अगर आप जानना चाहते हैं कि अतिशयोक्ति अलंकार किसे कहते हैं और उसके उदाहरणों के माध्यम से आप अतिशयोक्ति अलंकार के प्रयोग को समझना चाहते हैं तो इस पोस्ट में आप जानेंगे कि Atishyokti Alankaar kisey kehte hain? साथ ही आपकी सहायता के लिए Atishyokti Alankaar ke 20+ Udaharan, उनके स्पष्टीकरण सहित दिए जा रहे हैं।
आशा है निम्नलिखित जानकारी आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
अतिशयोक्ति अलंकार
परिभाषा - कविता में जब किसी व्यक्ति के गुण, रूप-सौंदर्य, वीरता का या किसी वस्तु की विशेषता का अथवा किसी घटना या दृश्य का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जाता है, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
अतिशयोक्ति अलंकार के उदाहरण -
1. हनुमान की पूँछ में, लगन न पाई आग।
लंका सिगरी जल गई, गए निसाचर भाग।।
( हनुमान जी की अपार शक्ति के बारे में बताने के उद्देश्य से, कवि ने यहाँ हनुमान जी की पूँछ में आग लगने से पहले ही सारी लंका नगरी के जल जाने और राक्षसों के भागने का वर्णन किया है।)
2. आगे नदिया पड़ी अपार, घोड़ा कैसे उतरे पार।
राणा ने सोचा इस पार, तब तक चेतक था उस पार।।
(महाराणा प्रताप अभी सोच ही रहे थे कि उनका घोड़ा चेतक, नदी पार करके उस पार पहुँच गया। यहाँ घोड़े की बुद्धि और चुस्ती का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है।)
3. देख लो साकेत नगरी है यही,
स्वर्ग से मिलने गगन को जा रही।
( यहाँ साकेत नगरी की ऊँची इमारतों की भव्यता को दर्शाने के लिए कवि ने बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया है।)
4. इतना रोया था मैं उस दिन, ताल-तलैया सब भर डाले।
( यहाँ कवि ने अपने दुख का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है।)
5. इत आवत चलि जात उत, चली छ-सातक हाथ।
चढ़ी हिंडोरे-सी रहे, लगी उसासनु साथ।।
( विरह की वेदना के कारण नायिका इतनी क्षीण (कमज़ोर) हो गई है कि साँस लेने और छोड़ने पर नायिका का शरीर झूले के समान आगे-पीछे हो रहा है। कवि ने नायिका के दुख का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है।)
6. बाण नहीं पहुँचे शरीर तक, शत्रु गिरे पहले ही भू पर।
( यहाँ वीरता का असाधारण रूप से बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया गया है।)
7. वह शर इधर गांडीव गुण से भिन्न जैसे ही हुआ।
धड़ से जयद्रथ का इधर, सिर छिन्न वैसे ही हुआ।।
(अर्जुन के गांडीव से जैसे ही तीर निकलकर अलग हुआ, वैसे ही जयद्रथ का सिर धड़ से कटकर अलग हो गया। यहाँ अर्जुन की वीरता का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया गया है।)
8. देखि सुदामा की दीन दशा, करुणा करके करुणानिधि रोए,
पानी परात को हाथ छुओ नहीं, नैनन के जल सोंग पग धोए।।
(यहाँ सुदामा की दीन दशा देखकर श्रीकृष्ण की करुणा (दुख) का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है। सुदामा की दीन दशा देखकर श्रीकृष्ण, दुख के कारण इतना रोए कि उनके आँसुओं से ही सुदामा के पैर धुल गए।)
9. कढ़त साथ ही म्यान तें, असि रिपु तन ते प्राण।
(यहाँ तलवार के म्यान से निकलते ही अर्थात् वार किए बिना ही शत्रु के शरीर से प्राण निकलना अतिश्योक्तिपूर्ण है।)
10. प्राण छूटै प्रथम रिपु के रघुनायक सायण छूट न पाए।
( युद्ध में श्रीराम के बाण अभी धनुष से छूट भी नहीं पाते थे, उससे पहले ही रिपु (शत्रु) के प्राण छूट जाते थे। यहाँ असंभव स्थिति का वर्णन है।)
11. जिस वीरता से शत्रुओं का, सामना उसने किया।
असमर्थ हो उसके कथन में, मौन वाणी ने लिया।।
( वीरतापूर्वक शत्रुओं का सामना करने में वाणी का असमर्थ हो कर मौन धारण कर लेना, अतिशयोक्तिपूर्ण है।)
12. शर खींच उसने तूण से कब किधर संधाना उन्हें ।
बस बिद्ध होकर ही विपक्षी वृंद ने जाना उन्हें।।
(उसने कब तूण से तीर निकालकर संधान किया , इस बात को विपक्षी दल ने तभी जाना , जब शत्रु घायल होकर गिर पड़ा। यहाँ वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है।)
13. भूप सहस दस एकहिं बारा।
लगे उठावन टरत न टारा।।
(यहाँ दस हज़ार राजाओं द्वारा मिलकर भी शिव-धनुष को न हिला सकने का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है।)
14. बाँधा था विधु को किसने इन काली ज़ंजीरों से,
मणि वाले फणियों का मुख, क्यों भरा हुआ था हीरों से।
(यहाँ कवि ने मोतियों से भरी हुई प्रिया की माँग की सुंदरता का बढ़ा - चढ़ाकर वर्णन किया है। विधु (चंद्रमा) से मुख का, काली ज़ंजीरों से बालों का और का मणि वाले फणियों से मोतियों से भरी माँग का बोध होता है।)
15. कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा।
सोषेउ सुजसु सकल संसारा ।।
( यहाँ कुंभज अर्थात् अगस्त्य मुनि द्वारा अपार समुद्र को सोखने का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है।)
16. धनुष उठाया ज्यों ही उसने,
और चढ़ाया उस पर बाण ।
धरा सिंधु नभ सहसा काँपे,
विकल हुए जीवों के प्राण।
(जैसे ही उसने (अर्जुन ने) धनुष उठाया और उस पर बाण चढ़ाया तभी धरती, आसमान एवं नदियाँ थर - थर काँपने लगीं और सभी जीवों के प्राण निकलने लगे। यहाँ अर्जुन की वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है।)
17. तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान
मृतक में भी डाल देगी जान
(कवि ने शिशु के नए दांतों की मुस्कान को मृतक में भी जान डाल देने वाली कहा है, जोकि असंभव है।)
18. श्याम नारायण पांडेय द्वारा रचित कविता - 'चेतक की वीरता' के हर पद्य में चेतक की वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है -
रण बीच चौकड़ी भर – भर कर,
चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से,
पड़ गया हवा का पाला था।
गिरता न कभी चेतक तन पर,
राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दौड़ रहा अरि-मस्तक पर,
या आसमान पर घोड़ा था।
जो तनिक हवा से बाग हिली,
लेकर सवार उड़ जाता था।
राणा की पुतली फिरी नहीं,
तब तक चेतक मुड़ जाता था।
है यहीं रहा, अब यहां नहीं,
वह वहीं रहा था यहां नहीं।
थी जगह न कोई जहाँ नहीं
किस अरि – मस्तक पर कहाँ नहीं।
कौशल दिखलाया चालों में,
उड़ गया भयानक भालों में।
निर्भीक गया वह ढालों में,
सरपट दौड़ा करबालों में।
बढ़ते नद सा वह लहर गया,
वह गया गया फिर ठहर गया।
विकराल वज्रमय बादल सा
अरि की सेना पर घहर गया।
भाला गिर गया, गिरा निशंग,
हय टापों से खन गया अंग।
बैरी समाज रह गया दंग,
घोड़े का ऐसा देख रंग।
19. स्वर्ग का यह सुमन धरती पर खिला,
नाम इसका उचित ही है उर्मिला।
(यहाँ 'उर्मिला' की सुंदरता का वर्णन बढ़ा-चढ़ाकर किया गया है।)
20. पंखुरी लगे गुलाब की, परि है गात खरोट।
( गुलाब की पँखुडी बहुत कोमल होती है। उसके छूने भर से शरीर पर खरोंच आना असंभव है। यहाँ नायिका की कोमलता का अस्वभाविक अर्थात् बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किए जाने के कारण अतिशयोक्ति अलंकार है।)
21. दादुर धुनि चहुँ दिशा सुहाई।
बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।
(यहाँ मेंढकों की कर्कश आवाज़ को अत्यधिक मधुर बताकर कवि ने चारों दिशाओं में गूँजने वाले उनके स्वर को विद्यार्थियों के समूह द्वारा वेद पढ़ने की सामूहिक ध्वनि के समान बताया है जो अतिशयोक्तिपूर्ण है।)
22. चंचला स्नान कर आये, चन्द्रिका पर्व में जैसे।
उस पावन तन की शोभा, आलोक मधुर थी ऐसे।
(यहाँ नायिका के रूप और उसकी सुंदरता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है।)
23. छुअत टूट रघुपति न दोषु,
मुनि बिनु काज करि अकत रोषु ।
(यहाँ सीता-स्वयंवर के प्रसंग में शिव धनुष टूटने पर लक्ष्मण परशुराम जी से कह रहे हैं कि धनुष टूटने में श्रीराम का कोई दोष नहीं है। यह तो उनके छूने मात्र से ही टूट गया। छूने से कभी धनुष नहीं टूटता, अतः यहाँ कवि द्वारा श्रीराम के शौर्य का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है।)
24. साँसनि ही सौं समीर गयो अरु,
आँसुन ही सब नीर गयो ढरि।
(यहाँ विरह के कारण नायिका की स्थिति का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया गया है। नायक के वियोग में दुखी नायिका, लंबी-लंबी साँसें लेती है और आँसू बहाती रहती है जिसके कारण धरती से वायु तत्व और जल तत्व समाप्त हो गया।)
25. पिय सौं कहेहु सँदेसड़ा, ऐ भँवरा ऐ काग।
सो धनि विरह जरि मुई तेहिक धुँआ हम लाग।।
(यहाँ नायिका के विरह का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है। नायिका विरह की आग में जल गई है और उस अग्नि के कारण भौंरे और कौए का रंग काला पड़ गया है।)
26. संदेसनि मधुबन-कूप भरे।
( यहाँ एक गोपी अपनी सखी से कह रही है कि श्रीकृष्ण को भेजे गए हमारे संदेशों से मथुरा के कुएँ भर गए अर्थात् उसने अपने संदेशों के संबंध में बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया है।)
27. तारा सो तरनि धूरि धारा में लगत जिमि।
थारा पर पारा, पारावार यों हलत है।।
( यहाँ शिवाजी महाराज की विशाल सेना का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है। उनकी सेना के चलने से इतनी धूल उड़ रही है कि चारों ओर धूल छा गई है। इस कारण से आकाश में दमकता हुआ सूरज भी एक टिमटिमाते हुए तारे सा दिखने लगा है। सेना के बोझ के कारण पूरा संसार ऐसे डोल रहा है जैसे किसी विशाल थाली में रखा हुआ पारा इधर - उधर डोलता रहता है।
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