NCERT Study Material for Class 10 Hindi Sparsh Chapter 1 Kabir - Saakhi (Kabir ki sakhiyan - Class 10)
हमारे ब्लॉग में आपको NCERT पाठ्यक्रम के अंतर्गत कक्षा 10 (Course B) की हिंदी पुस्तक 'स्पर्श' के पाठ पर आधारित प्रश्नों के सटीक उत्तर स्पष्ट एवं सरल भाषा में प्राप्त होंगे। साथ ही काव्य - खंड के अंतर्गत निहित कविताओं एवं साखियों आदि की विस्तृत व्याख्या भी दी गई है।
यहाँ NCERT HINDI Class 10 के पाठ - 1 'कबीर - साखी' की व्याख्या दी जा रही है।
इन साखियों की व्याख्या पाठ की विषय-वस्तु को समझने में आपकी सहायता करेगी। इसे समझने के उपरांत आप पाठ से संबंधित किसी भी प्रश्न का उत्तर सरलता से दे सकेंगे।
आपकी सहायता के लिए पाठ्यपुस्तक में दिए गए प्रश्नों के उत्तर (Textbook Question-Answers) एवं अतिरिक्त प्रश्नों के उत्तर (Extra Questions /Important Questions with Answers) भी दिए गए हैं। आशा है यह सामग्री आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
कबीर की साखियाँ
ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ ।।
शब्दार्थ -
बाँणी - वाणी
आपा - अहंकार, घमंड
खोइ - खो कर, त्याग करके
तन - शरीर
सीतल - शीतल (ठंडा) , शांत
औरन कौं - दूसरों को
होइ - होना
व्याख्या -
इस साखी के माध्यम से कबीरदास जी मनुष्यों को अपने मन का अहंकार (घमंड) छोड़कर मधुर वाणी बोलने की शिक्षा देते हैं।
कबीर दास जी मीठी वाणी बोलने पर बल देते हुए कहते हैं कि व्यक्ति को सदैव ऐसी बोली बोलनी चाहिए जो अहंकार रहित हो। ऐसा करने से हमारी बात सुनने वाला व्यक्ति हमसे प्रसन्न रहेगा और हमारा अर्थात् बोलने वाले का मन भी शांत होगा।
कहने का भाव यह है कि जब व्यक्ति अपने मन से अहंकार को पूरी तरह से समाप्त कर देगा, तब उसके मन में भी किसी के लिए क्रोध, ईर्ष्या आदि बुरे भाव उत्पन्न नहीं होंगे। अहंकार के कारण ही व्यक्ति में क्रोध आदि बुराइयाँ जन्म लेती हैं और व्यक्ति का धैर्य कम होता है। ऐसा करने पर व्यक्ति के मुख से सभी के लिए हमेशा मधुर (मीठे) शब्द ही निकलेंगे जिसके कारण सुनने वाले को हमसे कोई शिकायत नहीं होगी और वह हमसे प्रसन्न रहेगा। मन में किसी भी प्रकार के बुरे भाव ना रहने के कारण व्यक्ति का अपना मन भी शीतल अर्थात् शांत रहेगा।
(2)
कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।
ऐसें घटि घटि राँम है,दुनियाँ देखे नाँहिं ।।
शब्दार्थ -
कस्तूरी - एक सुगंधित पदार्थ (Musk)
कुंडलि - नाभि
मृग - हिरण
वन - जंगल
माँहि - भीतर
घटि घटि - कण-कण में, हर जगह
देखै नाँहिं - देखती नहीं
व्याख्या - कबीर दास जी ने ईश्वर की सर्वव्यापकता और मनुष्य की अज्ञानता का ज्ञान कराने के लिए हिरण का उदाहरण दिया है।
कबीर दास जी कहते हैं कि जिस प्रकार कस्तूरी नमक सुगंधित पदार्थ हिरण की नाभि में ही होता है परंतु इस सत्य से अनजान हिरण उस सुगंध को पाने के लिए बेसुध होकर जंगल में ढूँढ़ता हुआ भटकता रहता है। इसी प्रकार ईश्वर भी सृष्टि के कण-कण में व्याप्त हैं तथा सभी प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं। परंतु अज्ञानता के कारण संसार के लोग इस बात से अनजान रहते हैं और ईश्वर को पाने के लिए मंदिरों और मस्जिदों आदि तीर्थ स्थानों पर खोजते हुए भटकते रहते हैं। कबीरदास जी कहते हैं कि हमें ईश्वर को बाहर खोजने के स्थान पर अपने मन के भीतर खोजना चाहिए।
(3)
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि ।।
शब्दार्थ -
मैं - अहंकार
हरि - ईश्वर
अँधियारा - अज्ञान का अंधेरा
दीपक - ज्ञान का प्रकाश
माँहि - भीतर
व्याख्या - कबीर दास जी कहते हैं कि जब तक मेरे अंदर 'मैं' अर्थात् अहंकार का भाव था तब तक मुझे 'हरि' अर्थात ईश्वर नहीं मिल पा रहे थे। जब मेरे अंदर ज्ञान रूपी दीपक का प्रकाश हुआ, तब मेरे अज्ञान, स्वयं को बड़ा मानने के अहंकार रूपी अंधकार का नाश हो गया।
कहने का भाव यह है कि जब तक भक्त के हृदय में अहंकार की भावना होगी तब तक वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता।अहंकार का त्याग करने पर ही ईश्वर तथा सच्चे ज्ञान की प्राप्ति होती है।
दीपक के प्रकाश से जिस प्रकार अंधेरा मिट जाता है उसी प्रकार ज्ञान रूपी दीपक के जलते ही मनुष्य का अज्ञान रूपी अंधकार नष्ट हो जाता है। ईश्वर भक्ति में ही सच्चा सुख है, यह ज्ञान प्राप्त होने के बाद मनुष्य संसार के बंधनों में नहीं भटकता। वह ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर चल पड़ता है।
(4)
सुखिया सब संसार है, खायै अरू सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरू रोवै।।
शब्दार्थ -
सुखिया - सुखी
खायै - खाता है
अरू - और
सोवै - सोता है
दुखिया - दुखी
रोवै - रोता है
व्याख्या - संसार मोह माया के अंधकार में डूबा हुआ है। संसार के लोग जीवन के वास्तविक उद्देश्य से भटक गए हैं। वे जीवन का सच्चा सुख खाना, पीना और सोना ही मानते हैं। संसार के लोग ईश्वर की भक्ति को भूलकर केवल सुख - सुविधाओं का भोग करने में डूबे हुए हैं। अज्ञानता के कारण वे जीवन का सच्चा सुख इसे ही मानते हैं। कबीरदास जी को संसार की इस नश्वरता का और ईश्वर का ज्ञान हो चुका है। वे मोह - माया के इस बंधन की वास्तविकता को पहचानते हैं इसीलिए वे स्वयं को जगा हुआ मानते हैं। कबीरदास जी अज्ञान रूपी अंधकार में सोए हुए मनुष्यों को देखकर दुखी है और रो रहे हैं।
भाव यह है कि कबीरदास जी कहते हैं कि संसार के लोग अज्ञान के कारण अपनी वास्तविकता से अनजान हैं और सोए हुए हैं। मनुष्य जीवन में ईश्वर की भक्ति के अपने उद्देश्य से अनजान सोए हुए लोगों को देखकर कबीरदास जी दुखी हैं। वे प्रभु को पाने की आशा में जागते रहते हैं।
(5)
बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ ।।
शब्दार्थ -
बिरह - वियोग, अपने प्रिय से अलग होने का दुख
भुवंगम - भुजंग
तन - शरीर
बसै - बसता है (रहता है)
मंत्र - उपाय
जिवै - जीता है
बौरा - पागल
होइ - हो जाता है
व्याख्या - कबीरदास जी ने विरह को सर्प के काटनेके समान कष्ट देने वाला और लाइलाज कहा है। वे कहते हैं कि विरह रूपी साँप जिस व्यक्ति के शरीर में निवास करता है उस पर किसी प्रकार के मंत्र या उपाय का प्रभाव नहीं होता और उसकी मृत्यु हो जाती है। उसी प्रकार ईश्वर के वियोग में मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। यदि वह किसी प्रकार जीवित रह भी जाए तो वह पागल हो जाता है।
भाव यह है कि जब विरह अर्थात् अपने प्रिय से अलग होने का दुख सर्प की भांति शरीर में बैठ जाता है तब विरही व्यक्ति सदा तड़पता रहता है। उस पर किसी प्रकार के मंत्र या उपचार का कोई प्रभाव नहीं होता। कबीरदास जी के अनुसार जिस जीव के मन में ईश्वर से मिलने की तड़प जाग उठती है वह जीव अपने प्रिय परमात्मा के दर्शन के बिना वियोग की पीड़ा में दुखी रहता है। उसका यह दुख अन्य किसी उपाय से दूर नहीं होता,केवल ईश्वर के दर्शन पाकर ही उसे शांति प्राप्त होती है।
(6)
निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।
बिन साबण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ ।।
शब्दार्थ -
निंदक - निंदा (बुराई) करने वाले, कमियाँ बताने वाले
नेड़ा - निकट
आँगणि - आँगन
कुटी - कुटिया
साबण - साबुन
पाँणीं - पानी
निरमल - साफ़
सुभाइ - स्वभाव
व्याख्या - कबीरदास जी ने मनुष्य को अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए निंदा करने वाले व्यक्तियों को अपने घर में अर्थात् सम्मान के साथ अपने आसपास रखने का उपाय बताया है। ऐसा करने से निंदा करने वाला व्यक्ति जब हमें हमारी गलतियाँ बताएगा तो हम उन गलतियों को सुधार कर अपना स्वभाव निर्मल (विकार मुक्त) बना पाएँगे। ऐसा करने से हमारा व्यवहार, बिना साबुन और पानी के अर्थात् बिना किसी प्रयास के निखरता जाएगा।
(7)
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ। i
ऐकै अषिर पीव का, पढ़ें सु पंडित होइ ।।
शब्दार्थ -
पोथी - ग्रंथ (मोटी धार्मिक पुस्तक पुस्तक)
पढ़ि पढ़ि - पढ़-पढ़कर
जग - संसार
मुवा - मर गया
पंडित - विद्वान
भया - हुआ
ऐकै - एक
अषिर - अक्षर
पीव - प्रिय (प्रभु)
व्याख्या - इस साखी में कबीरदास जी ने पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा ईश्वर - प्रेम को महत्त्व दिया है।
कबीरदास जी के समय में धर्म ग्रंथों का अध्ययन करने वाले विद्वान स्वयं को ईश्वर का सबसे बड़ा भक्त मानते थे। इस पंक्ति के द्वारा कबीर उन पर करारा व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि केवल धार्मिक ग्रंथों को पढ़कर स्वयं को विद्वान और ज्ञानी कहने वाले न जाने कितने आए और मिटते रहे हैं किंतु किसी को सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ अर्थात् ईश्वर नहीं मिल सका। उनके अनुसार जो व्यक्ति ईश्वर -प्रेम के एक अक्षर को जान लेता है, वही सच्चा विद्वान है।
(8)
हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि।।
शब्दार्थ -
जाल्या - जलाया
आपणाँ - अपना
मुराड़ा - मशाल (जलती हुई लकड़ी) - प्रतीक रूप में - ज्ञान
हाथि - हाथ में
जालौं - जलाऊँगा
तास का - उसका
जे - जो
साथि - साथ में
व्याख्या - कबीरदास जी कहते हैं कि उन्होंने ईश्वरीय ज्ञान रूपी मशाल से अपने घर को अर्थात् मोह-माया और सांसारिक बंधनों को जला दिया है। अब जो व्यक्ति ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में उनके साथ चलना चाहता है, वे ज्ञान रूपी मशाल से उनके लोभ, मोह आदि विकारों रूपी घर का नाश कर देंगे।
भाव यह है कि जिस प्रकार ज्ञान के कारण कबीरदास जी स्वयं ईश्वर भक्ति प्राप्त कर सके, उसी प्रकार वह अपने ज्ञान द्वारा अपने साथ चलने वालों को मोह - माया से मुक्ति का उपाय बताकर ईश्वर प्राप्ति में उनकी सहायता करेंगे।
NCERT Class 10 Hindi Sparsh Chapter 1 कबीर : साखी (कबीर की साखियाँ)
पाठ्यपुस्तक में दिए गए प्रश्नों के उत्तर
(Textbook Question-Answers)
प्रश्न - अभ्यास
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए -
1. मीठी वाणी बोलने से औरों को सुख और अपने तन को शीतलता कैसे प्राप्त होती है?
उत्तर - मनुष्य के मुख से सदैव मीठी वाणी तभी निकलती है जब उसके मन में किसी के प्रति क्रोध, ईर्ष्या या अन्य कोई विकार (बुरे भाव) न हों। ऐसा तभी संभव है जब मनुष्य अपने मन से अहंकार को पूरी तरह मिटा दे। ऐसा करने पर हमारे मुख से सभी के लिए हमेशा मधुर शब्द ही निकलेंगे, जिस कारण सुनने वाले को हमसे कोई शिकायत नहीं होगी और वह हमसे प्रसन्न रहेगा। किसी प्रकार के बुरे भाव मन में न होने के कारण हमारा मन भी शांत रहेगा।
2. दीपक दिखाई देने पर अँधियारा कैसे मिट जाता है? साखी के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - दीपक के प्रकाश से जिस प्रकार अंधेरा मिट जाता है उसी प्रकार ज्ञान रूपी दीपक के जलते ही मनुष्य का अज्ञान रूपी अंधकार नष्ट हो जाता है। ईश्वर भक्ति में ही सच्चा सुख है, यह ज्ञान प्राप्त होने के बाद मनुष्य संसार के बंधनों में नहीं भटकता। वह ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर चल पड़ता है।
3. ईश्वर कण - कण में व्याप्त है, पर हम उसे क्यों नहीं देख पाते?
उत्तर - ईश्वर कण - कण में व्याप्त है, पर हम अपने अज्ञान के कारण उसे नहीं देख पाते। हम ईश्वर को अपने मन में खोजने के स्थान पर मंदिरों, मस्जिद और तीर्थ स्थानों पर खोजते हैं और भटकते रहते हैं।
4. संसार में सुखी व्यक्ति कौन है और दुखी कौन? यहाँ 'सोना' और 'जागना' किसके प्रतीक हैं? इसका प्रयोग यहाँ क्यों किया गया है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - संसार में सुखी व्यक्ति वह है जो केवल सांसारिक सुखों में डूबा रहता है और जिसके जीवन का उद्देश्य केवल खाना, पीना और सोना है। मृत्यु के बाद उसकी क्या स्थिति होगी, अज्ञान के कारण उसे इसकी चिंता नहीं होती। जो व्यक्ति संसार की नश्वरता को जानता है और यह जानता है कि ईश्वर ही एकमात्र सत्य है वह ईश्वर से मिलने के लिए तड़पता रहता है, इसलिए वह दुखी है। यहाँ 'सोना' अज्ञान में पड़े रहने तथा 'जागना' ज्ञान प्राप्त होने का प्रतीक है।
* सोने वाला व्यक्ति वास्तव में सुखी नहीं है क्योंकि वह अज्ञानी है और सुख का सच्चा मतलब नहीं समझता। जागा व्यक्ति संसार के चक्र से मुक्ति चाहता है। वह ईश्वर के दर्शन के लिए बेचैन है इसलिए वह दुखी है।
5. अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने क्या उपाय सुझाया है?
उत्तर - अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए संत कबीर ने निंदा करने वाले व्यक्तियों को अपने घर में अर्थात् सम्मान के साथ अपने आसपास रखने का उपाय बताया है। ऐसा करने से निंदा करने वाला व्यक्ति जब हमें हमारी गलतियाँ बताएगा तो हम उन गलतियों को सुधार कर अपना स्वभाव निर्मल (विकार मुक्त) बना पाएँगे।
6. 'ऐकै अषिर पीव का, पढ़ै सु पंडित होइ' - इस पंक्ति द्वारा कवि क्या कहना चाहता है?
उत्तर - इस पंक्ति के माध्यम से कबीरदास कहना चाहते हैं कि ईश्वर - प्राप्ति के लिए बड़े-बड़े ग्रंथों को पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर प्रेम का एक अक्षर ही किसी व्यक्ति को पंडित बनाने के लिए काफ़ी है।
7. कबीर की उद्धृत साखियों की भाषा की विशेषता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - कबीर शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को अधिक महत्त्व देते थे। उन्होंने जगह - जगह भ्रमण करके प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया और जनभाषा में ही अपने विचारों को व्यक्त किया। उनके द्वारा रचित साखियों में अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी और पंजाबी भाषाओं के शब्दों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। इसी कारण उनकी भाषा को 'पंचमेल खिचड़ी' कहा जाता है। कबीर की भाषा की सहजता (सरलता) ही उनके काव्य की शक्ति है। जनभाषा (आम लोगों की भाषा) के निकट होने के कारण ही उनकी साखियों में गहरी बातों को सरल ढंग से व्यक्त करने की शक्ति है।
(ख) निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए -
1. विरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
उत्तर - इस पंक्ति का भाव यह है कि जब विरह अर्थात् अपने प्रिय से अलग होने का दुख सर्प की भांति शरीर में बैठ जाता है तब विरही व्यक्ति सदा तड़पता रहता है। उस पर किसी प्रकार के मंत्र या उपचार का कोई प्रभाव नहीं होता। कबीरदास जी के अनुसार जिस जीव के मन में ईश्वर से मिलने की तड़प जाग उठती है वह जीव अपने प्रिय परमात्मा के दर्शन के बिना वियोग की पीड़ा में दुखी रहता है। उसका यह दुख अन्य किसी उपाय से दूर नहीं होता,केवल ईश्वर के दर्शन पाकर ही उसे शांति प्राप्त होती है।
2. कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढ़ै बन माँहि।
उत्तर - इस पंक्ति का भाव है कि कस्तूरी नामक सुगंधित पदार्थ हिरण की नाभि में ही होता है। परंतु इस सत्य से अनजान, हिरण उस सुगंध की तलाश में बेसुध होकर उसे जंगल में ढूँढ़ता हुआ भटकता रहता है।। उसी प्रकार ईश्वर मनुष्य के हृदय में स्थित हैं। परंतु अज्ञानता के कारण मनुष्य उसे मंदिर, मस्जिद तथा अन्य तीर्थ स्थानों पर खोजते हुए भटकता रहता है।
3. जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि।
उत्तर - इस पंक्ति का भाव है कि जब तक भक्त के हृदय में अहंकार की भावना होगी तब तक वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। जैसे ही मनुष्य अपने अहंकार का नाश कर देता है उसी क्षण वह ईश्वर को प्राप्त कर लेता है।
4. पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
उत्तर - कबीरदास जी के समय में धर्म ग्रंथों का अध्ययन करने वाले विद्वान स्वयं को ईश्वर का सबसे बड़ा भक्त मानते थे। इस पंक्ति के द्वारा कबीर उन पर करारा व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि केवल धार्मिक ग्रंथों को पढ़कर स्वयं को विद्वान और ज्ञानी कहने वाले न जाने कितने आए और मिटते रहे हैं किंतु किसी को सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ अर्थात् ईश्वर नहीं मिल सका। उनके अनुसार जो व्यक्ति ईश्वर -प्रेम के एक अक्षर को जान लेता है, वही सच्चा विद्वान है।
अतिरिक्त प्रश्नों के उत्तर
(Extra Questions /Important Questions. with Answers) -
1. कबीरदास जी का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
अथवा
कबीरदास जी को भक्तिकाल का /अपने युग का सामाजिक क्रांतिकारी क्यों माना जाता है?
अथवा
कबीरदास जी के काव्य की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर - कबीर का जन्म 1398 में काशी में हुआ माना जाता है। कबीरदास जी गुरु रामानंद के शिष्य थे। कबीरदास जी की आयु 120 वर्ष मानी जाती है। उन्होंने जीवन के अंतिम कुछ वर्ष मगहर में बिताए और वहीं चिरनिद्रा में लीन हो गए अर्थात् अपने शरीर का त्याग किया।
कबीरदास जी के समय में राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक क्रांतियाँ अपने चरम पर थीं। उस समय में कबीरदास जी ने एक क्रांतिकारी कवि के रूप में अपनी भूमिका निभाई। उनके काव्य में गहरी सामाजिक चेतना प्रकट होती है। उनकी कविता सहज ही मर्म को छू लेती है। एक ओर धर्म के बाह्याडंबरों जैसे मूर्ति पूजा, तिलक-छाप आदि पर उन्होंने गहरी और तीखी चोट की है तो दूसरी ओर आत्मा-परमात्मा के विरह-मिलन के भावपूर्ण गीत गाए हैं। कबीर शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को अधिक महत्त्व देते थे। उनका विश्वास सत्संग में था और वे मानते थे कि ईश्वर एक है, वह निर्विकार है, अरूप है। कबीर की भाषा पूर्वी जनपद की (आम लोगों की) भाषा थी। उन्होंने जनचेतना और जनभावनाओं को अपने सबद और साखियों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाया।
2. 'साखी' शब्द से आप क्या समझते हैं?
उत्तर - 'साखी' शब्द 'साक्षी' शब्द का ही तद्भव रूप है। साक्षी शब्द साक्ष्य से बना है जिसका अर्थ होता है-प्रत्यक्ष ज्ञान। यह प्रत्यक्ष ज्ञान गुरु अपने शिष्य को प्रदान करता है। 'साखी' वस्तुतः दोहा छंद ही है जिसका लक्षण है 13 और 11 के विश्राम से 24 मात्रा। प्रस्तुत पाठ की साखियाँ प्रमाण हैं कि सत्य की साक्षी देता हुआ ही गुरु शिष्य को जीवन के तत्वज्ञान की शिक्षा देता है। यह शिक्षा जितनी प्रभावपूर्ण होती है उतनी ही याद रह जाने भी। संत संप्रदाय में अनुभव ज्ञान की ही महत्ता है, शास्त्रीय ज्ञान की नहीं। कबीर का अनुभव क्षेत्र विस्तृत था। कबीर जगह-जगह भ्रमण कर प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते थे। इसलिए उनके द्वारा रचित साखियों में अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी और पंजाबी भाषाओं के शब्दों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इसी कारण उनकी भाषा को 'पचमेल खिचड़ी' कहा जाता है। कबीर की भाषा को 'सधुक्कड़ी' भी कहा जाता है।
3. कबीर के दोहों को साखी क्यों कहा जाता है?
उत्तर - 'साखी' शब्द 'साक्षी' के तद्भव रूप से बना है। साक्षी शब्द साक्ष्य से बना है जिसका अर्थ होता है-प्रत्यक्ष ज्ञान अर्थात् 'आँखों से देखा हुआ' या गवाही। कबीरदास जी ने जगह-जगह घूमकर अपनी आँखों से इस संसार में जो कुछ घटित होते देखा, जो ज्ञान प्राप्त किया, उसे ही अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी और पंजाबी भाषा के मिले-जुले शब्दों की अपनी पंचमेली भाषा में व्यक्त किया। स्वयं कबीरदास जी ने इन्हें 'साखी आँखी ज्ञान की' कहा है। इसी कारण इन दोहों को साखी कहा जाता है।