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'आमादेर शांतिनिकेतन' शिवानी कृत संस्मरणात्मक पुस्तक के मुख्य बिंदु (Amader Shantiniketan - Summary of Book written by Shivani )
पुस्तक 'आमादेर शांतिनिकेतन' हिंदी साहित्य की सुप्रसिद्ध लेखिका' शिवानी' द्वारा संस्मरणात्मक शैली में लिखी गई उनकी पुस्तक है। जिन्होंने शांतिनिकेतन के अपने अनुभवों को इस पुस्तक के रूप में शब्दों में उतारा है।
'आमादेर शांतिनिकेतन' का अर्थ है - 'हमारा शांतिनिकेतन'।
इस पुस्तक के बारे में जानने से पहले शांतिनिकेतन के बारे में कुछ बातें जान लेना आवश्यक है। ये जानकारी पुस्तक की विषयवस्तु को समझने में हमारी सहायता करेगी।
विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर के पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगौर ने सन् 1863 में बंगाल के बोलपुर से लगभग डेढ़ मील दूर एक आश्रम की स्थापना की। कहा जाता है कि महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर एक बार उस जगह के पास से होकर गुजर रहे थे तब उस स्थान का शांत व एकांत प्राकृतिक वातावरण उन्हें बहुत अच्छा लगा। उन्होंने सोचा कि एकांत साधना की दृष्टि से यह स्थान पूरी तरह से उपयुक्त है। उन्होंने वह भूमि खरीद ली और वहाँ एक आश्रम की स्थापना कर उसका नाम ‘शांति निकेतन’ रखा जिसका अर्थ है 'शांति का निवास स्थान (घर)'।
चालीस वर्ष की आयु में अपने पिता की सहमति से रवींद्रनाथ टैगोर ने सन् 1901 में वहाँ ‘शांति निकेतन’ विद्यालय की स्थापना की। भारतीय आदर्शों के अनुसार शिक्षा प्रदान करने के अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए उन्होंने 6 मई, 1952 को ‘शांति निकेतन’ को अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में परिवर्तित कर इस शिक्षा - संस्थान का नाम ‘विश्व भारती’ रखा।
मई, 1961 से भारतीय संसद के अधिनियम के अनुसार ‘विश्व भारती’ केन्द्रीय सरकार के संरक्षण में आ गया और उसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय माना गया।
'विश्व भारती विश्वविद्यालय' को यूनेस्को (UNESCO) ने दुनिया की पहली लिविंग हेरिटेज यूनिवर्सिटी घोषित किया है। विश्व भारती को भारत की सांस्कृतिक विरासत के रूप में 41 वें स्थान पर रखा गया है।
शांतिनिकेतन में अलग - अलग विभाग हैं -
(1) पाठ भवन- इसमें प्रारम्भिक (primary) और मैट्रिक (दसवीं) तक शिक्षा दी जाती है। इसमें अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों की आयु सामान्यतः 6 से 15 वर्ष तक की होती है।
(2) शिक्षा भवन- यह एक कॉलेज है जहाँ इंटरमीडिएट (12 वीं) आर्ट्स और साइंस की शिक्षा दी जाती है।
(3) विद्या भवन- यहाँ बी० ए०, एम० ए० और पी-एच० डी० के स्तर तक की शिक्षा का प्रबंध है तथा भारतीय दर्शन, बौद्ध धर्म, संस्कृत, हिंदी , पालि, प्राकृत, फारसी, अरबी, बंगला आदि विषयों में शोध की पूर्ण सुविधा प्रदान की जाती है।
(4) विनय भवन- यह प्रशिक्षण महाविद्यालय है और इसमें अध्यापकों के प्रशिक्षण का पूर्ण प्रबंध है।
(5) हिंदी भवन- यहाँ पर एम० ए० स्तर तक हिंदी शिक्षण की व्यवस्था है तथा हिंदी में शोधकार्य करने की पूर्ण सुविधा दी जाती है।
(6) कला भवन- इसमें ड्राइंग, पेंटिंग मूर्ति कला और काढ़ना, पिरोना, बुनना, चमड़े आदि का कार्य आदि कलाएँ भी सिखाई जाती हैं।
(7) शिल्प भवन- यहाँ विभिन्न प्रकार के कुटीर उद्योगों व हस्तकलाओं की शिक्षा दी जाती है।
(8) संगीत भवन- इसमें संगीत, नृत्य और अभिनय की शिक्षा का प्रबंध है।
(9) चीन भवन- यहाँ भारतीय विद्यार्थी चीन की संस्कृति का और चीनी विद्यार्थी भारतीय संस्कृति का अध्ययन करते हैं।
(10) श्री निकेतन- शांतिनिकेतन से 1 मील दूर सुरूल नामक स्थान पर ‘श्री निकेतन’ नाम की ग्राम्य संस्था है जिसमें छात्रों को ग्राम समस्याओं के विषय में पढ़ाया जाता है और ग्रामवासियों को सफ़ाई और स्वास्थ्य की जानकारी देना सिखाया जाता है , कृषि की उत्तम विधियों तथा कुटीर उद्योगों की शिक्षा भी दी जाती है।
आइए अब पुनः पुस्तक पर ध्यान केंद्रित करते हैं। पुस्तक की विषयवस्तु (content) को 15 भागों में रखते हुए उन्हें अलग - अलग शीर्षक भी दिए गए हैं। हम इन्हीं शीर्षकों के आधार पर ही पूरी पुस्तक के मुख्य बिंदुओं की चर्चा करेंगे।
* विषय क्रम में सबसे पहले 'बनारसीदास चतुर्वेदी जी' द्वारा लिखित भूमिका है। भूमिका के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं -
1. सबसे पहले चतुर्वेदी जी ने साहित्य के अतिरिक्त शिक्षा के क्षेत्र में भी कवींद्र रवींद्रनाथ टैगोर के अमूल्य योगदान की चर्चा की है।
2. बनारसीदास चतुर्वेदी जी स्वयं इस आश्रम में 1918 में आए थे और वहाँ चौदह महीने रहे भी थे।
3. तब उन्होंने पहली बार आश्रम का सुप्रसिद्ध गीत 'आमादेर शांतिनिकेतन' सुना था।
4. उनके अनुसार शिवानी के इस संस्मरण की सफलता के निम्नलिखित कारण हैं -
(i) लेखिका में हर चीज़ को गहराई से देखने का गुण है।
(ii) उनका भाषा पर पूरा अधिकार है मतलब हृदय के भावों को प्रकट करने में उनकी भाषा पूरी तरह से समर्थ है।
(iii) गुरुदेव के उदार स्वभाव का वर्णन शिवानी ने हृदय को छू लेने वाले शब्दों में किया है।
(iv) छोटी - छोटी घटनाओं का वर्णन, इस पुस्तक की एक और विशेषता है।
(v) इस छोटी - सी पुस्तक में लेखिका ने गुरुदेव तथा उनके आश्रम की बीसियों मनोहर झांकियाँ पाठकों को दिखला दी हैं।
5. शिवानी इस आश्रम में आठ वर्ष रहीं।
* गुरुपल्ली ( वह स्थान, जहाँ आश्रम के शिक्षक रहते थे।)
1. लेखिका 1935 में पाठ - भवन की छात्रा बनकर शांतिनिकेतन आईं थी और तभी उन्होंने पहली बार गुरुदेव को देखा था।
2. लेखिका ने इस भाग में सबसे पहले श्रद्धेय गुरुदेव का चारित्रिक चित्रण किया है। गुरुदेव के तेज से भरे चेहरे पर ज्योति - सी जगमगाती दो बड़ी आँखें, माथे पर चंदन का तिलक, काली घनी दाढ़ी और काली टोपी पहने हुए, महान और सरल व्यवहार तथा सभी के लिए प्रेम - ये उनकी विशेषताएँ हैं।
3. आश्रम में ऊँच-नीच, छोटे - बड़े का कोई भेदभाव नहीं था। वहाँ चीन, जापान, मद्रास, लंका केरल, गुजरात आदि स्थानों के छात्र-छात्राएँ सभी समान थे।
4. प्रार्थना की घंटी बजते ही सभी छात्र कतार में लाइब्रेरी के सामने सिर झुका कर खड़े हो जाते।
5. उस समय आश्रम के प्रिंसिपल धीरेंद्र मोहन सेन लेखिका और उनकी बहन को 'उत्तरायण ' ले गए।
6. आश्रम में वह स्थान जहाँ रवींद्रनाथ टैगोर रहते थे, उसे 'उत्तरायण ' कहा जाता है। शाम के समय वे कुछ लिख रहे थे जब लेखिका उनसे पहली बार मिली थी।
7. लेखिका ने जब उन्हें प्रणाम किया तब गुरुदेव ने उनके सिर पर हाथ रखकर हँसते हुए पूछा था, "क्यों, बहुत घबरा रही हो क्या? बांग्ला सीख लोगी तो फिर घर की याद नहीं आएगी।"
8. फिर अपनी दोनों पोतियों से मिलवाया और अपने साथ खाना खिलाया।
9. बाद में 'वर्षा मंगल' नाटिका की रिहर्सल देखने भी भेजा।
10. वहाँ लेखिका ने अनेक प्रतिभाशाली कलाकारों को देखा। सुशील दा का सितार सुना।
11. लेखिका ने लिखा है कि उनकी बांग्ला वर्णमाला का अक्षरारम्भ स्वयं गुरुदेव ने कराया। इस बात का उन्हें बहुत गर्व है। उनका पहला बांग्ला वाक्य था - 'गाछे थाणे बाघ, बने थाणे पाखी' जिसे लेखिका ने उत्साहवश गलत (गाछे थाके बाघ, बने थाके पाखी) सुना दिया था।
12. रमेश दा जिनकी बड़ी चोटी के कारण उन्हें 'पंडित मोशाय' कह कर बुलाया जाता था, लेखिका के बांग्ला के शिक्षक थे। लेखिका का ऐसा मानना है कि उनके कठोर अनुशासन के कारण ही लेखिका का बांग्ला भाषा में सुधार हो सका।
13. संस्मरण के इस भाग में लेखिका ने अपने बड़े भाई त्रिभुवन के बांग्ला बोलने के असफल प्रयास और इस कारण हँसी का माहौल बनने का वर्णन किया है।
14. आश्रम के रसोइये हरिहर प्रभाकर के बंगाली बच्चों पर विशेष स्नेह के बारे में बताया है कि वह सबकी नज़रों से बचाकर कभी एक और अंडा या मछली उनकी थाली में डाल जाते थे।
15. उस समय उत्तरायण में हर साल एक साहित्य - सभा होती थी और लेखिका उस सभा में आने वाले प्रसिद्ध साहित्यकारों के हस्ताक्षर अपनी हस्ताक्षर पुस्तिका में इकट्ठे करती थीं।
16. एक अनोखी घटना - आश्रम में लगातार एक महीने से भोजनालय में हर सब्ज़ी में आलू-परवल डाले जा रहे थे।
- सभी छात्रों ने तंग आकर आश्रम की महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ लिखे जाने वाले ब्लेक बोर्ड पर आलू-परवल के चित्र बना कर उस पर 'धिक आलू - धिक परवल' लिखकर अपना विरोध जताया परंतु कोई लाभ न हुआ।
- फिर वे कर्म सचिव श्री सुरेन दा के पास गए। लेकिन उन्होंने भी उनकी समस्या को यह कहकर टाल दिया कि तुम आश्रम की छात्राएँ हो, तुम्हें सरल भोजन करना चाहिए।
- हार कर वे सब गुरुदेव के पास पहुँचे तब वहाँ आलू दा पहले से ही थे। लेखिका ने गुरुदेव से प्रार्थना की कि "जैसे भी हो, हमें आलू परवल से मुक्ति दिलाइए।" अपने आप को बड़ा बेचारा सा दिखाते हुए आलू दा जाने लगे तब छात्रों ने आलू था से माफ़ी माँगी। उसके बाद उन्हें रात के भोजन में आलू-परवल नहीं मिले।
*गुरुदेव की कर्मभूमि -
1. 'विश्व भारती' गुरुदेव की कर्मभूमि थी। कर्मभूमि का अर्थ है - कार्य करने का स्थान।
2. गुरुदेव ने बहुत से उपन्यास, कहानियाँ लिखीं परंतु भारतीय शिक्षा को बढ़ाने में उनका बहुत योगदान है।
उनके आश्रम में छोटे - बड़े, अमीर - गरीब सभी एक साथ बैठकर खाते थे और सभी को एक - जैसी शिक्षा दी जाती थी।
3. गुरुदेव जब 'बंगाल अकादमी' में पढ़ते थे तब उन्हें अपना स्कूल कारावास (जेल) जैसा लगता था। न तो उनकी पढ़ने में कोई रुचि थी, न ही अध्यापक इस बात का ध्यान रखते थे।
4. बच्चे शैतानी करते हैं, इस बात को रवींद्रनाथ टैगोर जानते थे क्योंकि बचपन में वे भी शैतानी करते थे इसलिए उनका आदेश था कि पाठ भवन के छात्र या छात्रा पर हाथ न उठाया जाए।
5. आश्रम के किसी भी बच्चे को कड़ी सज़ा नहीं मिलती थी। ठीक से काम न करने पर या शरारत करने पर एक कोने में खड़ा कर दिया जाता था। यह भी एक बड़ी सज़ा ही थी क्योंकि कक्षा खुले मैदान में होती थी और आसपास की कक्षाओं के बच्चे इस तरह खड़े होने पर हँसते थे।
6. अपने स्कूली जीवन में उन्हें स्कूल में या शिक्षा प्रणाली (Explanation system) में जो भी कमियाँ दिखी, उन्होंने अपने आश्रम में उन कमियों को नहीं आने दिया।
7. शांति निकेतन की विशेषताएँ -
(i) छात्र अपनी इच्छा से किसी भी विषय (subject) को चुन सकते थे।
(ii) संगीत भवन की छात्रा, शिक्षा भवन की किसी भी कक्षा में जाकर पढ़ सकती थी।
(iii) आश्रम में बंद कमरों में कक्षा नहीं होती थी बल्कि नीले आसमान के नीचे खुले मैदान में, किसी पेड़ के नीचे कक्षा लगती थी।
(iv) पढ़ते - पढ़ते मन ऊब जाए तो छात्र कभी पक्षियों को तो कभी गिलहरी को कुछ खाते देखकर या पास से गुज़रते संथाल - दल की बाँसुरी सुनकर ताज़गी (refresh) महसूस कर लेते थे।
(v) आश्रम में पढ़ने और पढ़ाने का ढंग बहुत अनोखा (Unique) था। प्रकृति के बीच में रहकर पढ़ते हुए छात्र सभी विषय अच्छे से समझ लेते थे। पढ़ाई उन्हें बोझ नहीं लगती थी।
(vi) ऐसे माहौल में बच्चे में आत्म संयम (Self control) और वे अपनी पढ़ाई के लिए सचेत (aware) रहते थे।
8. आश्रम के नियम (Rules) -
(i)आश्रम के छात्र - छात्राओं को सूरज निकलने पहले ही बिस्तर छोड़ देना पड़ता था। इसका अर्थ है कि बच्चों को सुबह सूरज निकलने से पहले उठना पड़ता था।
(ii) सुबह उठाने के लिए तीन घंटियाँ बजतीं थी। तीसरी घंटी बजने पर भी अगर कोई नहीं उठता था तो सज़ा मिलती थी।
(iii) प्रातःकालीन (सुबह) का नाश्ता किए बिना ही फिर उसे कक्षा में जाना पड़ता था।
(iv) नहाकर, अपना बिस्तर लगाकर, सब लाइब्रेरी के सामने खड़े होकर प्रार्थना करते थे।
9.आश्रम में रोज़ पंद्रह मिनट सुबह और पंद्रह मिनट शाम को प्रार्थना - सभा (assembly) होती थी।
10. प्रार्थना के कई गीत विशेष रूप से सभा के लिए बंधे हुए (fix) थे।
11. कुंडामुंडी रेड्डी और जगद्बंधु अमिता दी ही प्रार्थना - सभा में वैतालिक (प्रार्थना के लिए गाए जाने वाले गीत का एक प्रकार) गाते थे।
12. कुंडामुंडी रेड्डी जब गाते थे तब ऐसा लगता था कि एक साथ बीस बादल गरज रहे हैं।
13. जगद्बंधु अमिता दी की आवाज़ सुनकर लगता था मानो उनके गले में भगवान ने कोई माइक फिट कर दिया है।
14. प्रातःकालीन (सुबह) की सभा के बाद सभी अपनी - अपनी कक्षाओं में चले जाते। कला - भवन के छात्र कला - भवन में, संगीत - भवन के छात्र अपनी कक्षा में। शिक्षा और पाठ - भवन के छात्र यहाँ - वहाँ पेड़ों के नीचे बैठ जाते। घंटा बजते ही पढ़ाई होने लगती।
*शांतिनिकेतन की गुरुपल्ली -
1. आश्रम के खेल के मैदान के साथ लगी सड़क के दूसरी तरफ़ थी गुरुपल्ली, जहाँ आश्रम के शिक्षक रहते थे। ज़्यादातर शिक्षक गुरुपल्ली में ही रहते थे।
2. ताड़ और खजूर के पेड़ों तथा मालती लता के नीचे, एक ही नक्शे के बने मतलब एक जैसे, कच्ची मिट्टी के, खपरैल (पत्थर, मिट्टी आदि कठोर चीज़ों से बनी टाइल्स) की छत वाले मकान थे।
3. इन मकानों के अंदर की सजावट वैसी ही सरल (simple) थी जैसे इसमें रहने वाले लोगों के चेहरे और वेशभूषा (कपड़े)।
4. लेखिका ने गुरुपल्ली के बारे में लिखा है कि वहाँ के घरों में एक ही लाइन में बिछे लकड़ी के तखत (bed) और उन पर बहुत ही अच्छी तरह से लपेट कर रखा गया पूरे परिवार का बिस्तर, कोने में एक के ऊपर एक रखी मोटी - मोटी पुस्तकें और आंगन से मछली की गंध आती थी।
5. लेखिका को याद आता है कि गुरुपत्नियाँ उन्हें बड़े प्रेम से तरह - तरह के पकवान खिलाती थीं।
6. गुरुपल्ली में उस समय तीन - चार मकान ही पक्के थे।
7. आश्रम के पोखर (तालाब) के पास गुरुदेव के सचिव (सेक्रेटरी) डॉ. धीरेंद्रमोहन सेन की बड़ी सी लाल हवेली थी और गुरुपल्ली के अंत में श्री ललितमोहन जी का घर 'सीमांतिका'।
8. इसी पोखर (तालाब) में लेखिका की बंगाली सहपाठी मछली की तरह तैराकी करती थी।
9. कभी - कभी कलकत्ता से कुशल तैराक आकर यहाँ प्रदर्शन करते थे। उस दिन पोखर निराला दिखता था। एक तरफ़ छात्राओं की रंग - बिरंगी भीड़ और दूसरी तरफ़ अध्यापक और छात्र 'साधु - साधु' कह कर तैराकों को प्रोत्साहित (encourage) करते थे।
10. आश्रम में तालियाँ बजाना मना था। प्रोत्साहित करने के लिए साधु-साधु ही कहा जाता था।
11. इस प्रसंग के साथ ही लेखिका ने इस अध्याय में अपने अध्यापकों के बारे में लिखा है, जिनकी सूची इस प्रकार है-
(i) तैराकी के अध्यापक - जीवन दा
(ii) संस्कृत के अध्यापक - गोसाईं जी
(iii) हिंदी के अध्यापक - बड़े पंडित जी (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी)
(iv) अंग्रेज़ी के अध्यापक - तनयेंद्रनाथ घोष (तनय दा)
(v) इतिहास के अध्यापक - प्रभात दा
(vi) विज्ञान के अध्यापक - प्रमथ दा
(vii) हाइजीन विषय के अध्यापक - डॉक्टर बाबू
(viii) हिंदी के अध्यापक - श्री भगवती प्रसाद चंदोला
(ix) हिंदी / संगीत के अध्यापक - मोहनलाल वाजपेयी
(x) साहित्य/संगीत के अध्यापक - क्षितिमोहन सेन
(xi) भूगोल के अध्यापक - मौशाई
(xii) राजनीति के अध्यापक - अनिल चंदा
(xiii) संगीत के अध्यापक - श्री शैलजारंजन मजूमदार, शांतिमय घोष, इंदिरा देवी
(xiv) नृत्य के अध्यापक - शांति दा, मृणालिनी स्वामीनाथन (साराभाई)
(xv) अंग्रेज़ी के अन्य अध्यापक - श्री बलराज साहनी, क्षितिश दा, गुरुदयाल मल्लिक, डॉ. ऐलेक्स ऐरनसन मार्जरी साइक्स
यहाँ हम एक - एक करके उनका संक्षिप्त परिचय (Brief Introduction) दिया जा रहा है -
(i) तैराकी के अध्यापक - जीवन दा - यह आश्रम के कुशल तैराक अध्यापक थे। उत्तरप्रदेश, सिंहल - द्वीप की या पंजाबी, सिंधी, गुजराती छात्राओं को तैराकी की शिक्षा देने में इन्हें कठिन परिश्रम करना पड़ता था। जो छात्राएँ तैराकी करने से डरती थी, उन्हें जीवन दा बड़ी क्रूरता (बेरहमी) से पकड़कर पोखर के बीच में छोड़ देते थे।
(ii) संस्कृत के अध्यापक - गोसाईं जी - छोटा कद, बड़े उलझे बाल, ढीला कुर्ता और मोटी धोती पहने वाले, अपने में मस्त रहते थे। बहुत अच्छी मृदंग (ढोलक जैसा बाजा) बजाते थे।
(iii) हिंदी के अध्यापक - बड़े पंडित जी (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी) - गुरुपल्ली का पहला मकान दो भागों में बँटा हुआ था। एक भाग में आचार्य हजारीप्रसाद जी रहते थे और दूसरे भाग में संस्कृत अध्यापक गोसाईं जी।
- उनका पढ़ाने का ढंग ही अनूठा (अलग) था। कभी - कभी अपने गुरुओं की कहानियाँ सुनाते और कभी हल्की - सी बारिश होने पर ही 'भीगने की छुट्टी' कर देते थे। जब वे कुछ चुने हुए छात्रों को अपने लिए ब्लेड, साबुन आदि सामान लेने भेजते तब भी उनकी छुट्टी हो जाती थी।
- बड़े पंडित जी स्वभाव से शांत, दयालु और कोमल थे। लेखिका ने एक प्रसंग बताया है कि कक्षा में बच्चे आंवला खाते थे और गुठली की आवाज़ मुँह से आती थी। एक बार कक्षा के सबसे शांत बच्चे के पकड़े जाने पर पंडित जी ने लेखिका की प्रशंसा (तारीफ़) करते हुए उसे डाँटा। तब अचानक लेखिका को खाँसी आ गई और उसके मुँह की गुठली पंडित जी की गोद में गिर गई। पहले वे हैरान हुए फिर ज़ोर - से हँस पड़े।
(iv) अंग्रेज़ी के अध्यापक - तनयेंद्रनाथ घोष (तनय दा) - वे बड़े पंडित जी से बिल्कुल अलग स्वभाव के थे। रूखे, कठोर, गंभीर और अनुशासन प्रिय। उनके कक्षा में आते ही विजन, मंटू घोष और वामन जैसे शरारती बच्चे भी डर कर बैठ जाते थे। सभी छात्र उनके डर से गृहकार्य करके लाते थे।
- उनकी कक्षा में यदि कोई छात्र जम्हाई (उबासी) लेते पकड़ा जाता तो उसे खूब डाँट पड़ती। एक बार लेखिका ने जम्हाई को दबा लिया लेकिन तनय दा ने देख लिया और दंड के रूप में लेखिका के माथे पर चॉक से ले त्रिपुण्ड (तीन रेखाओं का तिलक) बना दिया।
- तनय था लिखावट की भी स्वच्छता (neat work) पर भी बहुत ध्यान देते थे।
- वे अपनी कक्षा हमेशा शिशु-विभाग के आगे वाली ज़मीन पर ही लेते थे। हल्की बारिश आने पर भी वे कक्षा समाप्त नहीं करते थे।
- डिकेंस उनका प्रिय लेखक था। वे कहते थे - "डिकेंस पढ़ा करो।"
(v) इतिहास के अध्यापक - प्रभात दा - तनय दा के विपरीत रूप थे। वे दूर से मुस्कुराते हुए आते और 'हे यंग लेडी', 'की हे राजकन्या' आदि नामों से बुलाते हुए कक्षा में प्रवेश करते थे।
- आश्रम की अतिथिशाला के सामने मौलसिरी का पेड़ उनकी प्रिय जगह थी।
- वे कक्षा में हँसी - मज़ाक भी करते रहते।
- शायद वे आश्रम के सबसे पुराने अध्यापक थे। उस समय उनकी उम्र लगभग पचास वर्ष होगी।
- एक घंटे में इतिहास (History) के अलावा सभी कुछ पढ़ा देते थे। लेकिन अचानक ही वे कक्षा को अनुशासन के साथ अपना विषय पढ़ाने लगते।
- उन्हें इतिहास की घटनाओं की सारी तिथियाँ याद थीं।
(vi) विज्ञान के अध्यापक - प्रमथ दा - विज्ञान (Science) के छात्र - छात्राओं के लिए एक छोटी प्रयोगशाला (laboratory) भी थी, जहाँ प्रमथ दा जैसे हँसमुख और साथ ही अनुशासन प्रिय शिक्षक के साथ छात्र रोज़ ने परीक्षण (experiments) करते थे।
(vii) हाइजीन विषय के अध्यापक - डॉक्टर बाबू - आश्रम के अस्पताल के डॉक्टर बाबू छात्रों को शरीर - विज्ञान की शिक्षा देते थे जिन्हें गाने का बहुत शौक था। वे बड़े ही सरल, भोले, हँसमुख और लोकप्रिय (लोगों को पसंद) व्यक्ति थे। सादगी से भरा जीवन जीते थे।
-अपनी कक्षा में वे पुस्तक बंद करके गीत गाना शुरू कर देते। उनका गाना सुनकर मरीज़ों के मुरझाए चेहरे खिल उठते।
- अक्सर आधी रात के समय अपनी पुरानी, टूटी और खड़खड़ाती साइकिल पर बैठकर जाते हुए, वे अपने अटपटे हिंदी शब्दों में गाना गाते सुनाई देते थे।
- आश्रम की पिकनिक में उनके गीतों के बिना मज़ा नहीं आता था। इसलिए उन्हें साथ चलने के लिए तैयार किया जाता।
- जब भी किसी को चोट लगती या उनकी ज़रूरत होती तो वे अचानक से वहाँ पहुँच जाते थे। आश्रम में केवल वे एक ही डॉक्टर थे।
- साधारण रोग होने पर वे सभी को पंचतिक्त पीने को कहते जो बहुत कड़वी दवाई थी। मछली का काँटा गले में फँसने पर पूरा केला निगलने को कहते थे।
- लेखिका ने उन्हें दो बार लाचार और हारते हुए देखा था। एक छात्र को सन्निपात ज्वर (ऐसा बुखार जिसमें आदमी का शरीर और दिमाग ठीक नहीं रहते) हो गया था और उस समय इस बीमारी का कोई इलाज नहीं था। दूसरा, आश्रम के तालाब में डूब जाने से एक छात्र की मृत्यु (Death) हो गई थी।
- उनके साथ लेखिका की कई मीठी यादें हैं। एक बार वे कक्षा में कंकाल (skeleton) देखकर लेखिका ने मित्रों के कहने पर डॉक्टर बाबू से पूछ लिया, "डॉक्टर बाबू, यह कंकाल क्या किसी संथाली का है?" तब डॉक्टर बाबू कंकाल से ही पूछने लगे। सारी क्लास हँसने लगी और डॉक्टर बाबू ने लेखिका को मीठी डाँट लगाई।
(viii) हिंदी के अध्यापक - श्री भगवती प्रसाद चंदोला - वे गंभीर और अनुशासन प्रिय थे। क्लास में शोरगुल उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं था। किसी को बात करते देखते तो पढ़ाना बंद करके चुप बैठ जाते। उनके ऐसा करने पर पूरी कक्षा अपने-आप चुप हो जाती, जैसे सब उनसे माफ़ी माँग रहे हों।
(ix) हिंदी / संगीत के अध्यापक - मोहनलाल वाजपेयी - उनका कंठ अत्यंत मधुर था मतलब वे बहुत मीठा गाते थे। उनसे नोट्स लेने आई छात्राएँ अपनी कॉपी में उनके गीत उतारने लगती।
(x) साहित्य/संगीत के अध्यापक - क्षितिमोहन सेन - वे भी संगीतप्रेमी गुरु थे। लेखिका को बहुत स्नेह करते थे। लेखिका साहित्य - सभा में गाने के लिए अक्सर इनसे कबीर के दोहे लिखवाती थी।
(xi) भूगोल के अध्यापक - मौशाई - लेखिका उनसे बहुत डरती थी। भूगोल (Geography) के इन अध्यापक का क्रोध बहुत भयानक था। प्रश्न पूछने पर उत्तर न दे पाने वाले छात्रों की चोटी कसकर पकड़ लेते थे।
(xii) राजनीति के अध्यापक - अनिल चंदा - वे कई सालों तक गुरुदेव के प्राइवेट सेक्रेटरी रहे, बाद में लेखिका के कॉलेज में राजनीति (Political Science) के प्रोफ़ेसर बन गए थे।
-छात्र - छात्राओं से अनिल था का एक अलग ही रिश्ता था। भूख लगने पर वे सभी उनके घर पहुंँच जाते थे। उनकी पत्नी रानी दी बड़े प्यार से उनका स्वागत करती और कभी मछलीके कटलेट, कभी चाप और कभी बेर के अचार के साथ कागज़ - सी पतली रोटियाँ परोसती।
- कॉलेज - पार्टी को दूर - दूर तक घुमाने ले जाने का सुझाव भी हमेशा वे ही देते थे।
- लेखिका ने बताया कि एक बार उन्हें लेकर वे राजमहल गए थे और दूसरी बार बनारस। बनारस में अनिल था उन्हें बहुत- सी जगह घुमाया और छात्रावास वापिस छोड़ दिया। लेकिन लेखिका और उनकी साथ कई छात्राओं का मन नहीं भर और वे सब अनिल दा से पूछे बिना तांगा करके विश्वनाथ की गलियों में घूमने चली गई। जब अनिल दा को पता चला तो वे उन्हें वहाँ से ले आए और उन सब को बहुत डाँट पड़ी।
(xiii) संगीत के अध्यापक - श्री शैलजारंजन मजूमदार - शांतिमय घोष, इंदिरा देवी
- शैलेज था का संगीत सिखाने का तरीका बहुत अलग था। वे हर गीत को पहले स्वयं (खुद) गाकर हमें सुनाते थे। बड़े मनोयोग (मन) से सिखाने के कारण ही कोई छात्रा रवींद्र संगीत में कोई गलती नहीं करती थी।
- शांति दा से गाना सीखने से ज़्यादा आनंद, छात्राओं को उनका गाना सुनने में आता था। जब लेखिका ने तीस साल बाद उनका गाना सुना तो उन्हें उनके गीत में वही जादू, वही मिठास महसूस हुई।
- इंदिरा देवी सुंदर होने के साथ-साथ छात्राओं को संगीत का ज्ञान भी बड़ी सुंदरता से देती थीं।
(xiv) नृत्य के अध्यापक - शांति दा, मृणालिनी स्वामीनाथन (साराभाई) - शांति दा ने सीलोन जाकर कैंडी का नृत्य सीखा भी और अनेक उत्सवों पर प्रदर्शन भी किया। उसी प्रकार मृणालिनी जी ने गुरुदेव की कई नाटिकाओं में जावा नृत्य किया है। मनीपुरी कथकली के भी कुशल शिक्षक आश्रम में थे।
(xv) अंग्रेज़ी के अन्य अध्यापक - श्री बलराज साहनी, क्षितिश दा, गुरुदयाल मल्लिक, डॉ. ऐलेक्स ऐरनसन मार्जरी साइक्स - बलराज साहनी जी अपनी कक्षा में नए - नए प्रयोग करते थे। कभी किसी अखबार का संपादकीय देकर कहते इसे संक्षिप्त (Short) करके लिखो। कभी अपनी नई कहानी सुनाने लगते।
-क्षितिश दा उन्हें स्कूल में अंग्रेज़ी और व्याकरण पढ़ाते थे और कॉलेज में भी पढ़ाते थे। पिकनिक में, गाने में, चुटकुले सुनाने में उनका कोई जवाब नहीं था।
-गुरुदयाल मल्लिक लेखिका की सहेली के चाचा थे, इससे वे उसके साथ की सभी छात्राओं को स्नेह करते थे। लेखिका और उसकी सहेलियाँ अपनी समस्याओं को दूर करवाने उनके पास जातीं थी।
जर्मन प्रोफ़ेसर डॉ. ऐलेक्स बहुत ही अच्छा शेक्सपियर (अंग्रेज़ी लेखक) पढ़ाते थे। उन्हें गुस्सा बहुत कम आता था। लेखिका ने अपनी पुस्तक में एक प्रसंग (incident) लिखा है कि एक बार जब डॉ. ऐलेक्स पढ़ा रहे थे तब एक शरारती छात्र वामन ने कक्षा में 'हेलेन साँप' छोड़ दिया। काटने पर उसका विष नहीं चढ़ता लेकिन उसे देखकर ऐरन दा ने डर कर ऊँची छलाँग लगाई और गुस्से से वामन की गर्दन पकड़ कर "यू रैस्कल, यू मिजेट " कहकर उसपर चिल्लाए। फिर दो - चार बार उसे झकझोरा और बिना पढ़ाए चले गए।
(xvi) बांग्ला के अध्यापक - उपेंद्र दा - वे भी छात्रों के प्रिय अध्यापक थे।
12. इनके अतिरिक्त लेखिका ने कुछ अन्य मह्त्वपूर्ण व्यक्तियों का ज़िक्र भी इस अध्याय में किया है।
(i) सरोजरंजन चौधरी - दुर्गा पूजा की छुट्टियों में जो छात्राएँ अपने घर (उत्तर प्रदेश) नहीं जा पाती थीं हँसमुख सरोज था उनका ध्यान रखते थे। उनकी पत्नी 'माशी माँ' लेखिका और अन्य छात्राओं को मोटर में बिठाकर मेले ले जाती। सरोज बाबू यात्रा नाटक दिखा, शाम होने से पहले उन्हें उनके छात्रावास 'श्री भवन' पहुँचा जाते।
(ii) ललित मोहन गुप्त - इनके बारे में लेखिका ने लिखा है कि - यह हमारे अध्यापक - मंडल के सदस्य न होकर भी हमारे गुरु थे। लेखिका अक्सर ललित मोहन बाबू से कोई निबंध लिखवाने, कभी कठिन पद की व्याख्या करवाने उनके पास जाती थी। वे उन्हें कभी तरह - तरह की मिठाइयाँ खिलाते थे।
(iii) रसोई अध्यक्षा (head) - सरोजनी देवी - वे छात्राओं को बहुत प्यार करती थी। उनके अभिनय (acting) की प्रशंसा करते हुए उन्हें रसगुल्ले खिलाती। गर्मी में नींबू का शर्बत बनवा देतीं। माँ की तरह सबका ध्यान रखती।
13. लेखिका के शरारत भरे किस्से -
- एक बार ललित मोहन बाबू के घर में बैठकर उन्हें एक शरारत सूझी। उनके घर के एकदम सामने के घर में मौलाना आदमुद्दीन साहेब रहते थे। उनका गंभीर, रूखा चेहरा था। नमस्कार करने पर वे कोई जवाब न देते थे इसलिए लेखिका और उनकी सहेलियाँ उन्हें जान - बूझकर सलाम करती थीं। एक बार मौलाना लंबी छुट्टी पर ढाका गए। जब वे लौटे तो खबर मिली कि वे ढाका से बहुत ही सुंदर बेगम(पत्नी) लाए हैं। लेकिन किसी ने कभी उनकी बेगम को देखा नहीं था। एक दिन लेखिका और उनकी सहेलियों ने तय किया कि मौलाना जी के घर के पीछे वाले रोशनदान से झाँक कर देखा जाए। इस कोशिश में लेखिका रोशनदान तक पहुँचने के लिए कूड़े दान के ड्रम पर चढ़ी। लेकिन रस्सी टूट जाने से वह गिर पड़ी और आवाज़ सुनकर मौलाना साहब झाडू लेकर बाहर आए। उनके आने से पहले ही लेखिका और उनकी सहेलियाँ ललित बाबू के घर में काफ़ी देर तक छिपी रहीं।
-ऐसा ही एक और किस्सा है। आश्रम में कुछ छात्राएँ 'ट्रिब्यून' नाम का समाचार पत्र मँगवाई थीं। उसमें एक विवाह का विज्ञापन था। लिखा था - आवश्यकता है विदेश में एक शिक्षित राजपुत्र के लिए एक सुंदरी कांवेंट शिक्षिता कन्या की, दान-दहेज, कुल-गोत्र का कोई बंधन नहीं, केवल लड़की सुंदर होनी चाहिए।
ऐसा विज्ञापन देने वाले को सबक सिखाने के लिए लेखिका और उनकी सहेली कमला जो श्री गुरुदयाल मल्लिक (अंग्रेज़ी के अध्यापक) की भतीजी थी दोनों ने एक योजना बनाई। लेखिका ने लड़के को लड़की की माता बनकर गंगाबाई के नाम से पत्र भेज दिया। लड़की की फ़ोटो साथ में देना ज़रूरी था तो लेखिका ने अपनी एक सहेली संध्या की फ़ोटो भेज दी। संध्या बहुत सुंदर थी और कुछ समय पहले बर्मा चली गई थी। लड़के को लड़की पसंद आ गई और वह उससे मिलने कलकत्ता आ गया। शरारत पकड़े जाने के भय से दोनों ने सारी बात चाचा जी (श्री गुरुदयाल जी) को बताई। उन्होंने दोनों को समझाया और कहा कि वे लड़के को जानते है, उसे समझा देंगे। तब जाकर लेखिका की और उनकी सहेली इस परेशानी से बच सके।
14. आश्रम का अस्पताल - लेखिका ने आश्रम के अस्पताल का भी वर्णन किया है। आश्रम का अस्पताल बहुत पुराना था। बड़ी - बड़ी खिड़कियाँ थी। हवादार कमरा किसी सैनेटोरियम जैसा लगता था। दीवारों पर फ्रेस्को के चित्र बने हुए थे। अस्पताल के सामने एक छोटी - सी इमारत थी, जिसमें डॉक्टर बाबू का दफ़्तर (Office) था और डिस्पेंसरी भी थी। डॉक्टर बाबू वहीं कक्षा लेते थे। साथ में उनके सहयोगी यादव बाबू वहाँ दवा बनाने और रोगियों की देखभाल का काम करते थे।
15. उस समय में आश्रम, कलकत्ता विश्वविद्यालय का ही भाग था। छात्रों को परीक्षा देने के लिए 'विद्या सागर कॉलेज' जाना पड़ता था।
*आश्रम के पर्व -
1. गुरुदेव को वैतालिक करवाने का बड़ा शौक था।
2. वैतालिक एक प्रकार का गीत होता है।
3. फाल्गुन की पूर्णिमा में प्रकृति की सुंदरता को देखने और उसका स्वागत करने के लिए सभी आश्रमवासियों को घंटे के पास इकट्ठा होने की सूचना दी गई। सभी ने एक-साथ गीत गाया। सभी लोग आश्रम की परिक्रमा करके उत्तरायण ज़रूर जाते थे।
4. रवींद्र संगीत आश्रम के पेड़ - पत्तों में भी गूंजता था।
5. आश्रम के संगीत प्रेमी एक रसोइये सरजू को जब नाटक की खबर मिलती तो वह शाम के पाँच बजे ही रात का खाना बनाकर रख देता और नाटिका देखने बैठ जाता।
6. कलाकारों को अपने गीतों के भाव और अर्थ खुद गुरुदेव ही समझाते थे।
7. लेखिका ने इस अध्याय में दक्षिण के नृत्य गुरु केलू नायर और श्रीमती नंदिता कृपलानी के अभिनय की तारीफ़ की है।
8. नंदिता कृपलानी, गुरुदेव की पोती थी जो बहुत ही अच्छा नाटक अभिनय (acting) करती थीं। लेखिका उन्हें बड़ी दी कहकर बुलाती थी। उनकी मृत्यु कैंसर के कारण हुई।
9. लेखिका किसी काम से दिल्ली गई और उनसे मिलने अस्पताल पहुँची लेकिन वहाँ के नियमों के कारण वह उनसे मिल नहीं पाई।
10. नंदिता दी जैसी अनेक नृत्यांगनाओं को चमकाने (polishing) का श्रेय (credit) गुरुदेव को जाता है।
11. वे असहाय बालक - बालिकाओं की प्रतिभा को बढ़ाने में उनकी सहायता करते थे। आश्रम में एक अंधा छात्र निःशुल्क (Free) शिक्षा प्राप्त करता था। एक गरीब लेकिन परंतु प्रतिभाशाली लड़की ने आश्रम के संगीत भवन में रवींद्र संगीत, सितार और अन्य विषयों की शिक्षा प्राप्त की।
12. आश्रम में गांधी दिवस - आश्रम में गांधी दिवस भी बहुत धूमधाम से मनाया जाता था। उस दिन आश्रम के सब नौकरों को छुट्टी दी जाती। सब काम छात्र - छात्राओं को खुद करना पड़ता था। एक दिन पहले ही नोटिस बोर्ड पर सूची लगा दी जाती थी कि किसे क्या काम करना है। खाना बनाना, सफ़ाई करना आदि सब काम छात्र ही करते थे।
शाम के समय नौकरों की कबड्डी होती और दिन भर हँसी - खुशी से निकलता था।
* कुछ महत्त्वपूर्ण उत्सव -
1. 'सातवीं पौष का मेला ' आश्रम का सबसे महत्त्वपूर्ण उत्सव था।
- गुरुदेव के पिता श्री देवेंद्रनाथ ठाकुर ने शांतिनिकेतन की ज़मीन पर एक विद्यालय और पुस्तकालय बनाया था और उनके आदेश के अनुसार आश्रम के उद्घाटन की तिथि सातवीं पौष (23 दिसंबर 1901) तय की गई।
- उस दिन आश्रम में मेले का विशेष उत्सव मनाया गया और हर साल सातवीं पौष के दिन आश्रम में मेला लगता है।
- आश्रम में चार दिन की छुट्टी होती है।
- इस मेले को देखने दूर - दूर से लोग आते है।
- इस दिन गुरुदेव उपासना (पूजा) करते हैं।
- चूड़ियों, संथाली गहनों, मिट्टी के बर्तनों, श्रीनिकेतन की साड़ियों से बाज़ार सज जाता है।
2. आश्रम में सातवीं पौष को पहले पाँच छात्रों से प्रवेश लिया। जिसमें एक उनके बेटे रथींद्रनाथ भी थे।
3. इस उत्सव के अलावा शरदोत्सव, वर्षामंगल, माघोत्सव, दोल पूर्णिमा आदि उत्सव भी मनाए जाते।
*आश्रम के विकास में गुरुदेव का योग -
1. शुरू में आश्रम के छात्रों से फ़ीस नहीं ली जाती थी।
2. उन्हें कपड़े, पुस्तकें और खाना भी आश्रम की ओर से मिलता था।
3. श्री देवेंद्रनाथ ठाकुर के ट्रस्ट से आश्रम को अठारह सौ रुपये मिलते थे।
4. गुरुदेव की मासिक आय (Monthly salary) भी कम थी।
5. उनकी पत्नी ने अपनी मर्ज़ी से अपने गहने बेचकर आश्रम के खर्चे में लगा दिए।
6. उनकी पत्नी की मृत्यु 1902 में हुई।
7. उसके बाद एक - एक करके उन्हें दुख मिलते गए।उनके पिता की मृत्यु हुई, फिर उनकी दोनों विवाहित बेटियों की मृत्यु हो गई। उनके सबसे छोटे बेटे की हैजे से मृत्यु हो गई। इतने बड़े दुख के बाद भी उन्होंने आश्रम को सँवारे में अपना पूरा जीवन लगा दिया।
8. उनके पुत्र रथींद्रनाथ ने एक स्थान पर लिखा है कि इतने बड़े दुख और संकट में भी वे लिखते रहे।
9. जब महर्षि देवेंद्रनाथ को यह पता चला कि उनके पुत्र कविता लिखते हैं तब महर्षि ने उन्हें कविता सुनाने को कहा। इन्हीं कविताओं को 'नैवेद्य' नाम से प्रकाशित किया गया।
*गांधी जी और गुरुदेव -
1. गांधी जी का जन्मोत्सव - समारोह शांतिनिकेतन में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता।
2. उस दिन प्रार्थना - सभा आम्रकंज (आमों के बाग) में होती।
3. 1940 के फरवरी माह में गांधी जी आश्रम आए थे।
4. तब दो - तीन दिन तक आश्रम में कई तरह के उत्सव मनाए गए। बहुत बड़ा शामियाना (tent) लगाया गया था। उनकी पत्नी - पूज्य बा भी आई थीं।
5. तरह - तरह की अल्पना (रंगोली) से आश्रम को सजाया गया था।
*अनेक विभूतियों का आगमन -
1. बड़े - से - बड़े व्यक्ति भी आश्रम में आकर अपने बन जाते थे।
2. एक बार मार्शल चाँगकाई आए तो आश्रम की एक चीनी छात्रा मारी वांग ने लीचियों को सजाकर एक चीनी डिश बनाई।
3. पंडित जवाहरलाल नेहरू के आने पर आश्रम में अनोखा उत्साह छा जाता।
4. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, श्यामा प्रसाद मूकर्जी आदि कई ओजस्वी वक्ता आते।
5. एक बार सुभाष चंद्र बोस आए तो आश्रम में सिंहा सदन के बाहर मैदान में उनका स्वागत किया गया।
6. आश्रम में हर घंटे ( bell) का अलग संदेश 'कोड' होता था, जैसे - खाने का, सभा का, खतरे का आदि। हर आश्रमवासी उस कोड को पहचानता था।
7. पूजा की एक महीने की छुट्टी में दूर से आए विद्यार्थियों का घर जा संभव नहीं होता तो उन्हें बहुत - सी सुविधाएँ दे दी जातीं। वे गुरुदेव की निजी लाइब्रेरी से पुस्तकें लाकर पढ़ सकते थे।
8. इस अध्याय में लेखिका ने आश्रम की बस 'विश्वभारती' के बस चालक के बारे में भी लिखा है जिसे इस बात पर बड़ा गर्व था कि वह अपनी बस में गांधी जी को बिठाकर लाया है।
*श्रीनिकेतन का मेला -
1. श्रीनिकेतन (शुरुल) का मेला भी आश्रमवासियों का प्रिय उत्सव था।
2. श्रीनिकेतन की बड़े साहबेर की कोठी एक विशाल प्रासाद (महल) जैसी थी।
3. श्रीनिकेतन के मेले में विशेष उपासना सभा के साथ - साथ खेल - कूद प्रतियोगिता और कवि गान भी होता था।
4. श्रीनिकेतन में तैयार की गई तांता की सुंदर साड़ियाँ, लाख के खिलौने, बर्तन आदि की नुमाइश होती।
*खेलकूद और मनोरंजन -
1. उत्सवों के साथ - साथ आश्रम खेलकूद में भी पीछे नहीं था।
2. फुटबॉल की टीम में कानूदा, असीम दा, संतोष दा जैसे खिलाड़ी थे जो कलकत्ता में भी प्रसिद्ध थे।
3. वार्षिक खेलकूद के उत्सव पर श्री गुरुदयाल मल्लिक कमेंट्री करते थे।
4. कभी - कभी छात्र - छात्राओं का सम्मिलित हॉकी मैच भी होता था।
5. कभी-कभी अध्यापकों का टेनिस टूर्नामेंट होता।
6. ग्रामों (गाँव) में जाकर ग्राम-सेवा में भाग लेना होता था।
7. संथाली लोगों को सफ़ाई सिखाने में खास मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। उनके बालों का जूड़ा कलकत्ता के फैशनेबल वर्ग में बहुत पसंद किया जाता था जिसे वे 'सांउताली खोपा' कहते थे।
*आश्रमवासियों के लिए गुरुदेव के गीत -
1. गुरुदेव ने आश्रम के लिए कई कविताएँ लिखी।
2. छात्र इन्हें पिकनिक के अवसरों पर बड़े आनंद से गाते थे।
3. आश्रम के विशेष अवसरों पर राष्ट्रीय गान दो बार गाया जाता था।
*छात्रों का अतिथि-प्रेम -
1. शांतिनिकेतन के शिक्षा ले चुके छात्र - छात्राएँ, आश्रम के किसी भी छात्र - छात्रा से मिलने पर, स्नेह दिखाते।
2. आश्रमवासियों को इस आतिथ्य की विशेष रूप से शिक्षा दी जाती थी।
3. एक बार राष्ट्रपति श्री राजेंद्र प्रसाद जी आश्रम पधारे। तब बिहार की छात्राओं ने मिलकर उनके लिए स्वादिष्ट पकवान बनाए।
4. सभी आश्रम की मौलिक (अलग तरह की) शिक्षा - प्रणाली को देखकर खुश होते थे।
*गुरुदेव की आत्मीयता -
1. आत्मीयता का अर्थ है - स्नेह, अपनापन
2. लेखिका ने लिखा है कि जब गुरुदेव बीमार रहने लगे तब उनका ध्यान रखने के लिए उनके पास उनकी पुत्र - वधू 'प्रतिमा दी', पोती 'नंदिता कृपलानी' या रानी चंदा होते थे।
3. उनका नौकर वनमाली भी किसी को उनसे मिलने नहीं देता था।
4. लेकिन गुरुदेव तब भी उन सब को कहानियाँ सुनाते थे।
5. हर साल गर्मी की छुट्टियों से पहले उत्तरायण के बरामदे में आश्रम के छात्र - छात्राओं की गुरुदेव के साथ तस्वीर खींची जाती थी।
6. एक बार चित्र खराब हो जाने पर, गुरुदेव ने अस्वस्थ होने पर भी दोबारा तस्वीर के लिए अनुमति दे दी।
7. आश्रम में प्रशंसा व्यक्त करने के लिए कभी तालियाँ नहीं बजाईं जाती थीं, साधु-साधु कहते थे।
8. गुरुदेव को दो चीज़ों से नफ़रत थी, ताली और हारमोनियम से।
9. चीनी - भवन के प्रोफ़ेसर तान के बेटे तान ली ने गुरुदेव के लिए कविता लिखी - 'गुरुदेव बड़ो भालो'। जिसकी अंतिम पंक्ति थी - 'गुरुदेव आमादेर माँ'।
*सादा पर कलापूर्ण रहन-सहन-
1. आश्रम के अध्यापक विशेष उत्सवों पर एक विशेष प्रकार का चोगा पहनते थे।
2. आमतौर पर वे ढीला कुरता और धोती पहनते थे।
3. गुरुदेव के पास काले, सफ़ेद अनेक रंगों के रेशमी चोगे थे। उन पर काला चोगा बहुत फबता (अच्छा लगता) था।
साथ में कुछ - कुछ नेपाली डिज़ाइन की टोपी और पुष्पों की माला पहनते थे। माथे पर चंदन का तिलक लगाते थे।
4. शांतिनिकेतन की वेशभूषा भी अनोखी थी। वे सादा कपड़ा भी कलात्मक ढंग से पहनते थे।
*आश्रम पर काले बादल -
1. इस अध्याय में लेखिका ने गुरुदेव की बढ़ते स्वास्थ्य के बारे में लिखा है।
2. आश्रम में सभी एक अमंगल (गुरुदेव की मृत्यु ) के डर से उदास थे।
3. गुरुदेव की बीमारी के काले बादलों ने पूरे आश्रम को घेर लिया।
4. इलाज के लिए जब गुरुदेव कलकत्ता जाने लगे तब सारा आश्रम उन्हें विदा देने उत्तरायण के बाहर खड़ा था।
5. लाइब्रेरी के बाहर, नोटिस बोर्ड पर उनके स्वास्थ्य के बारे में सूचना लिखी जाती थी।
6. परंतु उनकी स्थिति में सुधार का कोई समाचार नहीं आया और एक दिन उनके जाने पर सभी दुख में डूब गए।
7. गुरुदेव की वाणी उनके छात्र-छात्राओं के कानों में हमेशा गूंजती रहेगी।
शुभकामनाएं
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