NCERT Study Material for Class 9 Hindi Kshitij Chapter 6 Premchand ke phate joote (प्रेमचंद के फटे जूते ) - Important / key points which covers whole chapter
हमारे ब्लॉग में आपको NCERT पाठ्यक्रम के अंतर्गत कक्षा 9 (Course A) की हिंदी पुस्तक 'क्षितिज' के पाठ पर आधारित प्रश्नों के सटीक उत्तर स्पष्ट एवं सरल भाषा में प्राप्त होंगे।
यहाँ NCERT HINDI Class 9 के पाठ - 6 'प्रेमचंद के फटे जूते' के मुख्य बिंदु दिए गए हैं जो पूरे पाठ की विषय वस्तु को समझने में सहायक सिद्ध होंगे।
NCERT Class 9 Hindi Kshitij Chapter 6 'प्रेमचंद के फटे जूते' Important / key points which covers whole chapter (Quick revision notes) महत्त्वपूर्ण (मुख्य) बिंदु जो पूरे अध्याय को कवर करते हैं (त्वरित पुनरावृत्ति नोट्स)
प्रेमचंद के फटे जूते
1. प्रेमचंद के फटे जूते' हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक 'हरिशंकर परसाई जी' द्वारा लिखा गया एक निबंध है।
2. इस निबंध में परसाई जी ने हिंदी साहित्य के महान रचनाकार, प्रेमचंद जी के व्यक्तित्व की सादगी और उनकी अन्य विशेषताओं के विषय में बताया है। साथ ही अपने कर्त्तव्यों का पालन करने वाले सच्चे रचनाकार के जीवन के संघर्षों का उल्लेख करते हुए दिखावा करने वाले लोगों पर व्यंग्य किया है।
3. लेखक के सामने प्रेमचंद और उनकी पत्नी का एक चित्र है। इस चित्र में प्रेमचंद कैसे दिख रहे हैं, इसका पूरा चित्रण लेखक ने किया है। प्रेमचंद जी, सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हुए हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियाँ उभर आई हैं पर घनी मूँछे चेहरे को भरा- भरा बतलाती हैं।
इस चित्रण से पता चलता है कि प्रेमचंद आर्थिक तंगी (गरीबी) का सामना कर रहे थे। साधनों के अभाव के कारण वे शारीरिक रूप से कमज़ोर थे। घनी मूँछों के बारे में बताते हुए, लेखन उनके आत्मसम्मान के विषय में बताना चाह रहे हैं।
4. फिर लेखक का ध्यान प्रेमचंद जी के जूतों पर जाता है। प्रेमचंद जी ने कैनवस (कपड़े) के जूते पहने हुए हैं जिनके तसमों (laces) के कोनों पर लगी लोहे की पतरी उतर गई है और इस कारण वे जूतों के छेदों में ठीक प्रकार से नहीं डले हुए और जूते लापरवाह से बंधे हुए हैं।
5. लेखक ने देखा कि उनके दाएँ (right) पैर का जूता तो ठीक है लेकिन बाएँ (left) पैर के जूते में बड़ा-सा छेद है जिसमें से उनके पैर की अँगुली निकलती हुई दिखाई दे रही है।
6. प्रसिद्ध उपन्यासकार प्रेमचंद के फटे हुए जूते को देखकर लेखक परेशान हो जाते हैं और उनके मन में अनेक प्रश्न आते हैं। उन्हीं प्रश्नों के उत्तरों को ढूँढ़ने का प्रयास करते हुए लेखक ने यह निबंध लिखा है।
7. लेखक के मन में पहला प्रश्न यह उठता है कि 'फोटो खिंचाने की अगर यह पोशाक है तो पहनने की कैसी होगी?' इसका अर्थ है कि प्रेमचंद जी के वस्त्र बहुत ही साधारण थे । फोटो एक यादगार होती है जिसे मनुष्य संभालकर रखता है और व्यक्ति चाहता है कि वह फोटो में अच्छा दिखे इसलिए हम अक्सर फोटो खिंचाने के लिए विशेष रूप से तैयार होते हैं। परंतु प्रेमचंद जी की पोशाक (कपड़ों) को देखकर लेखक को ऐसा नहीं लगा कि उन्होंने अपने-आप को अच्छा दिखाने का कोई प्रयास किया होगा। इससे प्रेमचंद जी की सादगी का पता चलता है। वे सादगी भरा जीवन जीना पसंद करते थे। फोटो खिंचाने के लिए विशेष रूप से पोशाक पहनना उनके स्वभाव में नहीं था।
8. लेखक जानते हैं कि प्रेमचंद जी की अलग- अलग पोशाकें नहीं होंगी क्योंकि उनमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। इसका अर्थ है कि प्रेमचंद वास्तव में जैसे थे, अपने आप को वैसा ही दिखाना पसंद करते थे । फोटो खिंचाने के लिए अच्छी पोशाक पहनकर वे अपनी वास्तविक स्थिति (गरीबी) को छिपाकर, बनावटी वेश में फोटो नहीं खिंचाना चाहते थे।
9 परसाई जी प्रेमचंद जी को 'साहित्यिक पुरखा'
कहते हैं। प्रेमचंद जी का जन्म परसाई जी से बहुत सालों पहले हुआ था और वे अपनी रचनाओं के माध्यम से परसाई जी से बहुत पहले से ही साहित्य में अपना योगदान दे चुके थे इसलिए परसाई जी ने उन्हें अपना साहित्यिक पूर्वज कहा है।
10 परसाई जी प्रेमचंद जी को अपना साहित्यिक पूर्वत कहकर उनसे पूछते हैं कि क्या उन्हें इस बात का ज़रा भी संकोच, शर्म नहीं कि उनका जूता फटा हुआ है और उनकी अँगुली बाहर दिख रही है। वे मन-ही-मन प्रेमचंद जी से कहते हैं कि अगर वे अपनी धोती को थोड़ा-सा नीचे खींच लेते तो उनका फटा हुआ जूता और उससे निकलती अँगुली ढक सकती थी। लेकिन लेखक जानता है कि ये सब उसके मन के विचार हैं। प्रेमचंद तो बड़ी लापरवाही और विश्वास के साथ अपने फटे जूते में फोटो खिंचा रहे हैं। इन पंक्तियों का आशय यह है कि प्रेमचंद जी ने कभी भी वास्तविकता (सच्चाई) को छिपाने का प्रयास नहीं किया। न ही अपने जीवन में और न ही अपनी रचनाओं में। उन्होंने समाज में फैली सभी बुराइयों को और अत्याचार करने वाले लोगों को अपनी रचनाओं के माध्यम से सबके सामने लाने की सफल कोशिश की है। साथ ही प्रेमचंद अपनी आर्थिक स्थिति अच्छी न होने पर बिल्कुल भी शर्मिंदा नहीं हैं। उन्होंने सदैव चरित्र को महत्त्व दिया है इसलिए फोटो में उनके चेहरे पर आत्मविश्वास की झलक मिलती है।
11. एक रचनाकार होने के कारण परसाई जी इस बात को जानते थे कि रचनाकार हमेशा अपने ही विचारों में खोया रहता है। प्रेमचंद जी के चेहरे पर दिखने वाली आधी अधूरी मुस्कान को देखकर लेखक को ऐसा लग रहा है कि जब फ़ोटोग्राफ़र ने उन्हें फोटो खिंचाने के लिए कहा होगा तब वे शायद अपने विचारों में खोए हुए होंगे । परसाई जी ने लिखा है कि' दर्द के गहरे कुएँ के तल में कहीं पड़ी मुस्कान को धीरे-धीरे खींचकर ऊपर निकाल कर लाने में शायद प्रेमचंद जी को समय लगा होगा और तब तक फ़ोटोग्राफ़र ने फोटो 'क्लिक' कर दी होगी।
इस मुस्कान को परसाई जी ने मुस्कान नहीं, उपहास और व्यंग्य भरी मुस्कान कहा है। इन पंक्तियों का आशय है कि प्रेमचंद जी ने अपनी रचनाओं में समाज के शोषित वर्ग का चित्रण किया है जिन पर शक्तिशाली और समृद्ध (अमीर) लोगों द्वारा अत्याचार होता आया है, फिर चाहे वे गरीब हों या अछूत (छोटी जाति) के) हों। उन सभी के दुख को प्रेमचंद जी ने महसूस किया है और उसका सच्चा चित्रण किया है। पीड़ित लोगों के दुख से दुखी होने के कारण शायद प्रेमचंद ठीक से मुस्कुरा नहीं पा रहे होंगे। फ़ोटोग्राफ़र के कहने पर प्रेमचंद जी को उस मुस्कान को चेहरे पर लाने में थोड़ा समय लग गया होगा और इसी बीच फ़ोटोग्राफ़र ने फोटो खींच दी होगी इसलिए यह मुस्कान अधूरी लग रही है।समाज में इतने शोषित और दुखी लोगों के होते हुए प्रेमचंद जी को मुस्कुराने को कहा जा रहा है इसलिए उनकी यह मुस्कान लेखक को एक व्यंग्य के समान लग रही है।
12. प्रेमचंद जी के चेहरे की अधूरी मुस्कान, उनकी साधारण पोशाक और उनके फटे हुए जूतों को देखकर लेखक को लगता है कि शायद प्रेमचंद जी का फोटो खिंचाने का मन ही नहीं था क्योंकि उन्होंने फोटो खिंचाने के लिए ऐसी कोई तैयारी नहीं की थी जैसी तैयारी कोई आम व्यक्ति फोटो खिंचाने से पहले करता है। यदि प्रेमचंद जी को फोटो खिंचानी थी तो ठीक जूते पहन लेते या फोटो खिंचाते ऐसी न हालत में फोटो खिंचाने से अच्छा है कि ने फोटो ही न खिंचाते। शायद उनकी पत्नी ने फोटो खिंचाने पर ज़ोर दिया होगा और इसलिए बिना कोई तैयारी किए वे फोटो खिंचाने बैठ गए होंगे।
13. लेखक प्रेमचंद की गरीबी पर दुखी हैं कि उनके पास फोटो खिंचाने के लिए भी जूते नहीं हैं। मतलब उनके पास यही फटे हुए जूते ही हैं। उनकी ऐसी स्थिति पर लेखक भावुक होकर रोना चाहते हैं लेकिन जब वे प्रेमचंद जी की आँखों में अपनी गरीबी के लिए दुख और शर्म की जगह, व्यंग्य देखते हैं तो वह व्यंग्य (उपहास) लेखक को रोने नहीं देता।
14. लेखक प्रेमचंद जी से कहते हैं कि 'तुम फोटो का महत्त्व नहीं समझते। समझते होते तो किसी से फोटो खिंचाने के लिए जूते माँग लेते ।' इन पंक्तियों के द्वारा लेखक ने प्रेमचंद जी के व्यक्तित्व की विशेषता को उभारा है। फोटो के माध्यम से वर्तमान समय के पल हमेशा हमारे साथ रहते हैं। वे एक याद बन जाते हैं। लेकिन ऐसे विशेष अवसर पर भी प्रेमचंद जी ने अपने पास जूते न होने पर भी किसी से जूते माँगे नहीं क्योंकि वे बहुत ही स्वाभिमानी थे और सादा जीवन जीना पसंद करते थे । दिखावे में विश्वास नहीं रखते थे। इसके विपरीत लोग अपनी वास्तविकता को छिपाने के लिए न जाने क्या-क्या माँगकर अपनी शान बढ़ाते हैं। लेखक ने ऐसे ही कुछ उदाहरणों दिए हैं कि लोग तो कोट माँगकर शादी पक्की (वर दिखाई) करते हैं और मोटर माँग कर बड़ी शान से बारात निकालते हैं।
माँगने की कोई सीमा ही नहीं है, इस बात को बताने के लिए लेखक ने लिखा है कि लोग तो फोटो खिंचाने के लिए बीवी तक माँग लेते हैं अर्थात् दिखावे के लिए लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं। लेकिन प्रेमचंद जी आडंबर (दिखावा) नहीं करते थे इसलिए उनसे जूते भी नहीं माँगे गए । लेखक ने फिर लिखा है - 'तुम फोटो का महत्त्व नहीं जानते ।' प्रेमचंद जी दिखावट से हमेशा दूर रहे और अपनी वास्तविक स्थिति से उन्हें किसी प्रकार का संकोच (शर्म) महसूस नहीं होता था इसलिए यह जान कर कि फोटो में उनका यह फटे जूते वाला चित्र हमेशा के लिए कैद हो जाएगा फिर भी उन्होंने अपने सिद्धांतों के आगे फोटो के महत्व को तुच्छ (छोटा) समझा।
15. 'लोग तो इत्र चुपड़कर फोटो खिंचाते हैं जिससे फोटो में खुशबू आ जाए'- इस पंक्ति के माध्यम से लेखक ने उन लोगों पर व्यंग्य किया है, जो दिखावे के चक्कर में अपनी समझ भी खो देते हैं। फोटो में अच्छा दिखने के लिए वे बिना सोचे-समझे अनेक रुपये खर्च करते हैं या चीज़ें माँग पर अपना स्तर (standard) ऊँचा दिखाने का प्रयास करते हैं लेकिन असल में, इसका कोई लाभ नहीं होता। मनुष्य की वास्तविक सुंदरता उसके अच्छे चरित्र में होती है। वह यह नहीं जान पाता ।
16. 'गंदे-से- गंदे आदमी की फोटो भी खुशबू देती है।' का अर्थ है कि चरित्र से बुरा आदमी भी फोटो में अच्छा दिखने का प्रयास करता है लेकिन जिस प्रकार इत्र लगाकर फोटो खिंचाने से फोटो में इत्र की खुशबू नहीं आ पाती, उसी प्रकार चरित्र को ऊँचा उठाने के स्थान पर दिखावे पर ध्यान देने से व्यक्ति अच्छा नहीं बन पाता । जो व्यक्ति अपनी कमजोरियों को छिपाकर दिखावा करके अपने-आप को प्रस्तुत करते हैं- उन पर लेखक ने व्यंग्य किया है।
17. परसाई जी आगे लिखते हैं-'टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस ज़माने में भी पाँच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे | जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है।' यहाँ टोपी प्रतिष्ठा, मान-सम्मान की प्रतीक है और जूता समृद्धि और रुपये की ताकत का प्रतीक है। इन पंक्तियों के माध्यम से परसाई जी समाज की व्यवस्था पर व्यंग्य कर रहे हैं कि संसार में मनुष्य की प्रतिष्ठा का कोई मोल नहीं है। जिसके पास पैसा है, उसके पास ताकत है और संसार उसे ही महत्त्व देता है। फिर वे इसी विषय में आगे लिखते हैं कि अब तो जूते की कीमत और बढ़ गई है अर्थात् अब तो पैसे वालों की पूछ, उनका महत्त्व और अधिक बढ़ गया है। 'एक जूते पर पचीसों टोपियाँ न्योछावर होती हैं?' अर्थात् पैसे वालों के पास ताकत होती है, उन्हें समाज में विशेष अधिकार प्राप्त होते हैं इसलिए उनके प्रभाव में आकर लोग अपने फायदे के लिए अपनी प्रतिष्ठा, अपने सिद्धांतों (Principles) को छोड़कर उनके कहे अनुसार कार्य करते हैं।
18. परसाई जी प्रेमचंद जी के व्यक्तित्व की सच्चाई को जानते थे इसलिए उन्होंने लिखा है कि 'तुम भी जूते और टोपी के आनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे' अर्थात् प्रेमचंद जी ने सदैव अपने सिद्धांतों को, अपनी प्रतिष्ठा को महत्त्व दिया, न कि रुपये-पैसे को। उन्होंने अपनी रचनाओं में वही लिखा जो सच था। उन्होंने केवल मनोरंजन के लिए साहित्य रचना नहीं की। उन्होंने अपनी रचनाओं में समाज में फैली रुढ़ियों, बुराइयों और शोषित (exploited) लोगों की स्थिति का सच्चा वर्णन किया है। लेखक को उस महान कथाकार, उपन्यास-सम्राट और युग-प्रवर्तक कहे जाने वाले साहित्यकार की यह दशा देखकर गहरा दुख अनुभव हो रहा है। उन्हें दुख है कि इस महान साहित्यकार की आर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि उसने फोटो में भी फटा हुआ जूता पहना है।
19. प्रेमचंद जी की स्थिति से दुखी लेखक अपनी आर्थिक स्थिति के बारे में लिखते हैं कि 'मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है। यों ऊपर से अच्छा दिखता है।' अर्थात् मेरी आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है लेकिन मेरी निर्धनता (गरीबी) समाज के सामने प्रकट नहीं हुई है। 'अँगुली बाहर नहीं निकलती, पर अँगूठे के नीचे तला फट गया है' अर्थात् मेरी बदहाली (बुरे हालात) लोगों के सामने तो नहीं आई परंतु इस निर्धनता से भरे जीवन के संघर्षों को झेलते हुए मुझे बहुत-सी तकलीफ़ों का सामना करना पड़ रहा है। मुझे चाहे कितनी भी परेशानियाँ क्यों न झेलनी पड़े लेकिन मैं समाज के सामने इसे ज़ाहिर नहीं होने दूँगा।
'तुम्हारी अँगुली दिखती है, पर पाँव सुरक्षित है।' - इस पंक्ति द्वारा लेखक यह कहना चाहते हैं कि प्रेमचंद की खराब आर्थिक स्थिति का असर बाहरी वस्तुओं पर ज़रूर पड़ा हो लेकिन उनका चरित्र, उनका आचरण और उनके मूल्य (values) अभी भी पूरी तरह सुरक्षित हैं। दूसरी ओर लेखक अपने बारे में बताते हैं कि' मेरी अँगुली ढकी है, पर पंजा नीचे घिस रहा है।' अर्थात् मुझ पर कितना ही बड़ा आर्थिक संकट क्यों न हो, शर्म के कारण मैंने उसे हमेशा समाज से छिपाने का प्रयास किया है। मैंने अपने जीवन में अनेक परिस्थितियों में समझौता किया है।
'तुम पर्दे का महत्त्व ही नहीं जानते, हम पर्दे पर कुर्बान हो रहे हैं।' अर्थात् तुमने अपनी वास्तविकता को छिपाने का कभी प्रयास नहीं किया क्योंकि तुम्हारे लिए स्वयं को उच्च स्तर का दिखाना महत्त्वहीन सोच है और मैं समाज के दूसरे लोगों की तरह अपनी असलियत छिपाता रहा हूँ क्योंकि मुझे अपनी गरीबी, अपनी कमज़ोरियों पर शर्म आती है।
20. अपने और प्रेमचंद जी के बीच के इस अंतर को स्पष्ट करते हुए लेखक लिखते हैं कि 'तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहनते हो! मैं ऐसे नहीं पहन सकता।' अर्थात् प्रेमचंद जी के लिए यह बात बिल्कुल भी महत्त्व नहीं रखती थी कि लोग उनके फटे हुए जूते को
देखकर क्या सोचेंगे या लोग यह जान जाएँगे कि इतना बड़ा साहित्यकार इतने बड़े आर्थिक संकट
का सामना कर रहा है। लेखक मानते हैं कि उन में ऐसा साहस नहीं है। ऐसी स्थिति में वे फोटो ही नहीं खिंचाएँगे।
21. ऐसी स्थिति में भी प्रेमचंद जी के चेहरे पर एक मुस्कान दिखाई दे रही है जो लेखक को परेशान कर रही है। वे उनकी इस व्यंग्य भरी मुस्कान का मतलब जानने के लिए बेचैन हो उठते हैं। फिर वे सोचते हैं कि क्या यह मुस्कान उनके उपन्यासों और कहानियों (रचनाओं) के पात्रों की स्थिति के कारण है जिसका ज़िम्मेदार यह असंवेदनशील (भावनाहीन) समाज है। इसका अर्थ है कि प्रेमचंद जी के पात्र (Characters) समाज द्वारा शोषित किए गए सच्चे पात्र हैं। उन पात्रों के दुखी रहते प्रेमचंद जी समाज को अपनी व्यंग्य भरी मुस्कान से देख रहे हैं। लेखक प्रेमचंद जी से ही प्रश्न करते हैं कि
- 'क्या होरी का गोदान हो गया?
- क्या पूस की रात में नीलगाय हलकू का खेत चर गई ?
- डॉक्टर सुजान भगत का लड़का मर गया; क्योंकि क्लब छोड़कर नहीं आ सकते ?
नहीं, मुझे लगता है माधो औरत के कफ़न के चंदे की शराब पी गया । वही मुस्कान मालूम होती है।' अर्थात् उनके शोषित पात्रों का शोषण जिस समाज ने किया है, प्रेमचंद शायद उसी समाज की मानसिकता (सोच) पर हँस रहे हैं।
22. अब तक लेखक प्रेमचंद की फोटो में उनके फटे
जूते को देखकर बेचैन थे कि इस महान साहित्यकार
की ऐसी दशा है कि उनके पास फोटो खिंचाने के
लिए भी जूते नहीं हैं। प्रेमचंद जी को इससे कोई
फ़र्क भी नहीं पड़ता। जिस निश्चिंतता (आराम) से
प्रेमचंद जी फोटो में मुस्कुरा रहे हैं, उन्हें देखकर
ऐसा ही लगता है। लेकिन लेखक कभी भी ऐसा
नहीं कर सकते । अपनी खराब स्थिति को वे संसार
के सामने नहीं ला सकते । फिर अचानक फटे हुए
जूते को फिर से देखकर उनके मन में यह प्रश्न आता है कि प्रेमचंद जी का यह जूता फटा कैसे ? ने प्रेमचंद जी से पूछते हैं कि 'कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक ?' अर्थात् आम आदमी (जनता) के जीवन की सच्चाई का चित्रण करने वाले कथाकार का जूता फट कैसे गया ? क्या रुपयों के अभाव में बनिये को उसके पैसे न दे सकने के कारण वे सीधे रास्ते से घर न जाकर बनिये से बचने के लिए मील-दो - मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे?
उसके बाद लेखक स्वयं ही कहते हैं कि चक्कर लगाने से जूता नहीं फटता, घिस जाता है, जैसे कुंभनदास का जूता घिस गया था। कुंभनदास, कृष्ण भक्त कवि थे जिन्हें एक बार बादशाह अकबर ने अपने दरबार में आमंत्रित किया था । अकबर से मिलने कुंभनदास फतेहपुर सीकरी गए थे। कुंभनदास जी को अपने जाने पर बड़ा पछतावा हुआ क्योंकि इतनी दूर की यात्रा करने में उनका जूता घिस गया था- 'आवत जात पन्हैया घिस गई, बिसर गयो हरि नाम' अर्थात् आने-जाने में मेरी पादुकाएँ (पैर के जूते ) घिस गए और यात्रा की कठिनाइयों में उलझकर मैं हरि नाम का जाप भी नहीं कर सका।
और ऐसे बुलाकर इनाम देने वालों के लिए कहा था- 'जिनके देखे दुख उपजत है, तिनको करबौ परै सलाम !' अर्थात् जिन्हें देखकर मेरे हृदय में दुख का भाव आता है उन्हें मुझे सलाम करना पड़ता है, उनके आगे झुकना पड़ता है।
अपनी बात की पुष्टि के लिए लेखक ने कुंभनदास का उदाहरण दिया है। अकबर को सलाम करने की मज़बूरी में ही उनका जूता घिस गया था लेकिन फटा नहीं । कहने का अर्थ यह है कि प्रेमचंद जी ने तो अपने जीवन में किसी बड़े अफ़सर से डर कर (अंग्रेज़ों से डर कर) अपना जूता नहीं घिसा।
23. लेखक को ऐसा लगता है कि किसी सख्त चीज़ को जो परत-दर-परत सदियों से जम गई है उसे ठोकर मारते रहने के कारण प्रेमचंद जी ने अपना जूता फाड़ लिया है। इन पंक्तियों में सख्त और सदियों से जमी चीज़ हमारे समाज में वर्षों से पनप रही रुढ़ियाँ हैं, परंपराएँ हैं जो अब एक टीले का रूप धारण कर चुकी हैं। लोग अक्सर अपने बचाव के लिए समाज में चली आ रही व्यर्थ की परंपराओं और विश्वासों को मानते चले जाते हैं। वे खराब सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध कभी आवाज़ नहीं उठाते, उनका विरोध नहीं करते परंतु प्रेमचंद ने उन टीलों के बगल से (कोने से/एक तरफ़ से ) निकलने का रास्ता कभी नहीं अपनाया अर्थात् उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से सदैव शोषित वर्गों पर हो रहे अत्याचारों का उल्लेख किया है। शोषण करने वालों के खिलाफ़ लिखा है। उन्होंने अपने जीवन में अपने आदर्शों के साथ कभी भी समझौता नहीं किया, अपना रास्ता नहीं बदला इसलिए वे वैसी समृद्धि नहीं पा सके जैसी उन्हें मिलनी चाहिए थी ।
24. परसाई जी ने प्रेमचंद जी के व्यक्तित्व की अन्य विशेषता का यहाँ उल्लेख किया है कि उन्हें समझौता करना पसंद नहीं था। उनका यह व्यक्तित्व उनके उपन्यास 'गोदान' के पात्र 'होरी' में भी दिखाई देता है। होरी अपना सारा जीवन गरीबी में बिताता है। वह जीवन के सभी संघर्षों से लड़ते हुए भी अपना किसान - धर्म नहीं छोड़ता । उसी प्रकार प्रेमचंद जी ने भी आर्थिक तंगी को झेलते हुए भी अपनी लेखनी के साथ कोई समझौता नहीं किया। वे संघर्षशील और स्वाभिमानी थे। उन्होंने हमेशा वही लिखा जो सच था इसलिए लेखक ने यहाँ व्यंग्य किया है कि 'नेम - धरम वाली कमज़ोरी होरी को ले डूबी, नेम-धरम उसकी भी ज़ंजीर थी' अर्थात् प्रेमचंद ने अपने लेखन को ही अपना धर्म माना जिस प्रकार होरी ने कृषि को अपना धर्म माना । उन्होंने साहित्य को केवल लोगों के मनोरंजन का साधन न समझकर पाठकों को सच्चाई से अवगत कराने के अपने कर्त्तव्य को हमेशा पूरी ईमानदारी के साथ निभाया । अपने कर्तव्य को प्रेमचंद जी ने कभी बंधन नहीं समझा बल्कि मुक्ति माना है अर्थात् अपनी आत्मा की संतुष्टि माना है। इसलिए इतनी गरीबी में भी उनके चेहरे पर संतुष्टि की मुस्कान दिखाई दे रही है।
25. परसाई जी लिखते हैं कि प्रेमचंद जी के फटे हुए जूते से पाँव की अँगुली उन्हें संकेत करती - सी लगती है। जिसे वे घृणा के योग्य समझते हैं उसकी तरफ़ वे हाथ को नहीं, पाँव की अंगुली से इशारा कर रहे हैं अर्थात् वे अपने हाथ का महत्त्व ऐसे लोगों के लिए कम नहीं करना चाहते।
26. परसाई जी दावा कर रहे हैं कि वे उनकी मुस्कान को समझ पा रहे हैं। उनकी अँगुली के इशारे को भी समझ पा रहे हैं। उन्हें लगता है कि प्रेमचंद जी अवश्य ही हम पर हँस रहे हैं बल्कि उन सब पर हँस रहे हैं, समाज में जो लोग अपनी अँगुली को छिपाए अर्थात् अपनी कमज़ोरियों को छिपाए चल रहे हैं। वे उन पर भी हँस रहे हैं जो लोग अपने जीवन की कठिनाइयों का सामना करने की बजाय उनसे बच कर चलते हैं। अपने आदर्शों से समझौता कर रहे हैं। लेखक को लगता है कि प्रेमचंद जी कह रहे हैं कि मैंने तो सामाजिक बुराइयों के खिलाफ़ लड़ते हुए अपना जूता फाड़ लिया, चाहे इस सब में मेरी अँगुली बाहर निकल आई अर्थात् मुझे गरीबी में जीवन काटना (व्यतीत करना) पड़ा और मेरी स्थिति समाज के सामने भी प्रकट हो गई लेकिन मेरा पाँव बचा रहा अर्थात् मैंने अपना चरित्र बचा लिया। मैं अपने आदर्शों के साथ चलता रहा परंतु तुम अपनी अँगुली को ढाँकने (छिपाने) की चिंता में अपने तलुवे (foot sole) का नाश कर रहे हो अर्थात् तुम अपनी कमज़ोरी, अपनी वास्तविकता (गरीबी) को छिपाने की चिंता में अपने व्यक्तित्व का, अपने चरित्र का नाश कर रहे हो। अपने आदर्शों के नाथ समझौता करके तुम कैसे चलोगे ?
लेखक उन व्यक्तियों पर व्यंग्य कर रहे हैं जो दिखावे की संस्कृति में विश्वास करते हैं। लेखक प्रेमचंद जी से कहते हैं कि मैं तुम्हारे जूते फटने का कारण भी समझता हूँ (अन्याय के विरुद्ध लड़ाई), तुम्हारी अँगुली का इशारा भी समझता हूँ (दिखावा करने वाले लोगों की ओर इशारा) और तुम्हारी मुस्कान में छिपे व्यंग्य को भी समझता हूँ (समाज पर व्यंग्य, जो मजबूर लोगों का शोषण करके खुश हैं)।
27. इस निबंध के माध्यम से परसाई जी ने हिंदी साहित्य के महान रचनाकार प्रेमचंद जी के व्यक्तित्व की महानता को, उनकी विशेषताओं को प्रस्तुत किया है। साथ ही दिखावा करने वालों, वास्तविकता और जीवन की परेशानियों से बच कर भागने वालों पर व्यंग्य किया है।
28. प्रेमचंद जी के चरित्र की विशेषताएँ-
(i) सादगी भरा जीवन जीना पसंद करते थे।
(ii) स्वाभिमानी
(iii) सरल व्यक्तित्व
(ⅳ) ऊँचे आदर्शों को अपनाने वाले
(ⅴ) कठिन परिस्थितियों का सामना करने वाले
(vi) संघर्षशील लेखक
(vii) लेखक के धर्म और कर्त्तव्य का पालन करने वाले - बिना किसी डर और लालच के समाज की सच्चाई का चित्रण करने वाले
(vⅲ) अपने सिद्धांतों (उसूलों) से समझौता न करने वाले