अगर आप जानना चाहते हैं कि मानवीकरण अलंकार किसे कहते हैं और उसके उदाहरणों के माध्यम से आप मानवीकरण अलंकार के प्रयोग को समझना चाहते हैं तो इस पोस्ट में आप जानेंगे कि Maanvikaran Alankaar kisey kehte hain? साथ ही आपकी सहायता के लिए Maanvikaran Alankaar ke 20+ Udaharan, उनके स्पष्टीकरण सहित दिए जा रहे हैं।
आशा है निम्नलिखित जानकारी आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
मानवीकरण अलंकार
परिभाषा - कविता में जब प्रकृति, जैसे- पेड़-पौधे, आकाश आदि और निर्जीव वस्तुओं में मानवीय भावनाओं का वर्णन हो अर्थात् उन्हें मानव की तरह सुख-दुख का अनुभव करते हुए या मानव जैसी क्रियाएँ करते हुए दर्शाया जाए तब वहाँ मानवीकरण अलंकार आता है।
सरल भाषा में कहा जाए तो मानवीकरण का अर्थ है - 'किसी को मानव बना देना।' काव्य में कवि जब प्रकृति का चित्रण इस प्रकार करता जैसे वह कोई मानव हो, ऐसे स्थलों पर कविता में जो सुंदरता आती है उसका कारण, मानवीकरण अलंकार ही होता है।
मानवीकरण अलंकार के उदाहरण -
1. उषा सुनहले तीर बरसाती जयलक्ष्मी-सी उदित हुई,
उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अंतर्निहित हुई।।
(यहाँ उषा अर्थात् सुबह और रात्रि अर्थात् रात का मानवीकरण किया गया है। उषा का आगमन ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो सुनहरे तीरों की वर्षा करती हुई (सूरज की किरणें बिखेरती हुई) विजयलक्ष्मी प्रकट हो रही हैं। दूसरी ओर रात पराजित होती हुई, जल में छिप रही है।)
2. नीम के भी बौर में मिठास देख
हँस उठी है कचनार की कली!
टेसुओं की आरती सजा के
बन गई वधू वनस्थली!
( इन पंक्तियों में कचनार की कली को युवती के समान हँसते हुए और वन की भूमि को वधू के रूप में चित्रित करके उनका मानवीकरण किया गया है।)
3. सतपुड़ा के घने जंगल,
नींद में डूबे हुए से,
ऊँघते अनमने जंगल।
(यहाँ सतपुड़ा के जंगलों को मानव की भांति सोता हुआ बताया गया है।)
4. लो हरित धरा से झाँक रही
नीलम की कली, तीसी नीली।
(यहाँ कवि ने प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन किया है कि हरी-भरी धरती पर तीसी अर्थात् अलसी के नीले फूल ऐसे लग रहे हैं मानो हरी धरती की ओट से वे मनुष्य के समान झाँक रहे हों।)
5. ओ नियति! तू सुन रही है।
( नियति अर्थात् भाग्य से मानव के समान सुनने की अपेक्षा करना।)
6. खड़-खड़ करताल बजा, नाच रही बेसुध हवा।
( हवा का मानव के समान नाचने की क्रिया करने का वर्णन।)
7. दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही,
वह संध्या सुंदरी परी-सी,
धीरे - धीरे - धीरे ।
( यहाँ कवि के द्वारा संध्या अर्थात् शाम को एक सुंदर परी के रूप में आसमान से धीरे-धीरे उतरते हुए चित्रित किया गया है।)
8. सुवासित भीगी हवाएँ, सदा पावन माँ सरीखी।
(इस पंक्ति में कवि ने ठंडी सुगंधित हवाओं को माँ के पावन स्पर्श के समान बताया है।)
9. सोनजुही की बेल, चौकड़ी भरती चंचल हिरनी।
(यहाँ सोनजुही की बढ़ती हुई बेल को हिरणी के समान छलाँगे लगाती हुई बताया गया है।)
10. सिंधु - सेज पर धरा - वधू अब
तनिक निशा की हलचल स्मृति में
मान किए - सी ऐंठी - सी।
( यहाँ पृथ्वी को संकोच करती हुई, रूठी हुई - सी वधू के रूप में चित्रित किया गया है, जोकि मानवीकरण अलंकार का सुंदर उदाहरण है।)
11. बीती विभावरी जागरी
अंबर-पनघट में डुबो रही
तारा-घट उषा-नागरी।
(कवि ने यहाँ उषा अर्थात् सुबह को एक नायिका के समान चित्रित किया है, जो तारा रूपी घड़ों को अंबर रूपी पनघट में डुबो रही है।)
12. लो यह लतिका भी भर लाई,
मधु मुकुल नवल रस गागरी।
( इस पंक्ति द्वारा कवि ने प्रकृति का मानवीकरण किया है, लता में खिली हुई कलियाँ नव मधु रस से भरी गागर जैसी प्रतीत हो रही हैं।)
13. यह विडंबना! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं।
(आत्मकथा लिखकर कवि अपने स्वभाव की सरलता का मज़ाक नहीं बनाना चाहता है। यहाँ भावों का मानवीकरण किया गया है।)
14. अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।
(कवि आत्मकथा लिखने से बचने के लिए एक अन्य तर्क देते हुए कहता है कि वैसे भी अभी आत्मकथा लिखने का सही समय नहीं है क्योंकि उसके मन का दुख अभी थक कर मन के ही एक कोने में शांत पड़ा सो रहा है। यहाँ भी दुख का मानवीकरण किया गया है।)
15. और सरसों की न पूछो-
हो गई सबसे सयानी,
हाथ पीले कर लिए हैं
व्याह-मंडप में पधारी
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे।
देखता हूँ मैं स्वयंवर हो रहा है,
प्रकृति का अनुराग अंचल हिल रहा है।
(इन पंक्तियों में सरसों के सौंदर्य के बारे में कवि कहता है कि वह अब सयानी युवती हो गई है। ब्याह के मंडप में जाने को आतुर उसने हाथों को पीला कर रखा है। ऐसे में लगता है कि फाग गाता हुआ फागुन भी आ पहुँचा है। यह सब देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी का स्वयंवर हो रहा है। इस शांतिपूर्ण क्षेत्र में प्रकृति का प्रेमपूर्ण आँचल हिल रहा है। यहाँ प्रकृति का एक-एक अंग प्यार से सराबोर दिख रहा है, अतः प्रकृति का मानवीकरण किया गया है।)
16. एक बीते के बराबर
यह हरा ठिगना चना
बाँधे मुरैठा शीश पर।
छोटे गुलाबी फूल का,
सजकर खड़ा है।
(यहाँ कवि ने प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन करते हुए उसका मानवीकरण किया है। वह कहता है कि एक बिते की लंबाई का ठिगना - सा चने का पौधा सज-धजकर खड़ा है। उसने अपने सिर पर साफ़ा बाँध रखा है। मानो वह शादी में जाने को तैयार खड़ा है क्योंकि वह सिर पर गुलाबी फूल सजाए खड़ा है।)
17. धीरे - धीरे उतर क्षितिज से आ बसंत - रजनी।
( यहाँ वसंत ऋतु की रात का वर्णन किया है। कवयित्री महादेवी वर्मा जी ने वसंत ऋतु का मानवीयकरण करते हुए उसका चित्रण प्रकृति रूपी प्रेमिका से किया है।)
18. तिनकों के हरे हरे तन पर
हिल हरित रुधिर है रहा झलक।
( यहाँ कवि ने तिनकों का मानवीकरण किया है। तिनकों पर ठहरी हुई ओस की बूँदे, जो पारदर्शी (transparent) होने के कारण हरे रंग की दिख रही हैं, जब तिनके हिलते हैं तो ऐसा लगता है कि उन तिनकों पर हरे रंग की ओस की बूँदे न होकर उनका रक्त (खून) है। हवा चलने पर वह रक्त तिनकों से गिर रहा है।)
19. रोमांचित सी लगती वसुधा,
आई जौ गेहूँ में बाली।
(कवि ने गाँव की सुंदरता का वर्णन करते हुए लिखा है कि खेतों में जौ और गेहूँ की फ़सल में बीज आ गए हैं अर्थात् जौ और गेहूँ की फ़सल पक गई है जिसके कारण धरती बहुत अधिक प्रसन्न लग रही है।)
20. रंग रंग के फूलों में रिलमिल
हँस रही सखियाँ मटर खड़ी,
मखमली पेटियों सी लटकीं
छीमियाँ, छिपाए बीज लड़ी!
फिरती है रंग रंग की तितली
रंग रंग के फूलों पर सुंदर,
फूले फिरते हों फूल स्वयं
उड़ उड़ वृंतों से वृंतों पर!
(यहाँ गाँव की सुंदरता का वर्णन करते हुए प्राकृतिक उपादानों का मानवीकरण किया गया है।)
21. हँसमुख हरियाली हिम-आतप
सुख से अलसाए-से सोये,
भीगी अँधियाली में निशि
तारक स्वप्नों में-से खोए
मरकत डिब्बे सा खुला ग्राम
जिस पर नीलम नभ आच्छादन
निरुपम हिमांत में स्निग्ध शांत
निज शोभा से हरता जन मन!
(इन पंक्तियों में मानवीकरण अलंकार के माध्यम से कवि ने प्रकृति का सजीव चित्र खींचा है।)
22. मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।
आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली,
दरवाज़े-खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली,
पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के।
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।
पेड़ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाए,
आँधी चली, धूल भागी घाघरा उठाए,
बाँकी चितवन उठा, नदी ठिठकी, घूँघट सरके। मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।
बूढ़े पीपल ने आगे बढ़कर जुहार की,
'बरस बाद सुधि लीन्हीं' -
बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की, हरसाया ताल लाया पानी परात भर के।
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।
क्षितिज अटारी गहराई दामिनि दमकी,
'क्षमा करो गाँठ खुल गई अब भरम की'
बाँध टूटा झर-झर मिलन के अश्रु ढरके।
मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।
(पूरी कविता में मानवीकरण अलंकार का सौंदर्य चमत्कार उत्पन्न कर रहा है। कवि ने मेघों के आने की तुलना प्रवासी अतिथि (दामाद) से की है। ग्रामीण संस्कृति में दामाद के आने पर उल्लास का जो वातावरण बनता है, उसे कवि ने मेघों के आने और प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों के मानवीकरण के माध्यम से चित्रित किया है।)
23. मेखलाकर पर्वत अपार
अपने सहस्त्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार।
(कवि ने प्रकृति का मानवीकरण करके, प्रकृति को मानव के समान क्रियाएँ करते हुए दिखाया है। पहाड़ों पर लगे हज़ारों पुष्प ऐसे प्रतीत हो रहे हैं मानो वे पहाड़ों की हज़ारों आँखें हैं। अपनी इन आँखों को आश्चर्य से बड़ा करके पहाड़, अपने तल में बने तालाब के साफ़ और पारदर्शी जल रूपी दर्पण में अपना विशाल (बड़ा - सा) प्रतिबिंब देकर गर्वित हो रहे हैं।)
24. गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में नस-नस उत्तेजित कर
मोती की लडि़यों सी सुन्दर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!
गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्चाकांक्षाओं से तरुवर
है झॉंक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंता पर।
(इन पंक्तियों में कवि ने मानवीकरण द्वारा पर्वत प्रदेश का चित्रण किया है। कवि कहता है कि पर्वतों से गिरने वाले झरनों की झर - झर आवाज़ ऐसी प्रतीत हो रही है मानो वे पर्वतों के यश का गुणगान कर रहे हों। । पर्वतों पर स्थित ऊँचे - ऊँचे वृक्ष शांत आकाश की ओर देखते हुए स्थिर (बिना हिले डुले) खड़े हुए ऐसे प्रतीत हो रहे हैं मानो वह किसी चिंता में डूबे हुए हों। आकाश की ओर एक टक देखते ये वृक्ष, मानव मन में उठने वाली ऊँची - ऊँची आकांक्षाओं के समान हैं जो शांत भाव से एक टक अपने लक्ष्य की ओर देखते हुए ऊँचे उठने की प्रेरणा देते हुए प्रतीत हो रहे हैं।)
25. उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार वारिद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!
धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुऑं, जल गया ताल!
-यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल
(इन पंक्तियों में कवि ने वर्षा ऋतु के कारण पर्वतीय क्षेत्र में हो रहे अद्भुत एवं सुंदर परिवर्तनों का मानवीकरण अलंकार के माध्यम से सजीव चित्र खींचा है।)
26. कहीं साँस लेते हो,
घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो।
( इन पंक्तियों में कवि ने फागुन के महीने को एक सजीव प्राणी मानते हुए कल्पना की है कि उसके साँस लेने से हर घर सुगंध से भर उठता है।)
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