मेरी कविताएँ (स्वरचित) Meri Kavitayein (Self composed)
निर्मल नदी रुकती नहीं
बना लेती है हर संकरी, पत्थरों से भरी गली में, रास्ता अपना
और बहती चली जाती है
मुस्कराते हुए
फिर न जाने क्यों!
बरसों में कभी
आ जाती है उसमें बाढ़!
शायद नदी का आत्म-सम्मान उसे झकझोरता होगा और अपने अस्तित्व को बचाने के लिए
वह उठाती होगी
यह कठोर कदम
- सोनिया बुद्धिराजा
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माँ
माँ
केवल
एक अक्षर का
यह शब्द
भार उठा लेता है सारा।
विश्व क्या?
इसके आगे तो
ईश्वर भी हारा!
तुम्हारे होने से है
जीवन में
हर पल उजियारा।
पास नहीं होती हो
जब तुम
तब भी
तुम्हारी सीख ने दिया
हर मोड़ पर
मुझे सहारा।
जीवन का हर रिश्ता
खास है
लेकिन
कोई नहीं
माँ तुम-सा प्यारा!
- सोनिया बुद्धिराजा
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प्यारी माँ
चिलचिलाती धूप से भरे जीवन में
पेड़ की शीतल छाया - सी वो
उदास - निराश चेहरे पर भी
अपनी सरल निश्चल बातों से
ला देती है जो मुस्कान
मेरे आने की खबर सुनकर
बनाती है नित - नए पकवान।
मिलूँ या महीनों बीत जाएँ,
फ़ोन पर हाल पूछना नहीं
भूलती है वो
वो, जो ऊपर वाले से,
अपने से पहले,
मेरे लिए
माँगती है, खुशियों का सामान।
नहीं जानती वो कि मेरी
सबसे पहली गुरु है वो
अलग से नहीं दिया उसने
मुझे कभी कोई ज्ञान
बहुत भोली है वो और है धैर्यवान,
मेरी आदर्श है वो ,
उसे देखकर ही थोड़ा बहुत गई मैं सीख
और बहुत कुछ गई मैं जान
रिश्तों को बाँधे रखने की डोरी है वो
हम भाई - बहनों को देती है वो प्यार, एक - समान।
हमारे परिवार की धड़कन है जो,
ईश्वर की अनूठी रचना है वो
कोई फ़रिश्ता नहीं,
वो है मेरी प्यारी माँ।
- सोनिया बुद्धिराजा
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हिंदी भाषा से प्रेम और अपने मन के भावों को शब्दों में पिरोने का शौक कब शुरू हुआ... याद नहीं। यह शायद मेरी पहली कविता है... जिसे मैं कविता कह सकती हूँ - 'मजबूरी'। तब शायद मैं 11वीं या 12वीं कक्षा में थी। आज बरसों बाद, जब इसे पढ़ा... यह उतनी ही अपनी... उतनी ही सच्ची लग रही है...
सृष्टि में व्याप्त समस्त उपादान अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए भी उस परम सत्ता के वशीभूत हैं, जिसे ईश्वर कहते हैं। यूँ तो ईश्वर द्वारा निर्मित इस प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए जीवनयापन, तपस्या के समान है परंतु कभी - कभी यह बन जाता है केवल एक मजबूरी...
मजबूरी
दिन मजबूर है, हर रात के बाद आने को,
रात भी तो मजबूर है, दिन के आगमन से पूर्व जाने को,
सागर मजबूर है, तूफ़ान में हिलोरें खाने को,
पृथ्वी मजबूर है, सूरज के ताप में तप जाने को।
मानव हृदय में मजबूर हैं इच्छाएँ, आने को...
और फिर,
धीरे-धीरे...उसी में विलीन हो जाने को,
मजबूर है इंसा
दुख में अपने को
और खुशी में ईश्वर को भूल जाने को।
सब मजबूर हैं यहाँ,
कुछ - न - कुछ कर जाने को,
और तो और
मेरा ईश्वर भी है मजबूर,
ऐसी दुनिया चलाने को...
इसलिए प्रार्थना है मेरी ईश्वर से
कि यदि प्रलय आए कभी
और वह तत्पर हो पुन :
रचने को सृष्टि नई,
तो वह रखे उसका नाम 'मजबूरी'
~ सोनिया बुद्धिराजा
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ईश्वर की समस्त कृतियों में से सर्वश्रेष्ठ रचना है - मनुष्य। प्रकृति के कण - कण में सद्भावना का संचार है। फिर क्यों, कुछ मनुष्य अभी भी इस सद्भावना से अछूते हैं ?
प्रकृति की सद्भावना
समुद्र के किनारे
बैठी मैं
अकिंचन।
देखती रही उसका धैर्य
अथाह जलराशि…
किंतु
अहंकार नहीं।
आश्रय देता है वह
थकी – हरी सरिताओं को,
पहुँचाता है मंज़िल पर वह,
जाने कितने राहगीरों को।
उसका विशाल अस्तित्व
सीमित नहीं,
असीम है…
खारा कहती
दुनिया, उसके जल को
किंतु
जीवन में
लवण की पूर्ति
उसी से है होती।
देखकर उसकी सद्भावना
किया मैंने उसे नमन।
सहती आ रही युगों से
यह धरा,
मानव के कुकृत्यों को।
मन में करती है विलाप,
ढोती है उसके बोझ को
उसके पापों के साथ।
आह ! क्यों नहीं सीखता
पतित मनुष्य
माता से
सद्भावना का आचार।
सोचती रही मैं घंटों…
हे प्रभु ! रचयिता सृष्टि के !
रच दिया इतना बड़ा संसार,
प्रकृति के
कण – कण में डाले तुमने प्राण,
दिया उसे सद्भावना का दान।
फिर क्यों भूल गए तुम
इस मानव को ?
जो बना नादान।
विश्व – शांति की है आवश्यकता
इस धरा को।
विश्व – बंधुत्व के सद्भाव,
अब पल्लवित हों !
हो चहुँ ओर
प्रेम का प्रसार…
मानव को मानवता
अब रही पुकार।
~ सोनिया बुद्धिराजा
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उस ईश्वर का मानूँ एहसान
डाले जिसने, मुझमें प्राण।
बना के इस धरती पर भेजा,
मुझको उसने एक इंसान।
सभी प्राणियों में है जो
श्रेष्ठ और महान।
रखूँ मैं इस जीवन का मान,
कैसे बढ़ाऊँ मैं इसकी शान?
मेरा सपना है,
आऊँ मैं इस देश के काम।
समझ से अपनी देश के विकास में हो
मेरी भागीदारी,
नई-नई तकनीकों की हो जानकारी।
या फिर जल, थल या वायु सेना में
भर्ती हो जाऊँ,
अपने अस्तित्व को
देश की पहचान बनाऊँ।
या फिर क्रिकेटर बन
खेल जगत में नाम कमाऊँ।
देश के लिए खेलकर
विरोधी टीम के छक्के छुड़ाऊँ।
सच्चाई और अच्छाई से अपनी,
दूर करूँ मैं सारे विकार।
अपने संस्कारों से समझौता,
नहीं मुझे स्वीकार।
जो भी बनूँ भविष्य में
बस चाह है इतनी,
माता-पिता का यूँ ही मिलता रहे प्यार।
- सोनिया बुद्धिराजा
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कठपुतली
कभी-कभी हम
कठपुतली बन जाते हैं
रोज़ी - रोटी की आस में।
कठपुतली को
सब सहना पड़ता है....
जिसके हाथ में
होते हैं
उसके धागे
उनके हिसाब से
रहना होता है।
मन मारो
या
आत्मा
न चाहते हुए भी बन जाती हैं
कुछ उँगलियाँ
निर्जीव कठपुतलियों की
परमात्मा...
- सोनिया बुद्धिराजा
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सँवार लूँ
इन छुट्टियों में रिश्तों को ज़रा संँवार लूँ...
तह जम गई है मिट्टी की
घर के कोनों में, उसे बुहार लूँ
ताकती हैं कब से
सहेजकर रखी
किताबें मुझको,
झाँकता है
अलमारियों से सामान....
अस्त - व्यस्त सब
करुँ व्यवस्थित
बच्चों को भी
साल - भर का दुलार दूँ
इन छुट्टियों में रिश्तों को ज़रा संँवार लूँ...
- सोनिया बुद्धिराजा
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मेरे चेहरे की लकीरों में छिपी
मेरे जीवन के उतार - चढ़ाव की सारी कहानी है।
देखे हैं मैंने, जीवन के कई रंग
मेरे बालों की सफ़ेदी इस बात की निशानी है।
फिर भी चेहरे पर मुस्कान लाज़मी है
क्योंकि इसी का नाम जिंदगानी है।
-सोनिया बुद्धिराजा
👏👏👏👌👌 nice poems
ReplyDeleteAti sundar
ReplyDeleteBeautiful poems 👌
ReplyDeleteMaa very heart touching poem 👏👌
ReplyDeleteLiked the poems very much 👍👍 keep it up
ReplyDeletebehtareen hai abhi do hi padi baki abhi padna baki hai
ReplyDeleteBeautiful lines
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