NCERT Study Material for Class 9 Hindi Kshitij Chapter - 10 Laldyad : Vaakh (Explanation)
हमारे ब्लॉग में आपको NCERT पाठ्यक्रम के अंतर्गत कक्षा 9 (Course A) की हिंदी पुस्तक 'क्षितिज' के पाठ पर आधारित प्रश्नों के सटीक उत्तर स्पष्ट एवं सरल भाषा में प्राप्त होंगे। साथ ही काव्य - खंड के अंतर्गत निहित कविताओं एवं साखियों आदि की विस्तृत व्याख्या भी दी गई है।
यहाँ NCERT HINDI Class 9 के पाठ - 10 'ललद्यद - वाख' की व्याख्या दी जा रही है। यह व्याख्या पाठ की विषय-वस्तु को समझने में आपकी सहायता करेगी। इसे समझने के उपरांत आप पाठ से संबंधित किसी भी प्रश्न का उत्तर सरलता से दे सकेंगे। आशा है यह सामग्री आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
NCERT HINDI Class 9 के पाठ - 10 'ललद्यद के वाख' की सप्रसंग व्याख्या -
1
रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव ।
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार ।
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे ।
जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे ।।
शब्दार्थ -
रस्सी कच्चे धागे की - कमज़ोर और नाशवान सहारे ( कभी भी रुक जाने वाली साँसें और सांसारिक मोह-माया)
नाव - जीवन रूपी नाव
देव - ईश्वर
भवसागर - संसार रूपी सागर
पानी टपके - आयु कम होना (उम्र बीतना)
कच्चे सकोरे - मिट्टी का कमज़ोर बर्तन (मनुष्य का नाशवान शरीर)
हूक - पीड़ा
प्रसंग -
प्रस्तुत वाख कश्मीरी भाषा की संत कवयित्री ललद्यद द्वारा रचित है। इस वाख में वे ईश्वर प्राप्ति के लिए किए जाने वाले अपने प्रयासों के व्यर्थ होने पर अपनी चिंता, अपना दुख प्रकट कर रही हैं।
व्याख्या -
ललद्यद कहती हैं कि वे अपने जीवन रूपी नाव को कच्चे धागे की रस्सी रूपी नश्वर साधनों से खींच रही हैं अर्थात् उनका जीवन सांसारिक मोह- माया से मुक्त नहीं हो पा रहा है और यह जीवन कभी भी समाप्त हो जाने वाली साँसों के सहारे चल रहा है। वे इस प्रतीक्षा में अपना जीवन काट रही हैं कि न जाने कब ईश्वर उनकी पुकार सुनकर उन्हें जीवन रूपी सागर से पार उतारेंगे। आगे भी वे अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहती हैं कि मेरा यह शरीर कच्चे सकोरे (मिट्टी के बर्तन) के समान नाशवान है जिसमें भरा हुआ पानी, लगातार टपक - टपककर कम होता जा रहा है अर्थात् मेरी आयु भी दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है और प्रभु को पाने के मेरे सारे प्रयास व्यर्थ सिद्ध हो रहे हैं। कवियत्री के मन में बार-बार एक ही पीड़ा उठती है कि कब वे यह नश्वर संसार छोड़कर प्रभु की शरण में जा सकेंगी।
2
खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी ।
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बंद द्वार की ।
शब्दार्थ -
खा-खाकर - सांसारिक वस्तुओं का उपभोग करके
न खाकर - त्याग करके
सम खा - न अधिक भोग कर और न अधिक त्याग (मध्यम मार्ग अपना)
समभावी - समानता का भाव रखने वाला
साँकल - ताला (कुंडी)
प्रसंग - प्रस्तुत वाख कश्मीरी भाषा की संत कवयित्री ललद्यद द्वारा रचित है। इस वाख में वे इंद्रियों पर नियंत्रण रखकर संयमी बनने की बात पर बल दे रही हैं।
व्याख्या - ललद्यद कहती हैं कि केवल भोग करने से अर्थात् सांसारिक मोह - माया में डूबे रहने से मनुष्य को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। ऐसा करने से मनुष्य का लोभ और अधिक बढ़ जाता है। इसके विपरीत सांसारिक मोह - माया का त्याग करने से, स्वयं को ज्ञानी समझने से मनुष्य अहंकारी बन जाता है। अतः दोनों स्थितियों में वह ईश्वर भक्ति से भटक जाता है। इसलिए ललद्यद मनुष्य को यह सुझाव देती हैं कि मनुष्य को न अधिक भोग करना चाहिए और न ही अधिक त्याग। इसके स्थान पर मध्यम मार्ग अपनाते हुए उसे अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखकर संयमी बनना चाहिए। केवल इसी स्थिति में बंद द्वार की साँकल खुलेगी अर्थात् ज्ञान की प्राप्ति होगी और प्रभु से मिलन के मार्ग खुलेंगे।
3
आई सीधी राह से, गई न सीधी राह ।
सुषुम - सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह !
जेब टटोली, कौड़ी न पाई ।
माझी को दूँ, क्या उतराई ?
शब्दार्थ -
सुषम-सेतु - मनुष्य के शरीर में स्थित एक नाड़ी के माध्यम से हठयोग की प्रक्रिया
जेब टटोली - आत्मलोचन किया (अपने द्वारा किए गए कर्मों के बारे में सोचा)
कौड़ी न पाई - कुछ प्राप्त न हुआ
माझी - भवसागर से पार उतारने वाले प्रभु
उतराई - सद्कर्म रूपी मेहनताना
प्रसंग - प्रस्तुत वाख कश्मीरी भाषा की संत कवयित्री ललद्यद द्वारा रचित है। प्रस्तुत वाख में कवियत्री ने ईश्वर को पाने के लिए सहज भक्ति और सद् कर्मों को आवश्यक बताया है।
व्याख्या - ललद्यद कहती हैं कि प्रभु को पाने के लिए मैंने पहले भक्ति के सरल, सामान्य मार्ग को ही अपनाया था। परंतु बाद में मैंने कठिन हठयोग का मार्ग अपना लिया। मैं ईश्वर प्राप्ति के सरल मार्ग को छोड़ कठिन योग द्वारा सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से ईश्वर से जुड़ना चाहती थी। परंतु मैं अपने इस प्रयास में निरंतर असफल होती रही और धीरे-धीरे मेरा जीवन भी बीतता गया।
कवयित्री पश्चाताप करते हुए कहती हैं कि मैंने अपना सारा जीवन व्यर्थ ही गँवा दिया। हठयोग में फँसे रहने के कारण न ही मैं प्रभु की भक्ति कर सकी और न ही मैंने कोई सद्कर्म किए। अब जब मृत्यु के समय प्रभु रूपी मांझी, मुझे भवसागर पार ले जाने के बदले में मुझसे सद्कर्म रूपी उतराई (मेहनताना) माँगेंगे तो मैं उन्हें क्या दूँगी! अपने अंतिम समय में जब कवयित्री ने आत्मलोचन किया अर्थात् अपने कर्मों का हिसाब किया तब वे अपना दुख प्रकट करते हुए कहती हैं कि मेरी स्थिति एक दरिद्र के समान है जिसके पास कोई अच्छे कर्म नहीं हैं जिनके बदले मैं ईश्वर को प्राप्त कर सकूँ।
4
थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
वही है साहिब से पहचान।।
शब्दार्थ -
थल-थल - जगह-जगह
शिव - ईश्वर
साहिब - मालिक (ईश्वर)
प्रसंग - प्रस्तुत वाख कश्मीरी भाषा की संत कवयित्री ललद्यद द्वारा रचित है।प्रस्तुत पद में ललद्यद ने आत्मज्ञान को ही सच्चा ज्ञान माना है।
व्याख्या - कवयित्री कहती हैं कि ईश्वर कण - कण में अर्थात् हर जगह व्याप्त हैं इसलिए मनुष्य को हिंदू - मुसलमान में अंतर नहीं समझना चाहिए। सभी मनुष्यों में एक ही परमात्मा का वास है। जो इस बात को जान लेता है वह अपने अंतर में (अंदर) ईश्वर की खोज करता है और जब उसे इस बात की अनुभूति हो जाती है कि उसके शरीर में ही ईश्वर का वास है तभी उसकी ईश्वर से पहचान हो जाती है।