संपूर्ण काव्य एक महान समन्वयात्मक प्रयास है। डॉ० उदय भानु सिंह जी के शब्दों में - "उनमें कवि की प्रतिभा, भक्त के निष्काम हृदय और समाज - सुधारक लोकमंगल - भावना का अपूर्व समन्वय था। उन्होंने अपने अनुभव, अंवेक्षण, शास्त्र ज्ञान और सहृदयता के आधार पर कवित्व, धर्म और भक्ति की त्रिपथगा का निर्माण किया। उनकी समन्वय - साधना बहुमुखी है।" निष्कर्षत: उनकी असाधारण सफलता, महत्ता और लोकप्रियता का बहुत कुछ श्रेय उनकी समन्वय- साधना को है।
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