NCERT Study Material for Class 10 Hindi Kshitij Chapter 8 'Balgobin Bhagat' Important / key points which covers whole chapter / Quick revision notes, Textbook Question-Answers and Extra Questions /Important Questions with Answers
हमारे ब्लॉग में आपको NCERT पाठ्यक्रम के अंतर्गत कक्षा 10 (Course A) की हिंदी पुस्तक 'क्षितिज' के पाठ पर आधारित सामग्री प्राप्त होगी जो पाठ की विषय-वस्तु को समझने में आपकी सहायता करेगी। इसे समझने के उपरांत आप पाठ से संबंधित किसी भी प्रश्न का उत्तर सरलता से दे सकेंगे।
यहाँ NCERT HINDI Class 10 के पाठ - 8 'बालगोबिन भगत' के मुख्य बिंदु (Important / Key points) दिए जा रहे हैं। साथ ही आपकी सहायता के लिए पाठ्यपुस्तक में दिए गए प्रश्नों के सटीक उत्तर (Textbook Question-Answers) एवं अतिरिक्त प्रश्नों के उत्तर (Extra Questions /Important Questions with Answers) सरल एवं भाषा में दिए गए हैं। आशा है यह सामग्री आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
NCERT Hindi Class 10 (Course - A) Kshitij (Bhag - 2) Chapter - 8 'Balgobin Bhagat' (बालगोबिन भगत)
Important / Key points -
बालगोबिन भगत एक रेखाचित्र है जिसके रचयिता रामवृक्ष बेनीपुरी जी हैं।
लेखक के अनुसार बालगोबिन भगत गृहस्थ होते हुए भी साधु के समान थे - बालगोबिन भगत का व्यक्तित्व एवं उनकी चारित्रिक विशेषताएँ -
बालगोबिन भगत रेखाचित्र के माध्यम से लेखक ने एक ऐसे अनोखे चरित्र को हमारे सामने प्रस्तुत किया है जो मनुष्यता, लोक संस्कृति और सामूहिक चेतना (विशेष स्थान के समूह या समाज के लोगों की मान्यताओं, मूल्यों और जागरूकता) का प्रतीक है। लेखक के अनुसार पहनावे और पूजा-पाठ से संबंधित कार्य करने से ही कोई संन्यासी नहीं होता, संन्यास का आधार मानवीय सरोकार अर्थात् लोगों के साथ व्यक्ति का व्यवहार है। बालगोबिन भगत इसी आधार पर लेखक को संन्यासी लगते हैं। पाठ में बालगोबिन भगत के माध्यम से सामाजिक रूढ़ियों (परंपराओं) को तोड़ने का भी प्रयास किया गया है। साथ ही ग्रामीण जीवन की सजीव झाँकी भी इस पाठ में देखने को मिलती है।
लेखक ने पाठ के आरंभ में ही बालगोबिन भगत का परिचय विस्तार से दिया है। बालगोबिन भगत मँझोले कद के गोरे रंग के आदमी थे। उनकी उम्र साठ वर्ष से ऊपर थी। उनके बाल पक गए थे अर्थात् सफ़ेद थे। वे लंबी दाढ़ी नहीं रखते थे और कपड़े बिल्कुल कम पहनते थे। कमर में लंगोटी पहनते और सिर पर कबीरपंथियों के जैसी टोपी पहनते थे। सर्दियों में ऊपर से बस एक काला कंबल ओढ़ लेते थे। माथे पर रामानंदी चंदन का टीका और गले में तुलसी की जड़ों की बेडौल माला पहनते थे। उनका एक बेटा और एक पुत्रवधू थे। वे गृहस्थ होते हुए भी सही मायनों में साधु थे। इसका अर्थ है कि वे गृहस्थ धर्म की अपनी सभी ज़िम्मेदारियों को पूरी तरह से निभाते थे परंतु अपने व्यवहार (आचरण) से वे साधु के समान शांत और संतुष्ट रहने वाले व्यक्ति थे।
बालगोबिन भगत जी कबीर को अपना साहब मानते थे। उन्हीं के आदर्शों पर चलते थे। वे न तो किसी की कोई वस्तु बिना पूछे लेते थे न ही किसी से झगड़ा करते थे। उनके पास खेती बाड़ी थी और एक साफ़ - सुथरा मकान था। उनके खेत में जो कुछ भी पैदा होता उसे अपने भेंट के रूप में अपने सिर पर रखकर पहले कबीरपंथी मठ में ले जाते और जो प्रसाद रूप में मिलता केवल उसी से गुज़ारा चलाते थे।
बालगोबिन भगत के गायन में जादू था -
वे कबीर जी के पदों का बहुत मधुर आवाज़ में गायन करते थे। उनके गायन से कबीर के सीधे-सादे पद, सजीव (प्रभाव उत्पन्न करने वाले) बन जाते थे। आषाढ़ के दिनों में जब सारा गाँव खेतों में काम कर रहा होता तब बालगोबिन भगत भी खेतों में रोपनी (धान की रोपाई) करते - करते मधुर गीत गाया करते। सारे गाँववासी उनके गीतों को सुनकर उनका आनंद लेते हुए उसमें खो जाते थे। उनके संगीत का जादू मेंड़ पर खड़ी औरतों, हल चला रहे आदमियों और खेलते बच्चों, सभी को मोहित कर देता था।
भादों की अँधेरी रात में, तेज़ बारिश के बाद जब सब सो जाते तो उनकी खँजड़ी बजती थी। झिंगुर और मेंढक के शोर में भी उनका संगीत सुनाई देता था। जब सारा संसार सोया होता तब भी बालगोबिन भगत का संगीत जागा करता था।
कार्तिक मास में उनकी प्रभातियाँ शुरू हो जाती थीं जो फागुन तक चला करतीं। वे सुबह सवेरे उठते और गाँव से दो मील दूर नदी स्नान करने के लिए जाते और लौटकर पोखरे (छोटा तालाब) के ऊँचे भिंडे (मिट्टी से बना चबूतरे जैसा ऊँचा स्थान) पर अपनी खँजड़ी लेकर बैठ जाते और अपना गान शुरु कर देते थे। उनके मनमोहक गान के कारण कार्तिक मास की दाँत किटकिटाने वाली सुबह के समय लेखक उनके इस स्थान पर पहुँच गया। उस समय आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे और ठंडी हवा चल रही थी। चारों तरफ़ कोहरा छाया हुआ था। इतनी सर्दी में भी वे कुश (तिनकों) की चटाई पर बैठे थे। उन्होंने एक कंबल ओढ़ रखा था। मुँह से लगातार भजन गाते हुए वे खँजड़ी बजा रहे थे। गाते-गाते वे मस्ती में खो गए कि उनका कंबल बार-बार नीचे सरक रहा था। उस समय लेखक ठंड से कँपकँपा रहा था और उत्तेजना के कारण बालगोबिन के माथे पर पसीने की बूँदें चमक रही थी। वे प्रभु की भक्ति में लीन थे।
गर्मियों में भी वे घर के आँगन में ही आसन जमाकर 'संझा' गीत गाया करते। गाँव के कुछ और भक्तों की मंडली - सी बन जाती। सभी खँजड़ियाँ और करताल बजाकर बालगोबिन भगत के पदों को उनके पीछे दोहराते हुए मग्न हो जाते। भक्ति के रस में डूबे बालगोबिन नाचने लगते। सारा आँगन नृत्य और संगीत के आनंद से भर जाता था।
बालगोबिन की संगीत - साधना का चरमोत्कर्ष -
उनकी संगीत - साधना का चरमोत्कर्ष तब देखा गया जब उनके एकलौते पुत्र की मृत्यु हुई। तब भी वे उसकी मृतशैया को चटाई पर लिटाकर उस पर फूल फैलाकर स्वयं गीत गाने में लग गए। वे अपनी पुत्रवधू को इस दुख के अवसर पर रोने से मना कर रहे थे। उन्होंने अपनी पुत्रवधू से कहा कि यह उत्सव मनाने का अवसर है। विरहिणी आत्मा अब परमात्मा से जा मिली। तो दुख क्यों मनाना। उन्होंने बेटे की चिता को भी अग्नि अपनी पुत्रवधू से ही दिलवाई थी। जैसे ही श्राद्ध की अवधि पूरी हुई उन्होंने बहू के भाई को बुलाकर बहू का पुनर्विवाह कराने का आदेश देकर उसे विदा कर दिया। वह जाना नहीं चाहती थी। वहीं रहकर उनकी सेवा करना चाहती थी। परंतु बालगोबिन के आगे उसकी एक न चली उन्होंने दलील दी कि अगर वह नहीं गई तो वे स्वयं घर से चले जाएँगे।
बालगोबिन भगत का अंतिम समय (मृत्यु) -
बालगोबिन भगत की मृत्यु भी उनकी इच्छा के अनुरूप ही हुई। वे हर वर्ष गंगा - स्नान के लिए जाते थे। गंगा तीस कोस दूर पड़ती थी फिर भी वे पैदल ही जाते। आने - जाने में उन्हें चार-पाँच दिन लग जाते थे। वे न तो किसे से किसी प्रकार की सहायता लेते थे और गृहस्थ होने के कारण न ही किसी से भोजन की भिक्षा लेते थे। घर से खाकर ही निकलते और घर वापस आकर ही खाते। बाकी दिन उपवास पर रहते। रास्ते भर खँजड़ी बजाते और भजन गाते। जहाँ प्यास लगती, पानी पी लेते। लेकिन अब उनका शरीर बूढ़ा हो गया था। इस बार लौटे तो तबियत खराब थी किंतु उन्होंने नेम-व्रत न छोड़ा। वही पुरानी दिनचर्या के अनुसार चलते। उसी प्रकार दोनों समय गीत - गायन, स्नान - ध्यान, खेतीबाड़ी करते रहे। लोगों ने आराम करने को कहा लेकिन उन्होंने हँसकर टाल दिया। एक दिन जब उन्होंने संध्या के समय गीत गाया तो स्वर काँप रहे थे। अगले दिन गीत न गा सके। सुबह जब लोगों ने जाकर देखा तो वे अपना शरीर त्याग चुके थे।
पाठ्यपुस्तक में दिए गए प्रश्नों के उत्तर
(Textbook Question-Answers)
प्रश्न - अभ्यास
1. खेतीबारी से जुड़े गृहस्थ बालगोबिन भगत अपनी किन चारित्रिक विशेषताओं के कारण साधु कहलाते थे ?
उत्तर- बालगोबिन भगत एक गृहस्थ थे परंतु उनका आचरण साधुओं के समान था -
(i) वे कबीर जी के आदर्शों पर चलते थे उन्हीं को अपना गुरु मानते थे। उन्हीं के नीति - विषयक गीत भी गया करते थे।
(ii) वे कभी झूठ नहीं बोलते थे। सबके साथ खरा व्यवहार करते थे। सीधी और स्पष्ट बात किया करते थे।
(iii) किसी से झगड़ा नहीं करते थे।
(iv) किसी की चीज़ को बिना पूछे प्रयोग में नहीं लाते थे।
(v) उनके खेत में जो कुछ भी पैदा होता, उसे वे पहले कबीरपंथी मठ में ले जाते और वहाँ से जो कुछ भी मिलता उसे ही प्रसाद रूप में घर लाकर अपने परिवार का गुज़ारा करते।
(vi) वे संतुष्ट भाव से रहते थे। उनके मन में न तो किसी प्रकार का लालच था न ही छल - कपट।
इस प्रकार वे गृहस्थ होकर भी साधु की तरह रहते थे।
2. भगत की पुत्रवधू उन्हें अकेले क्यों नहीं छोड़ना चाहती थी ?
उत्तर- भगत की पुत्रवधू बहुत ही सुशील और संस्कारी थी इसलिए वह उन्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहती थी। वह जानती थी कि उसके जाने के बाद भगत बिल्कुल अकेले रह जाएँगे। बुढ़ापे में वह उनके लिए एकमात्र सहारा थी। उसके जाने के बाद भोजन आदि की व्यवस्था करने वाला कोई नहीं था। बीमार होने की अवस्था में कोई देखभाल करने वाला नहीं था। वह कर्त्तव्यनिष्ठ थी और उसके मन में सेवाभाव था इसलिए वह बालगोबिन के साथ ही रहकर निस्वार्थ भाव से उनकी सेवा करना चाहती थी।
3. भगत ने अपने बेटे की मृत्यु पर अपनी भावनाएँ किस प्रकार व्यक्त की ?
उत्तर- पुत्र की मृत्यु पर भगत ने उसके मृत शरीर को एक चटाई पर लिटा दिया और उसे एक सफ़ेद चादर से ढक दिया। अपने बगीचे से फूल और तुलसीदल लाकर उस पर डाल दिए। उन्होंने अपने बेटे के मृत शरीर के पास बैठकर औरों की तरह शोक नहीं मनाया। वे बड़ी तल्लीनता से कबीर जी के गीत गाकर अपनी भावनाएँ व्यक्त करने लगे। भगत ने अपनी पुत्रवधू को भी रोने को मना किया और उत्सव मनाने को कहा। उन्होंने कहा कि परमात्मा के विरह में जो आत्मा यहाँ थी अब वह परमात्मा के पास चली गई है। आज दोनों का मिलन हो गया है तो रोना उचित नहीं । इससे बढ़कर कोई आनंद नहीं । उस समय भगत ने शरीर की नश्वरता और आत्मा की अमरता का भाव व्यक्त किया।
4. भगत के व्यक्तित्व और उनकी वेशभूषा का अपने शब्दों में शब्दचित्र प्रस्तुत कीजिए ?
उत्तर- बालगोबिन भगत मँझोले कद के गोरे रंग के आदमी थे। उनकी उम्र साठ वर्ष से ऊपर थी। उनके बाल पक गए थे अर्थात् सफ़ेद थे। वे लंबी दाढ़ी नहीं रखते थे और कपड़े बिल्कुल कम पहनते थे। कमर में लंगोटी पहनते और सिर पर कबीरपंथियों के जैसी टोपी पहनते थे। सर्दियों में ऊपर से बस एक काला कंबल ओढ़ लेते थे। माथे पर रामानंदी चंदन का टीका और गले में तुलसी की जड़ों की बेडौल माला पहनते थे। उनका एक बेटा और एक पुत्रवधू थे। वे गृहस्थ होते हुए भी सही मायनों में साधु थे। इसका अर्थ है कि वे गृहस्थ धर्म की अपनी सभी ज़िम्मेदारियों को पूरी तरह से निभाते थे परंतु अपने व्यवहार (आचरण) से वे साधु के समान शांत और संतुष्ट रहने वाले व्यक्ति थे।
प्रश्न 5- बालगोबिन भगत की दिनचर्या लोगों के अचरज का कारण क्यों थी ?
उत्तर- बालगोबिन भगत की दिनचर्या लोगों के अचरज (हैरानी) का कारण इसलिए बन गई थी क्योंकि वे अपने जीवन के लिए बनाए नियमों का सख्ती से पालन किया करते थे। जीवन के आदर्शों और सिद्धान्तों को भी सख्ती से अपने आचरण में उतारते थे। चाहे गर्मी हो या सर्दी अपनी दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं करते थे। वृद्ध होने पर भी उनके जोश और उत्साह में कोई परिवर्तन या कमी नहीं थी। वे सर्दी के मौसम (कार्तिक) में भी भोर होते ही उठते और गाँव से दो मील दूर जाकर नदी में स्नान करते थे। फिर पूरा दिन गीत गाते - गाते खेती करते। चाहे कैसा भी मौसम हो उनकी दिनचर्या में कभी कोई परिवर्तन नहीं आता था। वे वृद्ध होने पर भी पूरी निष्ठा (दृढ़ता) से अपने नियम का पालन करते। उनकी यही बात लोगों को अचरज में डाल देती थी।
6. पाठ के आधार पर बालगोबिन भगत के मधुर गायन की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर- बालगोबिन भगत कबीरदास जी के पदों का बहुत मधुर आवाज़ में गायन करते थे। उनके गायन से कबीर के सीधे-सादे पद, सजीव (प्रभाव उत्पन्न करने वाले) बन जाते थे। आषाढ़ के दिनों में जब सारा गाँव खेतों में काम कर रहा होता तब बालगोबिन भगत भी खेतों में रोपनी (धान की रोपाई) करते - करते मधुर गीत गाया करते। सारे गाँववासी उनके गीतों को सुनकर उनका आनंद लेते हुए उसमें खो जाते थे। सारा वातावरण संगीतमय हो जाता। औरतें गीत गुनगुनाने लगतीं। उनके हाथ और पाँव गीत की धुन पर थिरकने और जल्दी जल्दी काम करने लगते। उनके संगीत का जादू मेंड़ पर खड़ी औरतों, हल चला रहे आदमियों और खेलते बच्चों, सभी को मोहित कर देता था।
7. कुछ मार्मिक प्रसंगों के आधार पर यह दिखाई देता है कि बालगोबिन भगत प्रचलित समाजिक मान्यताओं को नहीं मानते थे। पाठ के आधार पर उन प्रसंगों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- पाठ में कुछ ऐसे मार्मिक प्रसंग हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि बालगोबिन भगत उस समय में प्रचलित अनेक सामाजिक मान्यताओं को नहीं मानते थे -
(i) जब बालगोबिन भगत के पुत्र की मृत्यु हुई तो उन्होंने अपनी पुत्रवधू को रोने और दुख मनाने के लिए मना किया। वे मानते थे कि मृत्यु होना दुख का नहीं उत्सव मनाने का विषय है क्योंकि इससे आत्मा का परमात्मा से मिलन हो जाता है। वे स्वयं भी उस समय गीत गा रहे थे, उत्सव मना रहे थे। बिना किसी कर्मकांड के उन्होंने साधारण रीति से पूरा संस्कार किया।
(ii) हिंदू धर्म में यह परंपरा है कि मृतक को केवल पुरुष ही अग्नि देते हैं अर्थात् मृत शरीर को स्त्रियाँ नहीं जला सकतीं। परंतु भगत जी ने अपनी पुत्रवधू से अग्नि दिलवाई जो हमारी मान्यताओं के विरुद्ध है।
(iii) उस समय विधवा विवाह को मान्यता नहीं थी परंतु उन्होंने अपनी पुत्रवधू को उसके भाई के साथ वापस घर भेज दिया और उसका पुनर्विवाह कराने का आदेश दिया।
(iv) भगत जी का रहन - सहन, सोच - विचार साधुओं की तरह था परंतु तब भी वे भीख माँगकर खाने के विरोधी थे।
8. धान की रोपाई के समय समूचे माहौल को भगत की स्वर लहरियाँ किस तरह चमत्कृत कर देती थीं? उस माहौल का शब्द चित्र प्रस्तुत कीजिए ।
उत्तर-आषाढ़ की रिमझिम फुहारों के बीच में धान की रोपाई चल रही थी। बादल से घिरे आसमान में, ठंडी हवाओं के चलने के समय अचानक खेतों में से किसी के मीठे स्वर गाते हुए सुनाई देते हैं। बालगोबिन भगत के कंठ से निकल मधुर संगीत वहाँ खेतों में काम कर रहे लोगों के मन में झंकार उत्पन्न करने लगता है। स्वर के आरोह के साथ एक-एक शब्द ऐसा लगता मानो स्वर्ग की ओर जा रहा हो। उनकी मधुर वाणी को सुनते ही लोग झूमने लगते। औरतें स्वयं को रोक नहीं पातीं और साथ-साथ गुनगुनाने लगीं। हलवाहों के पैर गीत की ताल के साथ तेज़ चलने लगते। रोपाई करने वालों की उँगलियाँ गीत के अनुरूप एक विशेष क्रम से चलने लगीं। बालगोबिन भगत के संगीत का जादू सारे वातावरण को संगीतमय कर देता है।
रचना और अभिव्यक्ति
9. पाठ के आधार पर बताएँ कि बालगोबिन भगत की कबीर पर श्रद्धा किन-किन रूपों में प्रकट हुई है ?
उत्तर- बालगोबिन भगत की कबीर पर श्रद्धा निम्न रूपों में प्रकट हुई है -
(i) कबीर गृहस्थ होकर भी सांसारिक मोह-माया से मुक्त थे। बालगोबिन भगत, कबीरदास जी की विचारधारा से पूर्ण रूप से प्रभावित थे। वे कबीरदास जी के समान ही गृहस्थ होने पर भी साधु जैसा जीवन व्यतीत करते थे। भगत जी का पहनावा भी कबीरदास जी के जैसा एकदम सादा था ।
(ii) बालगोबिन भगत अपनी फसल को कबीरमठ में ही सौंप आते थे और वहाँ से जो प्रसाद स्वरूप मिलता उसमें ही अपना गुज़ारा चलाते थे।
(iii) कबीरदास जी आत्मा का परमात्मा से मिलन होना ही जीवन का उद्देश्य मानते थे। इसी प्रकार भगत भी बेटे की मृत्यु के पश्चात शोक मनाने के स्थान पर उत्सव मनाने की बात करते हैं। उनके अनुसार भी विरहिणी आत्मा का प्रिय परमात्मा से मिलन हो गया था।
(iv) कबीर जी भी सदा अपनी मंडली के साथ गीत गाते-गाते गली - गली घूमते थे। भजन गाते थे। इसी प्रकार बालगोबिन भगत भी कबीरदास जी के गीत गाया करते थे।
(v) कबीरदास जी ने समाज की रूढ़िवादी सोच, सामाजिक मान्यताओं का विरोध किया उसी प्रकार बालगोबिन भगत ने भी सामाजिक मान्यताओं का पालन नहीं किया।
10. आपकी दृष्टि में भगत की कबीर पर अगाध श्रद्धा के क्या कारण रहे होंगे ?
उत्तर- भगत की कबीर पर अगाध श्रद्धा के निम्नलिखित कारण रहे होंगे-
(i) कबीरदास जी ने भी गृहस्थ जीवन की सारी ज़िम्मेदारियों को पूरा करते हुए, साधुओं के समान जीवन व्यतीत किया।
(ii) व्यर्थ के आडम्बरों और सामाजिक कुरीतियों (बुराइयों) का विरोध करने का उनका शुद्ध स्वभाव।
(iii) ईश्वर के प्रति गहरा विश्वास और भक्ति ।
( iv) लोभ और मोह जैसे विकारों से दूर रहना।
(v) कबीरदास जी के दोहों में नीति और ईश्वरीय ज्ञान की बातें का होना।
11. गाँव का सामाजिक- सांस्कृतिक परिवेश आषाढ़ चढ़ते ही उल्लास से क्यों भर जाता है?
उत्तर- भारत गाँवों का देश है। ग्रामीण परिवेश में लोग अपनी जीविका के लिए मुख्य रूप से कृषि (खेती) पर निर्भर रहते हैं। अच्छी फसल के लिए उचित समय पर पर्याप्त मात्रा में बारिश का होना बहुत आवश्यक है।
आषाढ़ के महीने से बारिश होना शुरू होती है। आषाढ़ आते ही किसान बादलों की राह देखते हैं। बारिश होने पर वे खेतों की जुताई, बुआई, धान की रोपाई जैसे कार्य शुरू कर दिए जाते हैं। हैं। इसी महीने में गरमी की तपन से राहत मिलती है। यह महीना ग्रामीण बच्चों के लिए बड़ा ही आनंददायी होता है। पानी भरे खेतों की कीचड़ में खेलना उन्हें बहुत अच्छा लगता है। इस समय गाँव के सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश का उल्लास देखते ही बनता है।
आषाढ़ की रिमझिम बारिश में भी भगत हमेशा की तरह काम करते - करते धान की रोपाई करते हुए गीत गाते थे। उनके मधुर गायन से सारा वातावरण संगीतमय हो जाता है। स्त्री पुरुष सभी उनके गीतों में खो जाते हैं और उनके साथ - साथ गुनगुनाने लगते हैं। गाँववालों के लिए यह समय उल्लास से भर जाता है।
12. "ऊपर की तस्वीर से यह नहीं माना जाए कि बालगोबिन भगत साधु थे।" क्या साधु की पहचान पहनावे के आधार पर की जानी चाहिए? आप किन आधारों पर सुनिश्चित करेंगे कि अमुक व्यक्ति 'साधु' है?
उत्तर- किसी भी साधु की पहचान उसके पहनावे से नहीं अपितु उसके आचार-व्यवहार से होती है। उसके सोच-विचार और जीवन जीने के तरीके से होती है। यदि व्यक्ति का आचरण सत्य, अहिंसा, त्याग से युक्त है और वह मोह - माया या लालच से दूर है तभी वह साधु है। बालगोबिन के समान ऊँचे विचार और सादगी से भरा जीवन, मनुष्य को भगवा वस्त्र न पहनने पर भी साधु के समान आदरणीय बनाते हैं। उसके मन में केवल ईश्वर के प्रति भक्ति होती है।
13. मोह और प्रेम में अंतर होता है। भगत के जीवन की किस घटना के आधार पर इस कथन का सच सिद्ध करेंगे?
उत्तर- मोह और प्रेम में निश्चित ही अंतर होता है। मोह का अर्थ होता है किसी चीज़ की अपने पास होने की इच्छा ।
इसमें मनुष्य केवल अपना स्वार्थ देखता है या अपने प्रियजनों को अपने साथ रखना चाहता है। भगत को अपने पुत्र से अगाध प्रेम था। परंतु उसकी मृत्यु होने पर भी उन्होंने शोक नहीं मनाया क्योंकि वे जानते हैं कि शरीर तो नश्वर है। जीवन का असली उद्देश्य तो ईश्वर में आत्मा का समा जाना है। इसलिए पुत्र की मृत्यु को उन्होंने उत्सव की तरह मनाया।
उनकी पुत्रवधू उनके साथ उनकी सेवा के लिए रहना चाहती थी परंतु उन्होंने उसे भी घर से भेज दिया जिससे कि उसका भाई उसका पुनर्विवाह करवा सके। इन घटनाओं से बालगोबिन भगत का अपने बच्चों के प्रति प्रेम प्रकट होता है। भगत ने भी सच्चे प्रेम का परिचय देकर अपने पुत्र और पुत्रवधू की खुशी को ही उचित माना।
अतिरिक्त प्रश्नों के उत्तर
(Extra Questions /Important Questions with Answers) -
1. प्रभातियाँ किस महीने में शुरू हुआ करती थीं? लेखक ने किस प्रकार बालगोबिन भगत की प्रभाती का वर्णन किया है?
उत्तर - प्रभाती सुबह के समय गाए जाने वाले गीतों को कहते हैं। कार्तिक मास में उनकी प्रभातियाँ शुरू हो जाती थीं जो फागुन तक चला करतीं। वे सुबह सवेरे उठते और गाँव से दो मील दूर नदी स्नान करने के लिए जाते और लौटकर पोखरे (छोटा तालाब) के मिट्टी से बने ऊँचे चबूतरे पर अपनी खँजड़ी लेकर बैठ जाते और अपना गान शुरु कर देते थे। उनके मनमोहक गान के कारण कार्तिक मास की दाँत किटकिटाने वाली सुबह के समय लेखक उनके इस स्थान पर पहुँच गया। उस समय आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे और ठंडी हवा चल रही थी। चारों तरफ़ कोहरा छाया हुआ था। इतनी सर्दी में भी वे कुश (तिनकों) की चटाई पर बैठे थे। उन्होंने एक कंबल ओढ़ रखा था। मुँह से लगातार भजन गाते हुए वे खँजड़ी बजा रहे थे। गाते-गाते वे मस्ती में खो गए कि उनका कंबल बार-बार नीचे सरक रहा था। उस समय लेखक ठंड से कँपकँपा रहा था और उत्तेजना के कारण बालगोबिन के माथे पर पसीने की बूँदें चमक रही थी। वे प्रभु की भक्ति में लीन थे।
2. गर्मियों के दिनों में बालगोबिन के घर के आँगन में गाई जाने वाली 'संझा' का वर्णन कीजिए।
उत्तर - गर्मियों की उमस भरी शाम में बालगोबिन घर के आँगन में ही आसन जमाकर 'संझा' गीत गाया करते। गाँव के कुछ और भक्तों की मंडली - सी बन जाती। सभी खँजड़ियाँ और करताल बजाकर बालगोबिन भगत के पदों को उनके पीछे दोहराते हुए मग्न हो जाते। भक्ति के रस में डूबे बालगोबिन नाचने लगते। सारा आँगन नृत्य और संगीत के आनंद से भर जाता था।
3. बालगोबिन भगत के बेटे के विषय में बताएँ। वे उसके साथ कैसा व्यवहार करते थे?
उत्तर - बालगोबिन भगत का एक ही बेटा था। वह कुछ सुस्त और बोदा अर्थात् कम समझ वाला था। बालगोबिन भगत उसका बहुत ध्यान रखते थे। उनका मानना था कि ऐसे आदमियों का ध्यान रखना चाहिए और इन्हें प्यार करना चाहिए क्योंकि ये निगरानी (ध्यान) और प्यार के ज़्यादा हकदार होते हैं। उन्होंने बड़ी कामना से उसकी शादी कराई।
4. 'बालगोबिन भगत अपनी पतोहू (पुत्रवधू) के संबंध में बहुत सौभाग्यशाली थे।' स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - बालगोबिन की पुत्रवधू बहुत सुभग और सुशील थी। उसने ब्याह कर आते ही घर की सारी ज़िम्मेदारी उठा ली और भगत को दुनियादारी से काफ़ी हद तक मुक्त कर दिया। उसने अपने बीमार पति की सेवा की। पति की मृत्यु के बाद, जब भगत उसे उसके भाई के साथ भेजकर उसका दूसरा विवाह करवाना चाहते हैं तब भी अपने कर्त्तव्यों को ध्यान में रखते हुए वह जाने से मना कर देती है। वहीं रहकर भगत की सेवा करना चाहती थी। उसे वृद्ध भगत के भोजन और बीमारी आदि की चिंता थी। परंतु बालगोबिन के आगे उसकी एक न चली उन्होंने दलील दी कि अगर वह नहीं गई तो वे स्वयं घर से चले जाएँगे। भगत की आज्ञा को मानने के अतिरिक्त उसके पास कोई विकल्प नहीं बचता। इसलिए यह सत्य है कि बालगोबिन भगत अपनी पतोहू (पुत्रवधू) के संबंध में बहुत सौभाग्यशाली थे।