मानव और समाज का संबंध अविच्छिन्न है। व्यक्ति और समाज का वैचारिक और सांस्कृतिक आदान - प्रदान होता रहा है। प्रभाव ग्रहण करने के साथ-साथ मनुष्य विवेक - बुद्धि संपन्न होने के कारण समाज का दिशा निर्देश भी करता है। मनुष्य अपनी सामाजिक चेतना से समाज का कल्याण करने में सक्षम होता है।
इस पोस्ट में हम जानेंगे कि भक्त शिरोमणि तुलसीदास जी ने अपनी सामाजिक चेतना को किस प्रकार अपने काव्य के माध्यम से जन - जन तक पहुंँचाया। तुलसी की सामाजिक चेतना उस युग के लिए किस प्रकार किसी पथ प्रदर्शक से कम नहीं थी।
तुलसीदास जी की सामाजिक चेतना
तुलसीदास जिस युग में अवतरित हुए, वह सामाजिक दृष्टि से अशांति का युग था। मुगलों के आधिपत्य के कारण भारतीय संस्कृति का ह्रास हो रहा था। मुस्लिम और भारतीय विचारधाराओं में संघर्ष होते देखकर और अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए तुलसीदास ने प्राचीन भारतीय आदर्शों को रामचरितमानस में पुनर्जीवित करने का सफल प्रयास किया। तुलसी ने तत्कालीन समय में ऐसे महाकाव्य का सृजन किया जिससे भारतीय जनता लौकिक सुखों की प्राप्ति करते हुए अपनी परंपरागत संस्कृति की रक्षा कर सके।
रामचरितमानस में केवल भक्ति अथवा काव्य-पक्ष का ही वर्णन नहीं अपितु व्यक्ति और समाज का संबंध, सामाजिक आदर्श, पारिवारिक आदर्श, धार्मिक आदर्श और राजनीतिक विचारधारा एवं समाज के उत्कर्ष और अपकर्ष का विवरण भी मिलता है। मानस का उद्देश्य एक आदर्श परिवार और आदर्श समाज के निर्माण में सहयोग देना है, जिसके मेरुदंड त्याग, सत्य, प्रेम और मंगलकारी है।
तुलसी काव्य में लोकमत का स्थान -
सामाजिक - व्यवस्था के संदर्भ में तुलसी ने व्यक्ति और समाज के आपसी संबंधों में दोनों को यथोचित महत्त्व देते हुए भी समाज की सत्ता को अधिक महत्त्व दिया है। इसी को उन्होंने साधुमत (व्यक्तिमत) और लोकमत कहा है। इसमें तुलसी के अनुसार कोई विरोध नहीं है। विशेष परिस्थितियों को छोड़कर (प्रहलाद या मीरा) साधुमत को लोकमत का अनुगामी होना चाहिए। इनमें असामंजस्य अमंगलकारी है।
तुलसी काव्य में वर्णाश्रम व्यवस्था का महत्त्व -
गोस्वामी तुलसीदास भारतीय प्राचीन परंपराओं के कट्टर समर्थक थे। वह वर्णाश्रम धर्म के हिमायती थे। वर्णाश्रम धर्म का तत्कालीन समय में पराभव हो रहा था। उस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी अपने कर्मों से स्खलित हो रहे थे। ब्राह्मण जो विद्या का अनुरागी था और दृष्टिकोण से उदार थे, वह रूढ़िवादिता और कुरीतियों से आक्रांत हो रहा था, ब्राह्मणों के विषय में उन्होंने कहा है -
"प्रभु के वचन,वेद-बुध-सम्मत,
मम मूरति महिदेव मई है।
तिनकी मती रिस-राग मोह मद,
लोभ लालची लील गई है।।"
उस समय चतुर्दिक मूल्यों का ह्रास हो रहा था। नैतिकता, चरित्र और त्याग अधोन्मुखी हो रहे थे। इस स्थिति का वर्णन तुलसी ने रामचरितमानस में किया है -
"सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव विप्र श्रुतिपंथ विरोधी।।"
तत्कालीन परिस्थिति में भारतीय सामाजिक जीवन की अधोन्मुखी अवस्था को देखते हुए (जिसमें ब्राह्मणों का झुकाव काम और मद की ओर हो गया था, विधवाएँ सोलह शृंगार कर पुरुषों को रिझाने का कार्य करती थी, नारी सम्मान एक बहुत बड़ी समस्या बन गया था) तुलसी बार-बार वर्णाश्रम धर्म की अवस्था और उसके महत्त्व पर विशेष बल देते हैं -
"बरनाश्रम निज - निज धर्म, निरत वेद पथलोग। चलहिं सदा पावहिं सुखहिं, नहि भय सोकन रोग।"
तुलसी वर्णाश्रम व्यवस्था को धर्म मानते हैं और मर्यादा को ही जीवन और समाज का सर्वोपरि तत्त्व कहते हैं। लेकिन दूसरी ओर वह एक समन्वयवादी दृष्टि अपनाते हुए यह घोषणा करते हैं कि राम से प्रेम का अधिकार सबको है। शूद्र ब्राह्मण से श्रेष्ठ है यदि वह राम का भक्त है, उसी प्रकार ब्राह्मण शूद्र से निम्न है, यदि वह रामभक्त नहीं है। अतः तुलसी सामाजिक व्यवस्था के लिए वर्णाश्रम - धर्म के आग्रही होते हुए भी भक्ति के क्षेत्र में ऊँच - नीच का भेद नहीं मानते।
तुलसी काव्य में आश्रम-व्यवस्था के प्रति निष्ठा -
प्राचीन काल से ही भारतीय समाज और साहित्य में आश्रम-व्यवस्था का परिचर्चा है। वैदिककाल में आश्रम-व्यवस्था चार भागों में विभक्त थी। ये आश्रम पचीस - पचीस वर्ष की व्यवस्था क्रम से रखे गए हैं। उस समय आश्रम-व्यवस्था के प्रति अनास्था बढ़ रही थी, इसीलिए तुलसी ने अपने काव्य में आश्रम-व्यवस्था के प्रति निष्ठा अभिव्यक्त की है। राम और दशरथ के वक्तव्यों के माध्यम से कवि ने इसकी चर्चा की है। रामचंद्र जी अपने अपने भाइयों के साथ गुरु के गृह में विद्याध्ययन करने जाते हैं। पाश्चात्, ब्रह्माचर्य आश्रम में सभी भाई विद्याध्ययन करते हैं, फिर इन सभी का परिणय होता है और गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते हैं। रामचरितमानस में क्रम से प्रत्येक आश्रम के प्रति कवि का मोह स्पष्ट प्रदर्शित हुआ है।
तुलसी काव्य में हिंदू धर्म के संस्कारों की रक्षा और धार्मिक आडंबरों का विरोध -
रामचरितमानस में उस समय की प्रचलित सभी मान्यताओं का चित्रण हुआ है। शास्त्रानुमोदित सोलह संस्कारों का वर्णन कर गोस्वामी जी ने हिंदू धर्म के संस्कारों की रक्षा की। उन्होंने अपने समय में व्याप्त धार्मिक उच्छृंखलता और आडंबर प्रधानता का डट कर विरोध किया और सर्वदेव समन्वय और सच्ची भक्ति - भावना का आदर्श प्रतिपादित किया। उन्होंने प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग का सही समन्वय किया। थोथे वैराग्यवाद का विरोध कर उन्होंने भक्ति के साथ ज्ञान और कर्म को भी महत्त्व दिया। उनकी भक्ति समाज विमुख और निष्क्रय नहीं है, इसलिए वह कहते हैं -
'परहित सरिस धर्म नहिं भाई।'
तुलसी काव्य में परिवार का आदर्श -
भारतीय संस्कृति में परिवार का आदर्श बहुत महत्त्वपूर्ण है। तुलसीदास के समय में भारतीय समाज और उसका अविभाज्य अंग परिवार, विकारग्रस्त हो गया था। तुलसीदास ने मानस में परिवार का आदर्श उपस्थित करते समय उसके सैद्धांतिक और व्यवहारिक दोनों पक्षों का उद्घाटन किया है।
दशरथ परिवार का प्रत्येक व्यक्ति कोई-न-कोई आदर्श उपस्थित करता है। राजा दशरथ सत्य के लिए जीवन परित्याग करके समाज के समक्ष आदर्श रखते हैं तो राम पितृभक्त, सत्यपालन आदि अनेक मानवीय गुणों के आधार हैं। राम अपने पिता का वचन मानकर वन चले जाते हैं। राम वन जाते समय कैकेयी के प्रति आक्रोश अभिव्यक्त नहीं करते, यह उनके महान् आदर्श तथा गंभीर व्यक्तित्व का परिचायक है। भ्राता के रूप में भरत और लक्ष्मण, पति-पत्नी के रूप में राम और सीता, राजा और प्रजा, गुरु और शिष्य, भाई और भाई, माता और पुत्र, पिता और पुत्री, श्वसुर और जामातृ, सास और बहू, क्षत्रिय और ब्राह्मण, सेवक और स्वामी, मित्र का मित्र के प्रति व्यवहार और शत्रु का शत्रु के प्रति आचरण-इन सबका तुलसीदास ने मानस में एक आदर्श उपस्थित किया है।
चित्रकूट सभा में जो मर्यादित आदर्श उपस्थित किया गया है, वह भारतीय समाज के लिए अनुकरणीय है। 'रामचरितमानस' में तुलसी ने प्रत्येक पात्र की सर्जना किसी-न-किसी सामाजिक आदर्श की स्थापना के लिए की है।
तुलसी काव्य में राजा और प्रजा के कर्त्तव्यों का आदर्श -
राजनीति के अंतर्गत तुलसी ने अपने काव्य में रामराज्य का जो आदर्श उपस्थित किया है, वह राजा-प्रजा के संबंधों और उनके कर्त्तव्यों का उनका आदर्श प्रस्तुत करता है। 'मानस' में एतद् संबंधी विचार बिखरे हुए हैं। राजा के आदर्श का उदाहरण दृष्टव्य है -
"बरसत हरषत सब लखैं करषत लखैं न कोय।
तुलसी प्रजा सुभाग ते भूप भानु ते होय।।"
तुलसी ने अपने काव्य में एक ओर तो रावण - राज और अपने युग की दुरावस्था का चित्रण किया है, दूसरी ओर उसके सामने राम - राज्य की आदर्श - व्यवस्था का चित्रण किया है। इस प्रकार के चित्रणों के माध्यम से उन्होंने न्याय और अन्याय के संघर्ष के स्वरूप को प्रस्तुत किया है। अन्याय, उत्पीड़न, अधर्म, दारिद्रय, दुख, दैन्य आदि से मुक्ति पाने का मार्ग बताया है। तुलसी ने ऐसे राजाओं की कटु भर्त्सना की है जिसके राज्य में प्रजा का उत्पीड़न और शोषण होता है -
"राज करत बिनु काज ही करै कुचाली कुसाज।
तुलसी ने दुसकंध ते जइहै सहित समाज।"
तुलसी काव्य में सामंतीय मूल्य-दृष्टि का अतिक्रमण -
तुलसी पर आधुनिक पाठकों द्वारा यह आरोप लगाया जाता है कि 'तुलसी का दृष्टिकोण और उनकी मूल्य-भावना बहुत कुछ तत्कालीन परंपरागत धार्मिक दृष्टिकोण और सामंतीय मूल्य-दृष्टि के अनुकूल है और उन्होंने उसके पुनुरूत्थान की चेष्टा की।' इस आक्षेप का आधार तुलसी साहित्य में मिलने वाली वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था के प्रति उनका आग्रह, शुद्र निंदा, नारी-निंदा, स्वामी-सेवक-भाव, ब्राह्मण - पूजा जैसे पक्ष हैं। परंतु तुलसी का सामाजिक दृष्टिकोण इन सीमाओं के भीतर ही विशेष नहीं हो जाता। उन्होंने कई स्थलों पर सामंतीय मूल्य-दृष्टि का अतिक्रमण भी किया है। ऐसे स्थलों पर तुलसी एक क्रांतिकारी के रूप में भी सामने आते हैं। जिन विषयों को लेकर तुलसी पर आक्षेप लगाए गए हैं, वह भी उस समय की सामाजिक - स्थिति और प्रसंग - विशेष को देखते हुए स्वाभाविक और संगत प्रतीत होते हैं। तुलसी के सामाजिक दर्शन का यह पक्ष उनके प्रगतिशील स्वरूप को उद्घाटित करता है। अतः तुलसी को पूर्ण रूपेण केवल मध्यकालीन मूल्यों के हिमायती के रूप में देखना अन्यायपूर्ण होगा।
तुलसी काव्य में शोषित वर्ग की वेदना का चित्रण -
तुलसी - साहित्य के ऐसे स्थल जहाँ उन्होंने इन मूल्यों का अतिक्रमण किया है, जहाँ उन्होंने अपनी विशाल मानवीय करुणा का परिचय दिया है और समाज के दीन- दुखी, शोषित - उत्पीड़ित, नीच - परित्यक्तजनों की वेदना का चित्रण किया है, वहाँ उनकी भूख, उनके दारिद्रय को देखकर उनका हृदय हाहाकार कर उठता है -
"खेती न किसान को भिखारी को न भीख भलि।
बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी ॥
जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोंच बस।
कहै एक एकन सो कहाँ जाई का करी ॥
* * *
दरित दसानन दबाई दुनी दीन बंधु।
दुरित - दहन देखि तुलसी हाहाकरी।।"
ऐसे स्थल वे हैं जहाँ तुलसी के राम शबरी, गिद्ध, कोल- किरात, निषाद जैसे नीच कहे जाने वाले लोगों के प्रेम के वशीभूत होकर द्रवित हो जाते हैं 'रामहिं केवल प्रेम पियारा, जानि लेऊ जो जाननि हारा।'
तुलसी काव्य में जाति-पांति की व्यवस्था की आलोचना -
तुलसी ने जाति-पांति की व्यवस्था की आलोचना करते हुए उसके हिमायतियों को चुनौती देते हुए कहा है -
'मेरे जाति पांति न चहो काहू की जाति पांति'
इसी प्रकार वे स्थल जहाँ तुलसी नारी की पराधीनता के प्रति क्षोभ प्रकट करते हैं और नारी- पुरुष के लिए एक ही व्रत के पालन की बात करते हैं, वहाँ वे सामंतीय मूल्यों का अतिक्रमण करते हैं।
तुलसी सामाजिक मर्यादा के प्रबल समर्थक -
मर्यादा तुलसी काव्य के सामाजिक पक्ष की रीढ़ के समान है। पार्वती के शिव परामर्श न मानने तथा सीता के लक्ष्मण- रेखा को पार करने पर जो हुआ, वह सामान्य प्राणी को अमर्यादित होने पर उत्पन्न प्रतिक्रिया की सूचना देने के विवाद पर्याप्त है। उन्होंने राजनीति में राम राज्य, मन की शांति की प्राप्ति में गरुड़ इत्यादि के विविध देशीय निर्देशन बाहर - भीतर - अनुशासन के प्रतिपादनार्थ भी प्रस्तुत किए हैं।
निष्कर्षत: तुलसी - काव्य का सामाजिक - पक्ष भारतीय संस्कृति के समाहार को स्वीकार करता चलता है, किंतु वह प्रतिक्रियाजन्य तत्त्वों अथवा कुंठाओं नाकारात्मकताओं के प्रति निष्क्रिय नहीं है। तुलसी की सामाजिक पृष्ठभूमि की संरचना जिस परिवेश में हुई है और जिस समाज की कल्पना गोस्वामी जी ने की है, वह भारतीय समाज के लिए आज भी अनुकरणीय है। यही कारण है कि तुलसीदास भारतीय समाज एवं संस्कृति के महानतम रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। 'सर जार्ज ग्रियर्सन' ने उन्हें 'भारत के सर्वश्रेष्ठ सुधारकों एवं महाकवियों में एक' बतलाया है।'विनोबा भावे' ने उन्हें 'बुद्ध के पश्चात उत्तर भारत महान लोक नायक' घोषित किया है। इतिहासकार 'विन्सेंट स्मिथ' ने उन्हें 'मुगलकालीन सर्वश्रेष्ठ महापुरुष' इसी दृष्टि से कहा है।
आशा है इस पोस्ट के माध्यम से प्राप्त सामग्री तुलसीदास जी के समाज - सुधारक रूप के सभी बिंदुओं को जानने में सहायक होगी। कृपया अपने विचार एवं सुझाव साझा करें।
Very helpful
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