NCERT Study Material for Class 9 Hindi Kshitij Chapter 3 Upbhoktavad ki sanskriti (उपभोक्तावाद की संस्कृति ) - Important / key points which covers whole chapter
हमारे ब्लॉग में आपको NCERT पाठ्यक्रम के अंतर्गत कक्षा 9 (Course A) की हिंदी पुस्तक 'क्षितिज' के पाठ पर आधारित प्रश्नों के सटीक उत्तर स्पष्ट एवं सरल भाषा में प्राप्त होंगे।
यहाँ NCERT HINDI Class 9 के पाठ - 3 'उपभोक्तावाद की संस्कृति' के मुख्य बिंदु दिए गए हैं जो पूरे पाठ की विषय वस्तु को समझने में सहायक सिद्ध होंगे।
NCERT Class 9 Hindi Kshitij Chapter 3 'उपभोक्तावाद की संस्कृति' Important / key points which covers whole chapter (Quick revision notes) महत्त्वपूर्ण (मुख्य) बिंदु जो पूरे अध्याय को कवर करते हैं (त्वरित पुनरावृत्ति नोट्स)
'उपभोक्तावाद की संस्कृति'
* 'उपभोक्तावाद की संस्कृति' लेखक श्याम चरण दुबे द्वारा लिखा गया निबंध है।
* इस निबंध में लेखक ने नई जीवन शैली में 'उपभोक्तावाद की संस्कृति' के बढ़ते प्रभाव पर चिंता व्यक्त की है।
*उपभोक्ता का अर्थ है - उपभोग करने वाला (consumer) अर्थात् वस्तुओं और साधनों को इस्तेमाल करने वाला।
*उपभोक्तावाद का अर्थ - यह एक प्रवृत्ति (सोच) है जो इस विश्वास पर आधारित है कि अधिक उपभोग और अधिक वस्तुओं का स्वामी होने से अधिक सुख और खुशी मिलेगी।
*उपभोक्तावादी संस्कृति और विज्ञापनों का व्यक्ति विशेष पर प्रभाव - हमारे समाज में उपभोक्तावादी संस्कृति ने व्यक्ति को बहुत अधिक प्रभावित किया है। लेखक का मानना है कि व्यक्ति उत्पादों के विज्ञापन की चमक - दमक के कारण वस्तुओं के पीछे भाग रहा है। हर व्यक्ति चाहता है कि वह अधिक - से - अधिक सुख के साधनों का उपयोग करे। इसी आकांक्षा में वह वस्तुओं की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देता। लेखक ने पाठ में लिखा है कि 'उत्पाद को आपके लिए है पर आप यह भूल जाते हैं कि जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।' इसका अर्थ है कि हमारे चारों ओर जो विज्ञापनों का जाल फैला है उनके प्रभाव में आकर हम उन वस्तुओं का उपयोग अधिक करने लगे हैं जिनके विज्ञापन अधिक आते हैं। हम केवल विज्ञापन को आधार बनाकर वस्तु की गुणवत्ता के विषय में जाने बिना वस्तुओं का उपयोग करने लगे हैं।
*उपभोक्तावादी संस्कृति /उपभोक्तावाद के दुष्परिणाम -
1. उपभोक्तावादी संस्कृति को अपनाने के कारण वर्तमान युग में मनुष्य के लिए सुख की व्याख्या बदल गई है। भारतीय संस्कृति में त्याग, परोपकार और एक- साथ प्रेम से मिलकर रहने को ही सच्चा सुख माना जाता है। परंतु आज नई-नई और अधिक से अधिक वस्तुओं के उपयोग को ही मनुष्य सुख मानने लगा है।
2. इस संस्कृति के कारण व्यक्ति, आत्म केंद्रित हो गया है। वह केवल अपने विषय में ही सोचने लगा है। पहले व्यक्ति समाज से जुड़कर दूसरों के सुख-दुख को अपना समझता था और उनके दुख को कम करने की कोशिश करता था। परंतु अब स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहा है अर्थात् मनुष्य दूसरों के बारे में सोचने के स्थान पर केवल अपने विषय में ही सोचता है।
3. उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण हमारी 'सांस्कृतिक अस्मिता' को चोट पहुँची है। सांस्कृतिक अस्मिता का अर्थ है - हमारी सांस्कृतिक पहचान अर्थात् हमारा रहन-सहन, खान-पान, हमारी परंपराएँ, हमारे रीति-रिवाज, जो हमें दूसरों से अलग बनाते हैं तथा जिनसे हम विशिष्ट (सबसे अलग) बनते हैं।
भारत पहले भी एक बार पश्चिमी संस्कृति का गुलाम रहा है। परंतु आज जब हम आज़ाद हैं तब भी हम पश्चिमी देशों की संस्कृति को अपनाकर गर्व महसूस करते हैं। उनकी संस्कृति को अपनाकर उनका अनुसरण (follow) करके हम स्वयं को आधुनिक मानने लगे हैं। यह हमारी बौद्धिक दासता को दर्शाता है। 'बौद्धिक दासता' का अर्थ है - स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ समझकर सही गलत का विचार किए बिना उनकी सोच और समझ को अपनाने लग जाना।
इस बौद्धिक दासता के कारण ही भारत में उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास हो रहा है।
4. उपभोक्तावादी संस्कृति दिखावे की संस्कृति है हर व्यक्ति चाहता है कि वह अधिक से अधिक सुख के साधनों का उपयोग करे। इसी आकांक्षा में वह वस्तुओं की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देता। संपन्न और अमीर वर्ग अपनी धन-दौलत के प्रदर्शन के लिए अनावश्यक और महँगी वस्तुओं को खरीदता है। उनकी देखा-देखी सामान्य लोग भी अपना स्तर (status) बढ़ाने के लिए उन्हीं वस्तुओं को प्राप्त करने में लग जाते हैं। जो इन साधनों को अनेकों प्रयास के बाद भी प्राप्त नहीं कर पाते उनके मन में आक्रोश भर जाता है। इस प्रकार दिखावे की संस्कृति फैलती जा रही है, जो सामाजिक अशांति का कारण है।
5. उत्पाद (Product) बनाने वालों द्वारा उपभोक्ताओं (consumer) का तरह-तरह से शोषण किया जा रहा है। विज्ञापनों की सहायता से अधिकांश कंपनियाँ, खराब किस्म की वस्तुओं को अधिक मूल्य पर बेचकर लोगों को बेवकूफ़ बना रही हैं।
* दिखावे की संस्कृति लोगों को क्यों आकर्षित कर रही है?
लोगों के अहम् (अहंकार) को संतुष्ट करने के कारण लेखक ने इस संस्कृति को दिखाने की संस्कृति कहा है। लोग अनेक तरीकों से स्वयं को समाज में ऊँचा दिखाने का प्रयास करते हैं -
1. बड़े ब्रांड की वस्तु का उपभोग करके।
2.बाजार में हर महीने नए-नए सौंदर्य प्रसाधन आते हैं। नए प्रसाधनों का प्रयोग करके।
3. पुरुष भी इस दौड़ में शामिल। शेव के बाद साबुन और तेल से काम चलने पर भी आफ्टर शेव और कोलन का प्रयोग।
4. अनावश्यक वस्तुओं को केवल प्रतिष्ठा चिह्न (हैसियत) के लिए खरीदना।
5. समाज में प्रतिष्ठा दिखाने के लिए पश्चिमी देशों में लोगों का अपनी मृत्यु से पहले, अपने अंतिम संस्कार और अनंत विश्रम के प्रबंध के लिए अच्छी कीमत देकर अपनी मनचाही जगह तय करना, इस दिखावे की संस्कृति का चरम है, जो हास्यास्पद है।
* उपभोक्तावादी संस्कृति के विषय में गांधीजी के विचार - गांधीजी उपभोक्तावादी संस्कृति को भारत के लिए अच्छा नहीं मानते थे। उनके अनुसार यह संस्कृति मानवीय मूल्यों (values) का नाश करती है। वह मानते थे कि उपभोक्ता संस्कृति हमारी सामाजिक नींव (foundation) को ही हिला रही है क्योंकि इस संस्कृति का गुलाम व्यक्ति केवल अपने विषय में ही सोचता है। उसे समाज के सुख-दुख से कोई मतलब नहीं है। यह संस्कृति हमारे देश और समाज के लिए एक बड़ा खतरा है। भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है। भारतीयों द्वारा इस संस्कृति का अंधा अनुसरण करके पाश्चात्य जीवन शैली अपनाने के संबंध में गांधी जी ने कहा था कि 'हम स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने दरवाजे खिड़की खुले रखें पर अपनी बुनियाद पर कायम रहें।' इसका अर्थ है कि हमें अपनी बुद्धि से सोच-विचार करके पश्चिमी जीवन शैली (संस्कृति) की उन्हीं बातों को अपनाना चाहिए जो हमारी भारतीय संस्कृति के लिए खतरा न सिद्ध हो। उनके अनुसार अपनी बुनियाद मतलब भारतीय संस्कृति को मज़बूत रखते हुए किसी संस्कृति की अच्छी बातों को अपने में कोई बुराई नहीं है।