तुलसीदास जी की भक्ति - भावना
गोस्वामी तुलसीदास जी, हिंदी साहित्य के भक्तिकाल की सगुण भक्ति धारा की राम भक्ति शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं । तुलसीदास जी की भक्ति जितनी सहज और सरल है, उतनी ही लोकमंगल की भावना से ओत - प्रोत है । इस पोस्ट में हम भक्त कवि तुलसीदास की भक्ति भावना के विषय में चर्चा करेंगे।
1. तुलसीदास जी की भक्ति - भावना (Tulsidas ji ki Bhakti - Bhawna)
2 . तुलसीदास जी की भक्ति की विशेषताएँ (Tulsidas ji ki Bhakti ki Visheshtayein)
3 . तुलसी की भक्ति और प्रेमा - भक्ति (Tulsi ki Bhakti aur Prema - Bhakti)
4. तुलसी की भक्ति में नवधा भक्ति का समावेश (Tulsi ki Bhakti mein Navdha Bhakti ka smavesh)
5. तुलसी की भक्ति में नारद भक्ति सूत्र की ग्यारह आसक्तियाँ (Tulsi ki Bhakti mein Narad Bhakti Sutr ki 11 Aasktiyan)
6. तुलसी - काव्य में भक्ति के प्रमुख भाव (Tulsi - Kavya mein Bhakti ke pramukh bhav)
7. तुलसी - काव्य में गुरु की महिमा (Tulsi - Kavya mein Guru ki Mahima)
8. तुलसी - काव्य में नाम की महिमा (Tulsi - Kavya mein Naam ki Mahima)
भक्ति क्या है ?
भगवान का भजन करना, उनके प्रति अतिशय अनुराग को प्रदर्शित करना, मनसा वाचाकर्मणा एकाग्रचित्त और दत्तचित्त होकर अपने मन - मंदिर में,अपने आराध्य की अनवरत आरती उतरना ही भक्ति है। 'आचार्य शुक्ल जी ' ने श्रद्धा और प्रेम के योग को भक्ति कहा है। भक्त - आचार्यों ने अपने - अपने मतानुसार भक्ति की विभिन्न - विभिन्न परिभाषाएँ दी हैं। 'शांडिल्य भक्ति सूत्र ' में ईश्वर के प्रति परम अनुरक्ति को भक्ति कहा गया है - 'सा परानुरक्तिरीश्वरे'। 'नारद भक्ति सूत्र ' में भक्ति की महत्त्वपूर्ण परिभाषा देते हुए प्रभु के प्रति प्रदर्शित परम प्रेम को ही भक्ति कहा गया है - 'सात्वास्मिन् परम प्रेम रूपा '।
भक्तिकालीन कवियों के समक्ष भक्ति के स्वरूप का परंपराप्रथित पुष्ट आधार था । गोस्वामी तुलसीदास जी ने उसी को स्वीकार करते हुए भक्ति के संबंध में कहा है-
"प्रीति राम सों नीति पथ चलिय रागरिस जीति ।
तुलसी संतन के मते इहै भगति की रीति ।।"
अर्थात् राग और क्रोध को जीतकर नीति - पथ पर चलते हुए राम की प्रीति ही भक्ति है ।
तुलसीदास जी के जीवन, उनकी मूल्य दृष्टि, उनकी धरम - भावना, उनकी विचारधारा और उनके संपूर्ण काव्य का मूलाधार है - उनकी भक्ति - भावना ।
तुलसी की भक्ति - भावना की आधारशिला है उनके राम -
सकल विश्व में जिनकी सत्ता विराज रही है वही तुलसी के राम हैं । उनके अनुसार, इस राम को जानना, उनकी आराधना करना ही मानव - जीवन का सार तत्व है । यह राम दशरथ - पुत्र, कौशलेन्द्र राम और विष्णु के अवतार ही नहीं, अखंड, अगोचर, परम ब्रह्म भी हैं । वे सगुण भी हैं और निर्गुण भी । वे अंतर्यामी भी हैं, बहिर्यामी भी ।
तुलसीदास जी ने राम के सगुण साकार रूप को ही अपनी भक्ति का आधार बनाया क्योंकि उनके अनुसार इस रूप में उनकी भक्ति अधिक सुलभ और कल्याणकारी है । ब्रह्म की अव्यक्त सत्ता के स्थान पर उसकी व्यक्त सत्ता में स्वयं को लीन करना अधिक सरल है। यद्यपि वे कहते हैं, "सगुनहिं अगुनहिं नहिं कुछ भेदा" तथापि वे सगुण भक्ति को ही अधिक महत्त्व देते हैं ।
तुलसीदास जी की भक्ति के आलंबन, उनके आराध्य देव श्री राम हैं, जो विश्व के समस्त शील, शक्ति, सौंदर्य और गुणों के आगार हैं । जो परम कृपालु, शरणागत वत्सल, दीन बंधु, पतित जन तारन, करुणा - सिंधु, परम दानशील और क्षमा और परोपकार की मूर्ति हैं । मर्यादा पुरुषोत्तम, आदर्शवादी राम के इन्हीं गुणों का बखान ही तुलसीदास जी की भक्ति का मूल स्तंभ है । रामचरित द्वारा तुलसीदास जी ने समाज के सन्मुख आदर्श मानव का रूप प्रस्तुत किया है । अतः 'रामचरितमानस' में निहित तुलसीदास जी की भक्ति को, भक्ति और ज्ञान दोनों की रसानुभूति कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी ।
तुलसीदास जी की भक्ति पद्धति का स्वरूप लगभग वही है जिसका प्रतिपादन वैष्णव आचार्यों, पुराणों, भक्ति - सूत्रों के द्वारा किया गया है । यद्यपि इस संबंध में उनकी मौलिक उद्भावनाएँ भी दिखती हैं । तुलसीदास जी की भक्ति का आदर्श है - राम के प्रति निष्काम प्रेम । यह निष्काम प्रेम केवल प्रेमा - भक्ति से ही प्राप्त होता है , इसलिए तुलसीदास जी की संपूर्ण भक्ति - साधना का मूलाधार यही प्रेमा - भक्ति है । तुलसीदास जी के अनुसार, सच्ची भगवत् - भक्ति के लिए चातक और मीन के समान अपने आलंबन के प्रति अनन्य प्रेम होना आवश्यक है । जो राम में अटल विश्वास और श्रद्धा के बिना संभव नहीं - " बिनु बिस्वास भगति नहिं, तेहिं बिनु द्रवहिं न राम । "
प्रेमा भक्ति में साध्य और साधन में पूर्ण अभेद है । इसी कारण प्रेमा - भक्ति को स्वयं साध्य कहा गया है अर्थात् प्रेमाभक्ति का साध्य या लक्ष्य प्रेमा भक्ति ही है । भक्त के लिए यह भक्ति ही उसकी भक्ति का फल है जो उसे सारे क्लेशों से मुक्त कर देती है । एक बार जिसे यह भक्ति प्राप्त होती है वह सदा के लिए इस भक्ति में लीन हो जाता है । तुलसीदास जी ने इसकी अपार महिमा का बार - बार जय घोष किया है -
" प्रेम भक्ति जल - बिनु रघुराई । अभि अंतर मन कबहुँ न जाई ॥ "
तुलसीदास जी ने प्रेमा भक्ति के समक्ष मोक्ष को भी तुच्छ बताया है, जिसे शास्त्रों में मानव जीवन का परम - पुरुषार्थ कहा है । उन्होंने बार - बार कहा है -
" अस विचारि हरि भगत सयाने । मुकुति निरादरि भगति लुभाने ॥ "
इस भक्ति को तुलसीदास जी ने समस्त साधनों और लक्ष्यों से श्रेष्ठ बताते हुए इसे 'अनुपम सुखमूला', 'सब सुख खानि ' तथा 'सकल सुकृत फल ' बताया है ।
भक्ति में भक्त का महत्त्व -
भक्ति में यदि भगवान का महत्त्व है तो भक्त का भी महत्त्व है । भक्त कवियों ने प्रायः सभी प्रकार के भक्तों का, किसी - न - किसी रूप में वर्णन किया है । तुलसीदास जी ने भी गीता में वर्णित चार प्रकार के भक्तों का चित्रण अपने काव्य में किया है -
आर्त (पार्वती - 'अति आरति पूछउँ सुरराया, रघुपति कथा कहहु करि दाया ')
जिज्ञासु (गरुड़ - भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जाकर नाम, खर्व निसाचर बांधेउ नागपास सोहू राम ')
अर्थार्थी ( ' मन कामना सिद्धि नर पावा, जो यह कथा कपट तजि गावा ')
ज्ञानी ( याज्ञवल्क्य - जिन्होंने भारद्वाज से राम कथा कही ।)
नवधा - भक्ति -
भक्ति की निबंधन के क्षेत्र में 'नवधा - भक्ति' का बड़ा महत्त्व है । आचार्यों ने नवधा भक्ति को भक्ति की प्राप्ति का साधन मन है । अपनी भक्ति - पद्धति में तुलसी दास जी ने अपनी साधन के लिए नवधा - भक्ति का समावेश किया है ।
1 . श्रवण - "जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना ।
श्रवण रंध्र अहि भवन समाना ॥"
2 . कीर्तन - " जो नाहिं करै राम गुन गाना ।
जीह सो दादुर जीह समाना ॥ "
3 . स्मरण - " श्री रघुनाथ रूप उर आया ।
परमानंद अमित सुख पावा ॥ "
4 . पादसेवन - " बंदी चरन बोली कर जोरी "
5 . अर्चन - " पूजहिं प्रभुहिं देव बहु वेशा ।
राम रूप दूसर नहिं देखा ॥ "
6 . वंदन - " श्री रामचंद्र कृपालु भज मन
हरण भव भय दारुणं । "
7 . दास्य - " मैं सेवक रघुपति पति मोरै "
8 . सख्य - " सनहु सखा कहँ कृपा निधाना "
9 . आत्म निवेदन - " श्रवण सुजस सुनि आयउँ प्रभु भंजन भवभीर ।
त्राहि - त्राहि आरती हरन, सरन सुखद रघुवीर ॥ "
इन नौ साधनों में से एक भी साधन जिसके पास हो वह भगवत् कृपा - पात्र हो जाता है ।
भक्ति सूत्र की ग्यारह आसक्तियाँ -
नारद ने अपने भक्ति सूत्र में जिन ग्यारह आसक्तियों का उल्लेख किया है, डॉ ० उदयभानु सिंह के शब्दों में "वे तुलसी के काव्य में न्यूनारंजक रूप में देखी जा सकती हैं ।" -
1 . गुणमाहात्म्यासक्ति (नारद , शंकर , भुशुंडि )
2 . रूपासक्ति (जनक , मिथिला के नर - नारी )
3 . पूजासक्ति (भरत)
4 . स्मरणासक्ति (प्रह्लाद , ध्रुव , सनकादि ऋषि)
5 . दास्यासक्ति (लक्ष्मण , हनुमान)
6 . सख्यासक्ति (सुग्रीव , विभीषण)
7 . कांतासक्ति (सीता )
8 . वात्सल्यासक्ति (कौशल्या , दशरथ)
9 . आत्मनिवेदनासक्ति (हनुमान , विभीषण)
10 . तन्मयासक्ति (सुतीक्ष्ण)
11 . परमविरहासक्ति (दशरथ)
यद्यपि भक्त में सभी आसक्तियाँ अनिवार्यतः एक - साथ समान रूप से नहीं भी रह सकती तथापि भक्त की रुचि, स्वभाव और चित्तवृत्ति के अनुसार एक या उससे अधिक आसक्तियों की प्रधानता हो सकती है ।
तुलसीदास जी की भक्ति के प्रमुख भाव -
तुलसीदास जी रचित काव्य में भक्ति के प्रमुख पाँच भाव देखने को मिलते हैं - शांत, दास्य, सख्य, वत्सल और मधुर । परंतु तुलसीदास जी की भक्ति में दास्य - भाव की प्रधानता है । अन्य भाव भी इसी भाव से मंडित हैं । सभी का मूल स्वर ईश्वर के प्रति अपनी आस्था, अपने प्रेम की प्रतिष्ठा है । इस संबंध में डॉ० उदयभानु सिंह जी ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है - " वस्तुतः दास भाव ही उनके सारे भक्ति मार्ग की आधार भूमि है । जहाँ वात्सल्य, शांत आदि भक्तियों का निरूपण किया गया है, वहाँ भी दास्य का गौरव दिया गया है । "
भक्त - आचार्यों ने भक्ति - प्राप्ति के लिए छह कृपाओं के सहयोग को भी स्वीकार किया है । तुलसीदास जी के काव्य में सभी कृपाओं के दर्शन होते हैं -
1 . राम कृपा - " राम कृपा बिन सुनु खगराई "
2 . पुरुषकार कृपा - (मध्यस्थ जैसे सीता, हनुमान कृपा) - " कबहुँक अंब अवसर पाइ "
3 . गुरु कृपा - "मैं पुनि निज गुरु सन सुनी कथा सो सूकर खेत "
4 . संत कृपा - " संत कृपा चहुँ दिशि अंबराई "
5 . देव कृपा - " शिव द्रोही मम दास कहवा.. "
6 . द्विज कृपा - " ते नर प्रान समान मम जिन्ह के द्विज - पद प्रेम "
शरणागति अथवा प्रपत्ति की अनुभूतिमय अभिव्यक्ति भक्त कवियों का प्रिय विषय रही है । आचार्यों ने शरणागति का लक्षण बताते हुए जिन छह विधाओं का उल्लेख किया है, तुलसीदास जी के काव्य में शरणागति के वे सभी प्रकार मिलते हैं -
अनुकूलता का संकल्प - 'सीय राममय सब जग जानी'
प्रतिकूलता का त्याग - ' तुम रामहि प्रतिकूल न होहू '
भगवान रक्षा करेंगे,ऐसा विश्वास - ' भरत के हित नाथ अनाथ के'
भगवान का रक्षक रूप में वर्णन - ' ताहि ते आयो सरन तिहारी '
आत्म समर्पण - ' तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हो '
कार्पण्य (दीनता) - 'राम ते बड़ो है कौन मो ते कौन छोटो '
तुलसीदास जी ने अपनी भक्ति - साधना के लिए शास्त्रोक्त साधनों के विधान को भी ग्रहण किया है । इस दृष्टि से उन्होंने श्रवण - मनन के अतिरिक्त विषय - त्याग, वैराग्य, सत्संग, कुसंग - त्याग आदि पर बल दिया है क्योंकि इनके बिना, विकारों का उन्मूलन संभव नहीं है । यह चित्त की निर्मलता के लिए आवश्यक है और निर्मल चित्त में ही भगवत् प्रेम का उदय संभव है ।
तुलसीदास जी ने भक्ति - साधना से भटकने वाले और भक्ति से विमुख करने वाले अभिमान, संशय, कुतर्क, काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, कुसंग, राग - द्वेष आदि तत्वों की भी चर्चा की है और इनसे दूर रहने की चेतावनी दी है ।
भक्ति - साधना में गुरु का महत्त्व -
भक्ति - साधना के क्षेत्र में उपर्युक्त विधि - निषेधों के बावजूद गुरु की शरण के बिना भगवद - भक्ति प्राप्त करना असंभव है । तुलसीदास जी के अनुसार, गुरु के प्रसाद से ही भक्त मोहांधकार से मुक्त होकर विमल विवेक पता है । भक्ति - प्राप्ति में सहायक इस गुरु कृपा को तुलसीदास जी ने भक्त के लिए नितांत आवश्यक भी माना है और इसकी अपार महिमा का उल्लेख अनेक स्थलों पर किया है -
" गुरु बिनु बव निधि तरइ न कोई । जो विरंचि संकर सम होई ॥ "
भक्ति के इन समस्त साधनों से चित्त को निर्मल करता हुआ ही भक्त प्रेमा - भक्ति के सोपान तक पहुँचता है ।
भक्ति में नाम की महिमा -
तुलसी - साहित्य में नाम की महिमा का गान विपुल मात्रा में विद्यमान है । नाम में सगुण - निर्गुण, संप्रदाय ग्राह्यता, आदि का विवाद नहीं है । हरि अनंत हैं, उनके नाम भी अनंत हैं । अनन्य प्रेम और अटल विश्वास से कोई भी नाम भजने से भक्ति का फल अवश्य ही मिलता है । तुलसीदास जी को राम नाम प्रिय है । इस राम नाम में ब्रह्म राम, विष्णु राम, दशरथ पुत्र कौशलेन्द्र राम - तीनों का समाहार है।
निश्चित रूप से, तुलसीदास जी की भक्ति के लिए कितनी ही संज्ञाओं का प्रयोग क्यों न किया जाए, उनकी भक्ति - भावना मूलतः एक ही है और इसका लक्ष्य है राम के प्रति पूर्ण मानसिक समर्थन के माध्यम से राममयता, रामात्मक नैर्मल्य, औदात्य और सौशील्य की सिद्धि । अंततः तुलसीदास जी की भक्ति 'भावभक्ति' है और उनके भगवान 'भाववश्य' हैं।
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