NCERT Study Material for Class 10 Hindi Sparsh Chapter - 15 'Ab Kahan dusre ke dukh se dukhi hone wale'
हमारे ब्लॉग में आपको NCERT पाठ्यक्रम के अंतर्गत कक्षा 10 (Course B) की हिंदी पुस्तक 'स्पर्श' के पाठ पर आधारित प्रश्नों के सटीक उत्तर स्पष्ट एवं सरल भाषा में प्राप्त होंगे।
यहाँ NCERT HINDI Class 10 के पाठ - 15 'अब कहाँ दूसरे के दुख से दुखी होने वाले' के मुख्य बिंदु दिए गए हैं जो पूरे पाठ की विषय वस्तु को समझने में सहायक सिद्ध होंगे।
Important key points /Summary which covers whole chapter (Quick revision notes) महत्त्वपूर्ण मुख्य बिंदु जो पूरे अध्याय को कवर करते हैं (त्वरित पुनरावृत्ति नोट्स)
NCERT Solutions for Class 10 Hindi Sparsh Chapter 15 'Ab Kahan dusre ke dukh se dukhi hone wale'- Summary in points.
1. प्रस्तुत पाठ के लेखक निदा फ़ाज़ली जी हैं ।
2. शीर्षक -
पाठ के शीर्षक से ही पता चलता है कि लेखक हमें बताना चाह रहा है कि अब वे लोग इस दुनिया में देखने को नहीं मिलते जो दूसरों के दुख को अपना समझकर स्वयं भी दुखी हुआ करते थे अर्थात् उन्हें दूसरों का दुख अपना दुख लगता था। लेखक ने पाठ में पहले के समय के दयालु लोगों का उदाहरण देते हुए वर्तमान (आज की) स्थिति के बारे में बताया है कि अब लोगों को दूसरों के दुख, दूसरों की परेशानी से कोई सरोकार (मतलब) नहीं रह गया है। पहले के समय में लोग न केवल अपनी जाति बल्कि सभी प्राणियों के दुख को अपना दुख समझकर उसे दूर करने की कोशिश करते थे इसलिए आज जब लेखक ऐसे लोगों को अपने आसपास नहीं पाते तो उनके मन में यह प्रश्न उठता है कि 'अब कहाँ दूसरे के दुख से दुखी होने वाले!'
3. पाठ की विषयवस्तु /पाठ का सार -
पाठ के आरंभ से पहले लेखक ने अपने विचार व्यक्त किए हैं कि प्रकृति ने यह दुनिया अपने द्वारा बनाए गए सभी जीवधारियों (प्राणियों) को अपना जीवन जीने के लिए प्रदान की थी परंतु सबसे अधिक बुद्धिमान और समर्थ होने के कारण 'आदमी' ने प्रकृति और उसके संसाधनों (resources) पर केवल अपना ही अधिकार समझकर उन पर अपना कब्ज़ा करना शुरू कर दिया। इस कारण अन्य जीव - जंतुओं की नस्लें खत्म हो गई या उन्हें अपना घर छोड़कर कहीं और जाना पड़ा। हर जगह आदमी ने अपना अधिकार स्थापित कर रखा है इसलिए वे जीव-जंतु जगह-जगह भटक रहे हैं। इतना सब करने पर भी आदमी की भूख नहीं मिटी अर्थात् अन्य जीव - जंतुओं से उनके हक की ज़मीन छीन कर भी आदमी का लालच कम नहीं हुआ। अब मनुष्य अपनी ही जाति के लोगों के अधिकार छीनने से भी नहीं हिचकिचाता। उसे किसी के सुख-दुख की कोई चिंता नहीं और न ही किसी का साथ देने की इच्छा ही उसके मन में शेष है। लेखक इसी विषय पर दुख व्यक्त करते हुए पहले के समय के लोगों को याद करता है जो दूसरों के दुख, उनकी तकलीफ़ को समझते थे और उसे दूर करना अपना परम धर्म समझते थे।
4. लेखक ने पाठ में कुछ दयावान व्यक्तियों का उदाहरण दिया है, जिनके हृदय में जीव- जंतुओं के लिए भी दया की भावना थी ऐसे महान व्यक्ति 'सभी जीवों में प्राण है' यह समझकर सभी जीवों का सम्मान करते थे।
5. प्रसंग -
पहला प्रसंग (पहली घटना) - सबसे पहले लेखक ने ईसा से 125 वर्ष पूर्व के एक बादशाह का प्रसंग, उदाहरण के रूप में दिया है जिन्हें ईसाइयों के पवित्र ग्रंथ बाइबिल में सोलोमन और मुसलमानों की पवित्र ग्रंथ कुरान में सुलेमान कहा गया है। उन्हें सभी का राजा कहा जाता था क्योंकि वह मनुष्य जाति के साथ-साथ सभी पशु पक्षियों के प्रति भी बहुत दयालु थे। वे पशु - पक्षियों की भाषा भी जानते थे और उनका ख्याल भी रखते थे इसीलिए उन्हें सभी राजा कहते हैं। एक बार की बात है जब सुलेमान घोड़े पर सवार अपनी सेना के साथ एक रास्ते से जा रहे थे तो उनके घोड़ों की टापों की आवाज़ सुनकर चीटियाँ डर गईं। उन्होंने घोड़े के पैरों के नीचे कुचले जाने के डर से कहा कि जल्दी से अपने बिलों में चलो। तब सुलेमान उनकी बातें सुनकर थोड़ी दूर रुक गए और उन्होंने चीटियों से कहा "घबराओ नहीं सुलेमान को खुदा ने सबका रखवाला बनाया है। मैं किसी के लिए मुसीबत नहीं हूँ सबके लिए मोहब्बत हूँ।"
इस पंक्ति का अर्थ है कि सुलेमान ऐसा मानते थे कि ईश्वर ने यदि मनुष्य को अन्य सभी प्राणियों से शारीरिक रूप से समर्थ और बुद्धिमान बनाया है तो यह मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह अन्य प्राणियों के लिए परेशानी न बनाकर सबसे प्रेम करे। उनके दुख, उनकी परेशानी को समझे। चीटियों ने भी सुलेमान की इस दयालुता पर उनके लिए ईश्वर से दुआ माँगी और अपनी मंज़िल की ओर बढ़ गई।
दूसरा प्रसंग (दूसरी घटना) - लेखक ने पाठ में सिंधी भाषा के महाकवि शेख अयाज़ के बारे में भी बताया है। उन्होंने अपनी आत्मकथा में अपने पिता की दरियादिली (दयालुता) के विषय में बताते हुए उनके जीवन की एक घटना लिखी है। एक दिन उनके पिता कुएँ से नहा कर, घर लौटे और जाकर भोजन करने बैठे। उन्होंने जैसे ही रोटी का टुकड़ा तोड़ा उनकी नज़र अपनी बाजू पर रेंगते हुए एक च्योंटे पर पड़ी। वह समझ गए कि यह च्योंटे वहीं कुएँ पर होगा। वह उसी समय भोजन छोड़कर उसे उसके घर पहुँचने के लिए उठ खड़े हुए।
इस घटना से शेख अयाज़ के पिता की एक छोटे - से जीव के प्रति संवेदनशीलता (सहानुभूति) का पता चलता है। उन्हें उस च्योंटे के दुख का एहसास हुआ जो अपने घर से दूर हो गया था। वह किसी भी प्राणी को दुखी नहीं देख सकते थे। उस छोटे से जीव के दुख को अपना दुख समझकर उन्होंने उसे दूर किया।
तीसरा प्रसंग (तीसरी घटना) - बाइबिल और दूसरे पवित्र ग्रंथों में नूह नाम के एक पैगंबर,(जिसका अर्थ है - एक पूजनीय व्यक्ति, जो लोगों तक ईश्वर का संदेश लाता है) का जिक्र आता है उनका असली नाम लश्कर था लेकिन अरब के लोगों ने उन्हें 'नूह' नाम (tittle) दिया क्योंकि वे सारी उम्र (950 साल तक) रोते रहे। अरबी में 'नूह' का अर्थ होता है 'रोने वाला'। इसका कारण एक ज़ख्मी कुत्ता था। एक बार एक ज़ख्मी (खुजली वाला) कुत्ता उनके सामने से गुज़रा तो उन्होंने उसे अपमानित करते हुए कहा, "दूर हो जा गंदे कुत्ते!" इस्लाम में कुत्ते को गंदा समझा जाता है इस पर कुत्ते ने नूह से कहा कि न मैं अपनी मर्ज़ी से कुत्ता हूँ और न तुम अपनी पसंद से इंसान हो। सबको बनाने वाला तो वही एक अल्लाह ही है। कुत्ते की बात सुनकर नूह अपनी गलती पर पछताते हुए बहुत समय तक रोते रहे।
ऐसा माना जाता है कि इस घटना से ईश्वर ही नूह के माध्यम से लोगों को यह संदेश देना चाहते थे कि संसार के किसी भी जीव से घृणा (नफ़रत ) नहीं करनी चाहिए। इसी बात को लेखक ने भी इन दो पंक्तियों के माध्यम से कहा है-
मट्टी से मट्टी मिले,
खो के सभी निशान।
किसमें कितना कौन है,
कैसे हो पहचान।।
इन पंक्तियों का अर्थ है कि ईश्वर ने बिना किसी फ़र्क के सभी प्राणियों को एक ही मिट्टी से बनाया है। मृत्यु के बाद कोई भी जीव या तो जलाया जाता है या मिट्टी में दफनाया जाता है। इससे उसका शरीर मिट्टी में मिल जाता है। मिट्टी में मिल जाने के बाद मनुष्य की पहचान खत्म हो जाती है क्योंकि मिट्टी में मिट्टी मिल जाने से सब एक हो जाते हैं, उनमें कोई भिन्नता नहीं रह जाती, कोई अलग निशान नहीं रह जाता कि यह मिट्टी किसके शरीर की है। कहने का भाव यह है कि मनुष्य को कभी भी अपने श्रेष्ठ होने का घमंड नहीं करना चाहिए।
चौथा प्रसंग (चौथी घटना) - लेखक ने पाठ में लिखा है कि मनुष्य और पशु में श्रेष्ठ के आधार पर कोई अंतर नहीं है इस बात को उन्होंने महाभारत के प्रसंग द्वारा सिद्ध किया है। लेखक ने लिखा है - 'महाभारत में युधिष्ठिर का जो अंत तक साथ निभाता नज़र आता है, वह भी प्रतीकात्मक रूप से कुत्ता ही था। सब साथ छोड़ने गए तो केवल वही उनके एकांत को शांत कर रहा था। हिंदू धर्म की आस्था के अनुसार यह कथा प्रसिद्ध है कि महाभारत के युद्ध के बहुत वर्षों बाद वेदव्यास जी के कहने पर युधिष्ठिर, परीक्षित को राज्य सौंप कर अपनी पत्नी द्रौपदी और चारों भाइयों के साथ शरीर सहित स्वर्ग के लिए चले जाते हैं। यात्रा में उनके साथ एक कुत्ता भी होता है एक-एक करके द्रौपदी सहित चारों भाई मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं और स्वर्ग सिधार जाते हैं। धर्मराज युधिष्ठिर शरीर सहित जब स्वर्ग के द्वार पर पहुँचते हैं तब अंत तक वह कुत्ता उनके साथ ही रहता है। धर्मराज युधिष्ठिर का स्वर्ग में स्वागत होता है परंतु उस कुत्ते को स्वर्ग में आने की अनुमति नहीं दी जाती। तब युधिष्ठिर उस कुत्ते को अपने सारे पुण्य कर्मों का फल देकर अपने साथ स्वर्ग ले जाते हैं। उनके इस निर्णय के कारण स्वर्ग लोक के देवता धर्मराज युधिष्ठिर की जय जयकार कर उठते हैं। युधिष्ठिर शरीर सहित स्वर्ग में स्थान प्राप्त करने में सफल होते हैं। तब कुत्ते के रूप में यमराज अपने वास्तविक स्वरूप में आ जाते हैं और युधिष्ठिर के इस समानता के भाव के कारण यमराज उनसे बात प्रसन्न होते हैं।
पाँचवा प्रसंग (पाँचवीं घटना) - इतिहास के उपरोक्त महान पात्रों की नेक दिली, दया, सभी जीवों को समान समझने की भावना से जुड़ी घटनाओं के बारे में बताने के बाद लेखक अपनी माँ से संबंधित एक किस्सा भी बताते हैं। लेखक बताते हैं कि जब वह ग्वालियर में रहते थे तब उनके घर के आँगन में दो रोशनदान थे जिसमें कबूतर के एक जोड़े ने घोंसला बना लिया था। एक बार बिल्ली ने उन कबूतरों के दो अंडों में से एक को तोड़ दिया। लेखक की माँ को इस बात का बहुत दुख हुआ और दूसरे अंडे को बचाने की कोशिश में वह अंडा उनके ही हाथ से गिरकर टूट गया। कबूतर को दुख में फड़फड़ाते देखकर लेखक की माँ की आंँखों में आँसू आ गए। उन्होंने अपने गुनाह (पाप) को खुदा से माफ़ कराने के लिए पूरा दिन रोज़ा (व्रत) रखा। उन्होंने सारा दिन न कुछ खाया और न ही पिया। बस रो-रो कर अपनी गलती के लिए माफ़ी माँगती रही और नमाज पढ़ती रही।
लेखक की माँ भी दूसरे के (कबूतर के) दुख में दुखी होती रही क्योंकि उन्हें उस कबूतर से सहानुभूति थी। इस प्रसंग से पता चलता है कि लेखक की माँ बहुत ही संवेदनशील (दूसरों के दुख को अपना समझने वाली) महिला थी। लेखक की माँ के कुछ धार्मिक विश्वास थे जिनके कारण वह लेखक को सूरज ढलने के बाद पेड़ों से पत्ते और फूल तोड़ने के लिए मना करती थी। वह कहती थी पेड़ रोएँगे, फूल बदुआ देंगे। नदी पर जाओ तो उसे सलाम करो कबूतर को मत सताओ, मुर्गों को परेशान मत करो। कहने का अर्थ है कि वह न केवल सभी प्राणियों में बल्कि सजीव चीज़ों के प्रति भी दया का भाव रखती थीं। उन्हें चोट नहीं पहुँचाना चाहती थी और लेखक को भी ऐसे ही शिक्षा देती थी।
6. लेखक अपने ग्वालियर के मकान और माँ के हृदय में दया भाव की बात करने के बाद अपने अब घर, जहाँ वह अब (मुंबई में) रहते हैं, की बात करते हैं। लेखक ने लिखा है - 'ग्वालियर से मुंबई की दूरी ने संसार को काफ़ी कुछ बदल दिया है।' इस पंक्ति में लेखक कहना चाहते हैं कि वह ऐसा महसूस करते हैं कि जब वह ग्वालियर में थे अर्थात् बहुत समय पहले, तब लोग अलग तरह के थे। तब लोग दूसरों के दुख को अपना दुख समझते थे। लेकिन आज जब वह मुंबई में हैं तो लेखक को वैसे लोग नहीं दिखाई देते। अब दुनिया बदल गई है, लोग बदल गए हैं। इस बात की पुष्टि के लिए लेखक अपने घर का उदाहरण देते हैं। लेखक वर्सोवा में रहते थे, जहाँ पहले दूर तक जंगल थे, पेड़ थे इसलिए वह जगह बहुत से पशु- पक्षियों का घर थी। बढ़ती हुई आबादी के कारण जंगल काटकर यहाँ लंबी - चौड़ी बस्ती बन गई है। बस्ती के बन जाने से यहाँ रहने वाले पशु- पक्षियों का घर छिन गया है। इनमें से कुछ शहर छोड़ कर चले गए और जो नहीं जा सके, उन्होंने लोगों के घरों में ही जहाँ जगह मिली, रहने लगे। ऐसे ही दो कबूतर अपने छोटे बच्चों के साथ लेखक की फ्लैट के एक मचान में (थोड़ी ऊँचाई पर) खाली जगह पर घोंसला बनाकर रहने लगे। भोजन की तलाश में कबूतर दिन में कई बार घर से बाहर आते- जाते रहते थे। कबूतर के आने- जाने से घर की चीज़ों को ठोकर लगती और वह टूट जाती थीं। घर की स्थिति अस्त-व्यस्त होने लगी। तब लेखक की पत्नी ने परेशानी से तंग आकर कबूतरों के रहने की व्यवस्था घर के बाहर कर दी और कमरे में कमरे की खिड़की में जाली लगा दी जिससे अब वे उड़कर दोबारा घर के भीतर न आ सकें। लेखक ने बताया है कि अब दोनों कबूतर अलग कर दिए जाने के कारण शांत और उदास बैठे रहते हैं लेकिन अब दुनिया में न सोलोमेन जैसे नेक दिल (दयालु) लोग हैं, जो उनकी भाषा को समझ कर उनका दुख बाँटे और न ही माँ जैसे संवेदनशील (भावुक) लोग जो उनके दुख को दूर करने की भावना से नमाज़ पढ़ें और उनके दुख में दुखी होकर रोते हुए रातों को जागें।
7. लेखक की माँ और उनकी पत्नी के स्वभाव में अंतर - लेखक अपनी माँ और पत्नी के प्रसंगों द्वारा उन दोनों के स्वभाव के अंतर को दर्शाना चाहते हैं। लेखक के अनुसार- पहले, लोग दूसरों के दुख में दुखी होते थे और उनका दुख दूर करने की हर संभव कोशिश करते थे जिस प्रकार लेखक की माँ ने किया। परंतु आज के समय में लोगों को केवल अपनी परेशानी ही परेशानी लगती है। दूसरे जीवों की परेशानी को समझने की अब उनमें क्षमता ही नहीं रह गई है।
8. लेखक ने पाठ में इस विषय पर तो विस्तार से चर्चा की ही है कि अब मनुष्य दूसरे जीवधारियों (प्राणियों) के दुख को दुख नहीं समझता है। साथ ही यह भी समझाया है कि मनुष्य ने अपने स्वास्थ्य के लिए प्रकृति के साथ भी छेड़छाड़ की है।
9. धरती पर किसी एक का अधिकार नहीं - विज्ञान में और धार्मिक ग्रंथों में सृष्टि की रचना के बारे में अलग-अलग विवरण मिलते हैं। लेकिन ऐसा किसी ग्रंथ में नहीं लिखा की धरती किसी एक ही है। लेखक के शब्दों में - 'संसार की रचना भले ही कैसे हुई हो लेकिन धरती किसी एक की नहीं है। पंछी, मानव, पशु, नदी, पर्वत, समंदर आदि की इसमें बराबर की हिस्सेदारी है।' अर्थात् धरती पर सभी सजीव और निर्जीव वस्तुओं/ प्राणियों का अधिकार है धरती केवल किसी एक की नहीं और न ही किसी की अधिक और काम है, सभी की है। परंतु मानव जाति ने अपने-आप ही अपनी बुद्धि से इस पर अपना अधिकार जमाना शुरू कर दिया।
10. मनुष्य के स्वार्थ के दुष्परिणाम - अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप उसने प्रकृति के स्वरूप को बदलना शुरू कर दिया। स्वयं को दूसरे जीवों से बेहतर बनाने और दिखाने के लिए उसने, अन्य प्राणियों से अलग रहने के लिए दीवारें खड़ी करके, घर बनाए। इस तरह मनुष्य धरती को आपस में बाँटता चला गया और दूसरे जीव- जंतुओं से उसे छीनता चला गया। बढ़ती हुई आबादी के कारण उसने पेड़ काटे, जंगलों को खत्म किया, पशु - पक्षियों से उनका घर छीना। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं (बड़ी-बड़ी इच्छाओं) को पूरा करने के लालच में उसने प्रकृति के संतुलन की भी परवाह नहीं की। बढ़ते प्रदूषण, युद्ध में इस्तेमाल किए जाने वाले बारूदों के कारण वातावरण को नुकसान पहुँचाया। जिसका परिणाम यह है कि अब गर्मी में ज़्यादा गर्मी और असमय (बेवक्त) बरसाते, तूफ़ान, भूकंप, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना उसे और अन्य जीव - जंतुओं को करना पड़ रहा है।
11. लेखक ने लिखा है - 'नेचर की सहनशक्ति की एक सीमा होती है। नेचर के गुस्से का एक नमूना कुछ साल पहले मुंबई में देखने को मिला था और यह नमूना इतना डरावना था कि मुंबई निवासी डरकर अपने-अपने पूजा- स्थल में अपने खुदाओं से प्रार्थना करने लगे थे।'
इसका अर्थ है कि मनुष्य द्वारा प्रकृति पर किए जा रहे अत्याचारों को प्रकृति भी एक सीमा तक ही सहन करती है। अपने कार्यों के दुष्परिणामों के बारे में सोचे बिना मनुष्य प्रकृति के साथ जैसा बर्ताव कर रहा है उससे प्रकृति में असंतुलन बढ़ता जा रहा है। 'नेचर के गुस्से' के रूप में प्राकृतिक आपदाएँ (Natural disasters) मनुष्य को डराती हैं। प्रकृति के गुस्से का एक उदाहरण कुछ साल पहले मुंबई में देखने को मिला था जो इतना डरा देने वाला था कि मुंबई वासियों ने उस विपदा से बचने के लिए अपने-अपने धार्मिक स्थलों पर जाकर अपने देवी- देवताओं से अपने जीवन की प्रार्थना की।
12. नेचर के गुस्से का कारण- मुंबई में बढ़ती हुई आबादी (जनसंख्या) के कारण मकान बनाने वाले बिल्डरों ने समुद्र के पास की जमीन पर भी कब्ज़ा करना शुरू कर दिया। मनुष्य का लालच इतना बड़ा कि उसने फैले हुए समुद्र को धीरे-धीरे सिमटने पर मजबूर कर दिया अर्थात् बिल्डरों ने अपने लाभ के लिए समुद्र के आसपास की ज़मीन पर धीरे-धीरे इमारतें बनाकर उस ज़मीन को समुद्र से हथिया लिया। समुद्र की लहरों में उफ़ान आता रहता है इसलिए समुद्र को अपने विस्तार के लिए एक निश्चित जगह चाहिए होती है। परंतु इस बात को सोचे बिना लोगों ने उस ज़मीन पर जब घर बनाए तो समुद्र को जगह कम पड़ गए। जब लहरें उठीं और दूर तक फैली, तब लेखक ने उसे समुद्र का गुस्सा कहा है। इस गुस्से में (चक्रवाती तूफ़ान के कारण) समुद्र ने अपने पानी में चलते तीन जहाज़ों को अपनी लहरों से गेंद की तरह उछलकर तीन अलग-अलग दिशाओं में फेंक दिया। एक वर्ली के समुद्र के किनारे पर आकर गिरा, दूसरा बांद्रा में कार्टर रोड के सामने और तीसरा गेट-वे-ऑफ़ इंडिया पर आकर गिरा और टूटकर फिर से कभी चलने के काबिल नहीं हो सका।
13. जो जितना बड़ा होता है उसे उतना ही कम गुस्सा आता है। परंतु आता है तो रोकना मुश्किल हो जाता है। यहाँ 'बड़ा' कहने से लेखक का अभिप्राय सहनशीलता, गंभीरता से है। जिस प्रकार मनुष्य अपने स्वभाव, अपने गुणों से बड़ा होता है। उसमें दया, सहनशीलता आदि गुण उसे बड़ा अर्थात् महान बनाते हैं। उसी प्रकार गंभीर, शांत, सहनशील होने के कारण लेखक में समुद्र को बड़ा कहा है। समुद्र केवल आकार में ही बड़ा नहीं है, अपनी गंभीरता और शांत स्वभाव के कारण समुद्र बड़ा है। मनुष्य द्वारा उसकी ज़मीन पर धीरे-धीरे कब्ज़ा करने के बाद भी समुद्र गुस्सा नहीं करता। मनुष्य लगातार समुद्र के विस्तार को सिमटने पर मजबूर करता रहा। यहाँ तक कि उसने समुद्र के बहुत पास की ज़मीन पर भी इमारतें बनाई। जिससे मानो समुद्र को खड़े रहने की जगह भी कम पड़ी, तब उसे गुस्सा आ गया। जब समुद्र को गुस्सा आया अर्थात् समुद्र में तूफ़ान आया, तब उसने अपनी ही लहरों से अपने ऊपर चल रहे तीन जहाज़ों को गेंद की तरह उछालकर दूर फेंक दिया और उन्हें नष्ट कर दिया। इस प्रकार समुद्र ने अपना गुस्सा निकाला।
सब की पूजा एक-सी, अलग-अलग है रीत।
मस्जिद जाए मौलवी, कोयल गाए गीत।।
इन पंक्तियों के द्वारा लेखक कहना चाहता है कि चाहे कोई व्यक्ति किसी भी धर्म का हो, चाहे वह अलग - अलग विधियों (तरीकों) से भगवान पूजा करता हो। परंतु ईश्वर के प्रति उसकी पूजा का भाव एक जैसा ही होता है। जिस प्रकार मौलवी मस्जिद में जाकर अल्लाह की इबादत सुनाकर लोगों को प्रसन्न करता है वैसे ही कोयल पेड़ों पर बैठकर अपने मधुर आवाज़ से सबको प्रसन्न करती है।
नदिया सींचे खेत को तोता कुतरे आम।
सूरज ठेकेदार - सा, सबको बाँटे काम।।
इन पंक्तियों के द्वारा लेखक कहना चाहता है कि जिस तरह नदियाँ बिना किसी भेदभाव के सभी खेतों को अपना पानी देती है। उस पानी से उगने वाला सभी खाते हैं और जिस तरह तोता भी बिना किसी भेदभाव के से किसी भी आम के बगीचे से आम खाता है । उसी प्रकार सूरज भी बिना किसी भेदभाव के सभी को जगाकर काम करने के लिए प्रेरित करता है।नई ऊर्जा देता है। उसी तरह हमें भी नदी और सूरज की तरह दूसरों के हित के लिए कार्य करने चाहिए। तोते की तरह सभी को समान समझना चाहिए तभी संसार के सभी जीवधारी प्रसन्न और सुखी रह सकते हैं।
इन मुख्य बिंदुओं को पढ़कर छात्र परीक्षा में दिए जाने वाले किसी भी प्रश्न का उत्तर देने में समर्थ हो सकेंगे। आशा है उपरोक्त नोट्स विद्यार्थियों के लिए सहायक होंगे।
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