NCERT Study Material for Class 10 Hindi Kshitij Chapter 11 'Naubatkhane Mein Ibadat' Important / key points which covers whole chapter / Quick revision notes, Textbook Question-Answers and Extra Questions /Important Questions with Answers
हमारे ब्लॉग में आपको NCERT पाठ्यक्रम के अंतर्गत कक्षा 10 (Course A) की हिंदी पुस्तक 'क्षितिज' के पाठ पर आधारित सामग्री प्राप्त होगी जो पाठ की विषय-वस्तु को समझने में आपकी सहायता करेगी। इसे समझने के उपरांत आप पाठ से संबंधित किसी भी प्रश्न का उत्तर सरलता से दे सकेंगे।
यहाँ NCERT HINDI Class 10 के पाठ - 11 'नौबतखाने में इबादत' के मुख्य बिंदु (Important / Key points) दिए जा रहे हैं। साथ ही आपकी सहायता के लिए पाठ्यपुस्तक में दिए गए प्रश्नों के सटीक उत्तर (Textbook Question-Answers) एवं अतिरिक्त प्रश्नों के उत्तर (Extra Questions /Important Questions with Answers) सरल एवं भाषा में दिए गए हैं। आशा है यह सामग्री आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
NCERT Hindi Class 10 (Course - A) Kshitij (Bhag - 2) Chapter - 11 Naubatkhane Mein Ibadat (नौबतखाने में इबादत)
Important / Key points -
नौबतखाने में इबादत
~ नौबतखाने में इबादत पाठ में लेखक यतींद्र मिश्र ने भारत रत्न से सम्मानित प्रसिद्ध शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का व्यक्ति चित्र प्रस्तुत किया है। लेखक ने पाठ में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के जीवन के अनेक प्रसंगों और घटनाओं के साथ-साथ उनके जीवन से जुड़े तथ्यों का भी वर्णन किया है।
~ पाठ में दी गई सामग्री (content) द्वारा उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ का परिचय -
1. अमीरुद्दीन अर्थात् बिस्मिल्लाह खान का जन्म सन 1916 में बिहार के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ।
2. उनके बड़े भाई का नाम शम्सुद्दीन था। वे उम्र में इनसे 3 साल बड़े थे।
3. इनके परदादा उस्ताद हुसैन खाँ डुमराँव में रहते थे।
4. इनके पिता का नाम उस्ताद पैगंबर बख्श खाँ और माता का नाम मिट्ठन है।
5. 6 साल की उम्र में अमीरुद्दीन अपने ननिहाल (नानी के घर) काशी में आ गए थे।
6. काशी में उनके दोनों मामा सादिक हुसैन और अलीबख्श, देश के जाने-माने शहनाई वादक थे। वे रोज़ बालाजी के मंदिर की ड्योढ़ी पर शहनाई बजाकर अपने दिन की शुरुआत करते थे। साथ ही अनेक रियासतों के दरबार में शहनाई बजाने जाते थे।
7. अमीरुद्दीन के मामा कभी मुल्तानी, कभी कल्याण तो कभी भैरव, बदल - बदल कर राग बजाते थे। 6 साल की उम्र तक अमीरुद्दीन को संगीत की कुछ भी समझ नहीं थी।
8. ये उनके मामा का खानदानी पेशा (पैसा कमाने का कार्य) था। बिस्मिल्लाह खान के नाना जी भी बालाजी मंदिर की ड्योढ़ी पर शहनाई बजाते थे। 6 साल की उम्र तक अमीरुद्दीन को राग और संगीत का कोई ज्ञान नहीं था। अपने मामा के मुँह से रागों के नाम सुनकर वह उनका मतलब नहीं समझ पाए थे।
उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ के व्यक्तित्व की विशेषताएँ -
1. शहनाई की मंगल ध्वनि के नायक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान -
शहनाई को मंगल ध्वनि करने वाला वाद्य माना जाता है। सभी मांगलिक अवसरों पर शहनाई बजाई जाती है। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने 80 सालों से भी अधिक समय तक शहनाई वादन की अपनी संगीत साधना द्वारा शहनाई की मंगल ध्वनि को भारत में ही नहीं विश्व में भी लोकप्रिय बनाया है। शहनाई वादन के प्रति उनकी लगन और निष्ठा के कारण ही शहनाई वादकों ने उनका नाम सर्वोपरि है। समारोह और अवसरों पर शहनाई की धुन सुनकर लोग बिस्मिल्लाह खान को याद करते हैं। उनके द्वारा बजाई गई शहनाई की जादुई आवाज़ का असर लोगों को प्रभावित करता आया है। उनकी शहनाई में सरगम भरा है। शहनाई बजाते हुए खुदा, गंगा मइया और अपने उस्ताद की नसीहत को ध्यान में रखते हुए उस्ताद बिस्मिल्लाह खान पवित्र भाव से संगीत में डूब जाते हैं। उनकी शहनाई को सुनने वालों को उनकी शहनाई में अजान अर्थात् प्रार्थना के लिए पुकार का असर महसूस होता है। शहनाई वादन के क्षेत्र में उन्होंने अपना एक विशेष स्थान बनाया है। यही कारण है कि बिस्मिल्लाह खान को शहनाई की मंगल ध्वनि का नायक कहा जाता है।
2. कला प्रेमी / कला के उपासक (कला को पूजने वाले) -
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को छोटी उम्र में संगीत का ज्ञान नहीं था लेकिन वे बचपन से ही कला प्रेमी / कला के उपासक (कला को पूजने वाले) थे। निम्नलिखित बिंदुओं से इस बात का पता चलता है-
(i) अमीरुद्दीन जब 4 साल के थे तब छुपाकर अपने नाना जी को शहनाई बजाते हुए सुनते थे। नाना जी के रियाज़ के बाद वे उनकी मीठी बजने वाली शहनाई को पाने के लिए उनकी ढेरों शहनाइयों को बजा - बजाकर देखते थे। लेकिन उन्हें वह मीठी वाली शहनाई न मिलती अर्थात् मधुर सुर न निकलने पर वे सोचते कि 'लगता है मीठी वाली शहनाई नाना कहीं और रखते हैं।'
(ii) उनके मामू और बाद में उनके उस्ताद रहे अली बख्श खाँ जब शहनाई बजाते तो उनकी प्रशंसा में अमीरुद्दीन वाह - वाही करने या फिर हिलाने के स्थान पर पत्थर पटक दिया करते थे।
(iii) उस्ताद बिस्मिल्लाह खान 14 वर्ष की उम्र से बालाजी मंदिर के नौबतखाने पर रियाज़ (अभ्यास) के लिए जाने लगे थे। वहाँ उन्होंने सुर की बारीकियाँ सीखीं। रियाज़ के लिए वे उस रास्ते से जाते जहाँ से गुज़रते समय वे कभी रसूलन बाई और बातूलन बाई की ठुमरी, कभी टप्पे कभी दादर को सुन पाते। रसूलन और बातूलन के गीतों को सुनकर अमीरुद्दीन को खुशी मिलती। उन्होंने अपने अनेक साक्षात्कारों में यह स्वीकार किया है कि इन दोनों गायिका बहनों को सुनकर ही उनके मन में संगीत के प्रति प्रेम जागा। उन्हें संगीत की प्रेरणा इन्हीं से मिली।
(iv) पक्का महाल की कुलसुम हलवाइन जब गर्म देसी घई में कचौड़ी तलती तो 'छन्न' से उठने वाली आवाज़ में उन्हें संगीत के सुरों के आरोह-अवरोह (उतार-चढ़ाव) सुनाई देते थे।
3. सच्चे संगीत साधक -
उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ ने शहनाई वादन को अपनी संगीत साधना के समान समझा। वे खुदा से सच्चे सुर की माँग किया करते थे। पाँच समय की नमाज़ में और लाखों सजदों में वे उसी सुर को पाने की प्रार्थना करते जो लोगों के दिल को छू जाए। वे कला के लिए शहनाई बजाते थे। उन्होंने धन कमाने की इच्छा से कभी शहनाई वादन नहीं किया। जीवन के अंतिम समय तक वे अपने सुरों को निखारने के लिए रियाज़ करते रहे।
4. अपने धर्म के प्रति निष्ठावान -
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान अपने धर्म के प्रति बहुत आदर भाव रखते थे। वे नियम से पाँचों समय की नमाज अदा करते (पढ़ते) थे। शहनाई बजाते समय भी वे खुदा को याद रखते थे, इसलिए लोगों को उनकी शहनाई में अजान का - सा असर महसूस होता था। अपने धर्म के महत्त्वपूर्ण पर्व मुहर्रम से बिस्मिल्लाह खान का बहुत गहरा जुड़ाव (संबंध) था। इस महीने में वे हज़रत इमाम हुसैन और उनके वंशजों के प्रति पूरे 10 दिन का शोक मनाते थे। इन दिनों में उनके खानदान का कोई व्यक्ति न तो शहनाई बजना था न ही किसी संगीत कार्यक्रम में भाग लेता था। महीने की आठवीं तारीख, जो उनके लिए खास महत्त्व की होती है, इस दिन खाँ साहब खड़े होकर शहनाई बजाते थे और दालमंडी की करीब 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित फातमान दरगाह तक पैदल रोते हुए और नौहा बजाते हुए जाते थे। इस दिन वे शहनाई से कोई राग - रागिनियाँ नहीं बजते थे। इस प्रकार बिस्मिल्लाह खाँ और उनके परिवार के लोग अपने धर्म से जुड़ी हज़ार वर्षों से चली आ रही इस परंपरा को पूरी निष्ठा से संपन्न (पूरा) करते थे।
5. संवेदनशील -
मुहर्रम की परंपरा को निभाते हुए का हज़रत इमाम हुसैन और उनके वंशजों के बलिदान को याद करके दुखी होने में एक बड़े कलाकार का मानवता से भरा संवेदनशील रूप सामने आता है। साथ ही काशी - पक्का महल से बहुत सारी परंपराओं के खत्म होने पर भी वे दुखी होते थे।
6. मिली जुली संस्कृति के प्रतीक -
सभी धर्म के लिए प्रेम धर्मनिरपेक्षता एक मुस्लिम होते हुए बिस्मिल्लाह खान के मन में जितनी निष्ठा अपने धर्म के प्रति थी उतनी ही आस्था विश्वास काशी विश्वनाथ और बालाजी मंदिर के लिए भी था। वे दोनों धर्मों का समान रूप से आदर करते थे। अपने नाना और मामा की तरह उन्होंने भी बालाजी मंदिर की ड्योढ़ी के नौबतखाने में शहनाई का रियाज़ किया और उसे खुदा की इबादत (प्रार्थना) समझा। यह उनके धर्मनिरपेक्ष होने का ही प्रमाण है। जिस प्रकार वे मुहर्रम पर नौहा बजाकर और शोक व्यक्त करके मुस्लिम धर्म की परंपरा को निभाते थे उसी प्रकार काशी के संकटमोचन मंदिर में हनुमान जयंती के अवसर पर कई वर्षों से होने वाली संगीत - सभा में अवश्य भाग लेते थे। अपने मजहब के प्रति अत्यंत समर्पित उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ की श्रद्धा काशी विश्वनाथ की प्रति भी अपार थी। वे जब भी काशी से बाहर रहते थे तब विश्वनाथ जी व बालाजी मंदिर की दिशा की ओर मुँह करके बैठते थे। अपने द्वारा बजाई गई शहनाई का पहला कुछ अंश वे विश्वनाथ जी को समर्पित करते थे। हिंदू धर्म की परंपराओं की प्रतीक काशी नगरी को वे छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। वे गंगा को मइया और विश्वनाथ जी को बाबा कहते थे और मरते दम तक काशी में ही रहने की बात करते थे। वे कहते थे कि शहनाई और काशी से बढ़कर कोई जन्नत नहीं इस धरती पर हमारे लिए।
7. विनम्रता -
बिस्मिल्लाह खाँ के व्यक्तित्व में विनम्रता कूट-कूट कर भरी थी। शहनाई की मंगल ध्वनि के नायक बनकर और भारत रत्न होकर भी 80 साल के बिस्मिल्लाह खान यही माना मानते थे कि उन्हें सातों सुरों को बरतने की तमीज सही ढंग से अभी तक नहीं आई है इसलिए वे नमाज़ के बाद सजदे में खुदा से प्रार्थना करते थे कि वे उन्हें एक सच्चा सुर बख्श दें। उनकी जादू - भरी शहनाई को सुनकर जब लोग उनकी प्रशंसा करते हुए कहते - 'सुबहान अल्लाह', तब वे बड़ी विनम्रता से अपनी शहनाई का सारा श्रेय भगवान को देते हुए कहते - 'अलहमदुलिल्लाह' अर्थात् सब ईश्वर की कृपा है। अपनी विनम्रता के कारण ही उन्होंने एक फकीर के कहने पर शहनाई बजाई थी और उन्होंने अपनी शहनाई से संसार को सुरीला बना दिया।
8. सरल और सादगी भरा जीवन जीने वाले -
भारत रत्न से सम्मानित बिस्मिल्लाह खाँ इतनी प्रतिष्ठा प्राप्त करने के बाद भी सरल और सादा जीवन जीते थे। एक दिन जब उनकी एक शिष्या ने उन्हें फटी हुए लुंगी पहनकर लोगों से मिलने के लिए टोका तो उन्होंने उसे समझाते हुए कहा कि उनके जीवन में अच्छे कपड़ों का कोई महत्व नहीं है। भारत रत्न भी उन्हें उनकी शहनाई पर मिला है। उन्होंने अपने जीवन में बनाव- सिंगार के स्थान पर केवल शहनाई के रियाज़ पर ही ध्यान दिया।
9. रसिक और विनोदी -
बिस्मिल्लाह खाँ रसिक स्वभाव के थे। सुकून के क्षणों में वे अपनी जवानी के दिनों को याद करते थे। अपने रियाज़ को कम, उन दिनों के अपने जुनून को अधिक याद करते थे। रसूलन बाई और बतूलन बाई की गायिकी को सुनकर वे बहुत खुश होते थे। बचपन के समय में उन्हें फ़िल्मों का भी बहुत शौक था। फ़िल्म देखने के लिए वे दो पैसे अपने मामू से, दो पैसे अपनी मौसी से और दो पैसे अपनी नानी से लेकर घंटा लाइन में लगकर थर्ड क्लास की 6 पैसे की टिकट खरीद कर फ़िल्म देखा करते थे। जब थोड़े बड़े हुए तो बालाजी मंदिर में शहनाई बजाकर जो कमाई होती थी, उससे फ़िल्म देखा करते थे। सुलोचना और गीताबाली उनकी पसंदीदा अभिनेत्रियाँ थीं। उन्हें याद करके एक बड़ी - सी मुस्कान के साथ उनके गालों पर चमक आ जाती थी। सुलोचना की कोई नई फिल्म वे देखने से नहीं चूकते थे और कुलसुम हलवाइन की देसी घी की कचौड़ियों के भी वे बहुत शौकीन थे। अतः वे रियाज़ी और स्वादी दोनों ही थे।
~ मृत्यु -
80 वर्ष तक संगीत को पूरी तरह से सीखने की ललक को अपने अंदर जिंदा रखते हुए 90 वर्ष की आयु में उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ 21 अगस्त 2006 को इस संसार से विदा हुए।
इस पाठ के प्रश्न - उत्तर एवं अतिरिक्त प्रश्नों के उत्तर शीघ्र ही अपलोड किए जाएँगे।