NCERT Study Material for Class 10 Hindi Kshitij Chapter- 2 'Ram - Laxman - Parshuram Sanvaad' (Explanation, Textbook Question-Answers and Extra Questions /Important Questions with Answers)
हमारे ब्लॉग में आपको NCERT पाठ्यक्रम के अंतर्गत कक्षा 10 (Course A) की हिंदी पुस्तक 'क्षितिज' के पाठ पर आधारित प्रश्नों के सटीक उत्तर स्पष्ट एवं सरल भाषा में प्राप्त होंगे। साथ ही काव्य - खंड के अंतर्गत निहित कविताओं एवं साखियों आदि की विस्तृत व्याख्या भी दी गई है।
यहाँ NCERT HINDI Class 10 के पाठ - 2 'राम - लक्ष्मण - परशुराम संवाद' की व्याख्या दी जा रही है। इन पदों की व्याख्या पाठ की विषय-वस्तु को समझने में आपकी सहायता करेगी। इसे समझने के उपरांत आप पाठ से संबंधित किसी भी प्रश्न का उत्तर सरलता से दे सकेंगे। आपकी सहायता के लिए पाठ्यपुस्तक में दिए गए प्रश्नों के उत्तर (Textbook Question-Answers) एवं अतिरिक्त प्रश्नों के उत्तर (Extra Questions /Important Questions with Answers) भी दिए गए हैं। आशा है यह सामग्री आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
पाठ - प्रवेश
यह प्रसंग राम - भक्त कवि तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है। मिथिला के राजा जनक ने अपनी पुत्री के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन करते हैं । राजा जनक यह घोषणा करते हैं कि जो योग्य पुरुष शिव धनुष को उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ाएगा, उसके साथ सीता का विवाह होगा। सभा में उपस्थित अनेक राजा असफल हो जाते हैं। महर्षि विश्वामित्र की आज्ञा प्राप्त करके श्रीराम शिव जी के धनुष को उठाते हैं और उस पर प्रत्यंचा चढ़ाते हैं। इस प्रक्रिया में शिव धनुष टूट जाता है। अपने आराध्य शिव का धनुष टूटने की टंकार (आवाज़) सुनकर मुनि परशुराम क्रोधित होकर स्वयंवर सभा में आते हैं। शिव धनुष को खंडित (टूटा हुआ) देखकर उनका क्रोध और भी बढ़ जाता है। वह शिव धनुष को तोड़ने वाले को मृत्युदंड देने को आतुर हो उठते हैं। परशुराम जी के क्रोध के प्रतिउत्तर में श्री राम विनय पूर्वक मीठे वचनों का प्रयोग करते हैं परंतु लक्ष्मण जी मुनि परशुराम के क्रोध भरे वाक्यों का उत्तर व्यंग्य भरे वचनों से देते हैं। महर्षि विश्वामित्र के समझाने पर तथा श्री राम के वास्तविक रूप का पता लगने पर परशुराम राम की शक्ति की परीक्षा लेते हैं। अंततः उनका गुस्सा शांत हो जाता है।
लक्ष्मण की वीर रस से भरी व्यंग्योक्तियाँ और व्यंजना शैली की सरस अभिव्यक्ति इस प्रसंग की विशेषताएँ हैं।
राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद
नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।
आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ।।
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई ।।
सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा ।।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा।।
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने ।।
बहु धनुही तोरी लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं ।।
येहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू ।।
रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार।।
लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें।।
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।।
बोले चितै परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।
बालकु बोलि बधौं नहि तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। विस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही।।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। विपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही ।।
सहसबाहुभुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा।।
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर ।।
विहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु। चहत उड़ावन फूँकि पहारू ।।
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं ।।
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी।।
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई ।।
बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहू पा परिअ तुम्हारें।।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। व्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा।।
जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर।।
कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु। कुटिलु कालबस निज कुल घालकु ।।
भानुबंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुसु अबुधु असंकू ।।
कालकवलु होइहि छन माहीं। कहौ पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।
तुम्ह हटकहु जौ चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा।।
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।।
अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी ।।
नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।।
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
विद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु ।।
तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा।।
सुनत लखन के वचन कठोरा। परसु सुधारि धरेठ कर घोरा।।
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू ।।
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब येहु मरनिहार भा साँचा।।
कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू ।।
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगे अपराधी गुरुद्रोही।।
उत्तर देत छोड़ौं बिनु मारे। केवल कौसिक सील तुम्हारे ।।
न त येहि काटि कुठार कठोरे। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे।।
गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ।।
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा ।।
माता पितहि उरिन भये नीकें। गुररिनु रहा सोचु बड़ जी कें ।।
सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा। दिन चलि गये व्याज बड़ वाढ़ा।।
अब आनिअ व्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली ।।
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।।
भृगुबर परसु देखाबहु मोही। विप्र विचारि बचौं नृपद्रोही।।
मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विजदेवता घरहि के बाढ़े ।।
अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे। रघुपति सयनहि लखनु नेवारे।।
लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु ।।
राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद
(शब्दार्थ सहित व्याख्या)
[ 1 ]
शब्दार्थ
नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।
स्वामी, शिव का धनुष, तोड़ने वाला। होगा, कोई, एक सेवक आपका ।।
आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ।।
आज्ञा, कहिए, क्या है, मुझे। सुनकर, क्रोधित, बोले, मुनि परशुराम, क्रोध में ।।
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई।
सेवक, वो होता है, जो, सेवा करता है। शत्रु का काम, करने वाला, करता है लड़ाई।।
सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहस्रबाहु सम सो रिपु मोरा।।
सुनो, राम, जिसने भी, शिव धनुष, तोड़ा है। सहस्रबाहु, के समान, वह, शत्रु है, मेरा ।।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न ता मारे जैहहिं सब राजा।
वह, अलग हो जाए, छोड़कर, सभी को। नहीं, तो, मारे, जाएँगे, सारे, राजा ।
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने ।।
सुनकर, मुनि के वचन को, लक्ष्मण, मुस्काने लगे। बोले, परसे (फरसे) को धारण करने वाले परशुराम से, अपमानित करते हुए ।।
बहु धनुही तोरी लरिकाई। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं ।
बहुत से, छोटे धनुष, तोड़े थे, बचपन में। कभी, नहीं, ऐसा, क्रोध, किया, स्वामी ने ।
येहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू ।।
इस, धनुष पर, इतनी ममता, किस, कारण से । सुनकर, क्रोधित, बोले भृगुवंश की ध्वजा के रूप में महान पुरुष परशुराम ।।
रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँभार।
अरे राजा के पुत्र, काल (मृत्यु) के वश में, बोल रहा, तू, नहीं, संभल कर।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार ।।
(सामान्य) धनुष, के समान (समझ रहा), शिव के धनुष को, जानता है, संपूर्ण संसार।।
व्याख्या
सीता स्वयंवर के समय राम के द्वारा शिव - धनुष के तोड़े जाने पर परशुराम क्रोधित होकर वहाँ आते हैं। वह क्रोध से पूछते हैं कि उनके आराध्य शिव का धनुष किसने तोड़ा है? तब श्रीराम विनयपूर्वक, कोमल वचनों से कहते हैं कि हे नाथ! शिव धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई दास ही होगा अर्थात् शिव धनुष को तोड़ने की शक्ति केवल आपके दास में ही हो सकती है। आज्ञा दीजिए, मेरे लिए क्या आदेश है। यह सुनकर मुनि क्रोधित होकर कहते हैं - सेवक तो वही होता है जो सेवा का कोई कार्य करें। परंतु यह धनुष तोड़कर उसने शत्रु के समान कार्य किया है इसलिए उसके साथ तो लड़ाई (युद्ध) ही करनी पड़ेगी। सुनो राम! जिसने शिव धनुष तोड़ा है, वह सहस्त्रबाहु के समान मेरा शत्रु है इसलिए वह राज्य समाज अर्थात् जन सभा से अलग खड़ा हो जाए। नहीं तो मेरे द्वारा सब राजा मारे जाएँगे। मुनि के क्रोध से भरे वचन सुनकर लक्ष्मण मुस्कुराने लगते हैं। वह व्यंग्यपूर्वक अर्थात् अपमानजनक शब्दों में परशुराम जी से कहते हैं कि हे मुनिवर! बचपन में हमने खेल-खेल में बहुत सी धनुहियाँ (छोटे धनुष) तोड़े हैं, तब तो कभी स्वामी (आप) ने क्रोध नहीं किया। इस धनुष पर आपका इतना प्रेम क्यों है? जो इसके टूट जाने पर आप क्रोधित हो रहे हैं। लक्ष्मण जी के व्यंग्य से भरे वचनों को सुनकर भृगु वंश की ध्वजा अर्थात् उसकी प्रतिष्ठा के समान परशुराम जी क्रोधित होकर लक्ष्मण जी से कहते हैं - अरे राजा के पुत्र ! तू काल के वश में होकर इस प्रकार की बातें बोल रहा है अर्थात् निश्चय ही तेरी मृत्यु निकट है जो तू बिना सँभाल किए, बिना समझ के इस प्रकार की बातें बोल रहा है। जिस शिव - धनुष को सारा संसार जानता है, तू उसकी तुलना साधारण धनुहियों (बच्चों के धनुष) से कर रहा है।
[2]
शब्दार्थ
लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना ।।
लक्ष्मण ने कहा, हँसकर, हमारे ज्ञान में। सुनिए, देवता (परशुराम), सब धनुष, एक समान हैं।।
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें।।
क्या, क्षति (हानि), लाभ, पुराना, धनुष, तोड़ कर। देखने से, राम के, नेत्रों के, भ्रम से।
छूअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू।।
छूते ही, टूट गया, राम का, नहीं, कोई दोष। मुनि, बिना बात पर, करते हैं, क्यों, क्रोध।।
बोले चितै परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।
बोले, देखकर, फरसे की तरफ़। अरे दुष्ट, सुना, स्वभाव नहीं मेरा ।
बालकु बोलि बधौं नहि तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।
बालक, समझकर, वध, नहीं किया, तुम्हारा । केवल, मुनि, मूर्ख, जानता है, मुझे।।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। विस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही ।।
बाल, ब्रह्मचारी, अत्यंत, क्रोधी । विश्व को विदित (ज्ञात) है, क्षत्रिय वंश का, शत्रु।।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही ।।
भुजाओं के बल से, पृथ्वी को, राजाओं से, रहित, किया। अनेक बार, ब्राह्मणों को दान में दिया है।
सहसबाहुभुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा ।।
सहस्रबाहु की भुजाओं को, काटने वाले फरसे की ओर, देख राजकुमार।।
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
माता - पिता के लिए, (मर कर) मत बन, सोच का कारण, राजकुमार।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।
गर्भ में पल रहे, बच्चे को, नष्ट करने वाला, फरसा, मेरा, अत्यंत, भयंकर है।।
व्याख्या
परशुराम जी की क्रोध से भरी बातों को सुनकर लक्ष्मण मुस्कुराते हुए उनसे कहते हैं - हे देव! हमारे लिए तो सभी धनुष एक समान हैं। फिर इस जीर्ण (पुराने) धनुष के टूट जाने से आपको क्या हानि या क्या लाभ है? श्री राम ने तो इसे नया समझकर देखा था, यह तो छूते ही टूट गया। इसमें श्री राम का कोई दोष नहीं है। हे मुनिवर! आप बिना कारण ही क्रोध कर रहे हैं। लक्ष्मण के व्यंग्य भरे वचनों को सुनकर परशुराम जी और भी अधिक क्रोधित हो जाते हैं। वह अपने फरसे की और देखते हुए कहते हैं - अरे दुष्ट! तूने मेरे स्वभाव के बारे में नहीं सुना। मैं बालक समझकर तेरा वध नहीं कर रहा था। अरे मूर्ख! तू मुझे साधारण मुनि समझ रहा है। मैं बाल ब्रह्मचारी, अत्यंत क्रोधी हूँ। सारा संसार जानता है कि मैं क्षत्रिय कुल का शत्रु हूँ। मैंने अपनी भुजाओं के बल से अनेक बार इस पृथ्वी को राजाओं से विहीन किया है अर्थात् पृथ्वी से क्षत्रियों का सर्वनाश करके इस पृथ्वी को जीतकर ब्राह्मणों को दान में दिया है। हे राजकुमार! सहस्त्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे की ओर देख। हे राजकुमार! तू मेरे हाथों मर कर अपने माता-पिता की चिंता और शोक का कारण मत बन। मेरा यह अत्यंत भयंकर फरसा गर्भ में पल रहे शिशु (बच्चे) को भी नष्ट करने की क्षमता रखता है।
[3]
शब्दार्थ
विहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।
हँसकर, लक्ष्मण, बोले, कोमल, वाणी में। मुनि (स्वयं को) महायोद्धा, मानते हैं।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु । चहत उड़ावन फूँकि पहारू।।
बार बार, मुझे, दिखाते, कुल्हाड़ा (फरसा) । (मानो) चाहते हों उड़ाना, फूँक कर, पहाड़
इहाँ कुम्हड़बतिआ कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं ।।
यहाँ, छुई-मुई (एक पौधा) कोई नहीं। जो, अँगूठे के पास की अँगुली, देखकर, मुरझा, जाए।।
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना ।।
देख कर, फरसा, धनुष, बाण। मैंने, कुछ, कहा, अभिमान सहित।।
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी।।
भृगु कुल में उत्पन्न समझकर, जनेऊ, देखकर। जो कुछ, आपने कहा, सहन किया, क्रोध रोक कर।।
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई।।
देवता, ब्राह्मण, हरि (भगवान) के भक्त, और गाय। हमारे, वंश में, इन पर, नहीं दिखाता, वीरता।।
बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहू पा परिअ तुम्हारें ।। (इन्हें) मारने से पाप, तथा हारने से अपयश (बदनामी) । मारेंगे (तब भी) पैर ही पडूँगा आपके।।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। व्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा ।।
करोड़, कठोर, समान, वचन, तुम्हारा। बेकार में ही, धारण किया, धनुष, बाण, कुठार (फरसा) ।।
जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर ।।
जो, देखकर, गलत, कहा, क्षमा करें महामुनि, धैर्यवान।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर ।।
सुनकर, क्रोध सहित, भृगुवंश के मणि परशुराम, बोले वाणी, गंभीर में।।
व्याख्या
परशुराम जी की गर्व से भरी बातें सुनकर लक्ष्मण हँसते हुए उनसे कहते हैं - अहो मुनिवर! आप स्वयं को महान योद्धा समझते हैं। इसलिए बार-बार मुझे अपना फरसा दिखा रहे हैं। ऐसा लगता है कि आप फूँक मार कर पहाड़ उड़ाना चाहते हैं। यहाँ कोई भी छुईमुई (एक छोटा - सा कमज़ोर पौधा) नहीं है जो आपकी तर्जनी (अँगूठे के साथ वाली उँगली) देखकर मुरझा जाए अर्थात् आपके गर्व से भरे वचनों को सुनकर और आपके फरसे को देखकर यहाँ कोई भी डरने वाला नहीं है। मैंने तो आपके फरसे और धनुष - बाण को देखकर ही अभिमान के साथ कुछ कहा था। आपको भृगुवंश का समझकर और आपका जनेऊ देखकर जो कुछ आप कहते हैं उसे मैं अपना क्रोध रोककर सहन कर लेता हूँ। हमारे कुल में देवता, ब्राह्मण, हरि (भगवान) के भक्त और गाय पर वीरता नहीं दिखाई जाती क्योंकि इनका वध करने पर पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपयश (बदनामी) होती है। यदि आप मुझे मारें तो भी मैं आपके पैर ही पडूँगा। आपका एक-एक वचन ही करोड़ों वज्रों के समान है। आपने धनुष - बाण और कुठार तो व्यर्थ ही धारण कर रखे हैं अर्थात् किसी का वध करने के लिए आपके कठोर वचन ही काफ़ी हैं। हे धीर महामुनि इन्हें (धनुष - बाण और कुठार को) देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो तो उसे क्षमा कीजिए। यह सुनकर भृगु वंश के मणि (रत्न) के समान परशुराम जी ने क्रोध के साथ गंभीर वाणी में कहा।
[4]
शब्दार्थ
कौसिक सुनहु मंद यह बालकु। कुटिलु कालबस निज कुल घालकु ।।
विश्वामित्र, सुनो, मूर्ख, यह, बालक। कठोर काल के वश में , अपने वंश का नाशक ।।
भानुबंस राकेस कलंकू । निपट निरंकुसु अबुधु असंकू ॥
सूर्य वंश में होते हुए भी, पूर्ण चंद्र का, कलंक है। उद्दंड, स्वछंद, न समझ, निर्भीक है।।
कालकवलु होइहि छन माहीं। कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।
मृत्यु के वश में, हो जाएगा पल भर में ही। कह देता हूँ, पुकार कर, दोष, मुझे मत देना।।
तुम्ह हटकहु जौ चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा ।।
तुम, रोक लो, यदि, चाहते हो, बचाना। बता कर, यश, बल, और क्रोध मेरा।
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि, अछत को बरनै पारा।।
लक्ष्मण ने कहा - हे मुनि, यश, आपका। आपको छोड़ कर, और कौन, वर्णन कर पाएगा।।
अपने मुह तुम्ह आपनी करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।
अपने ही, मुँह से, आपने, अपनी महानता का। अनेक बार, विभिन्न तरह से, वर्णन किया।।
नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू ।।
नहीं हुआ हो, संतोष, फिर से, कुछ, कहिए। मत, क्रोध को रोकें, असहनीय दुःख सह करके।।
बीरव्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा ।।
वीरता का पालन करने वाले, आप, धैर्यवान, क्षोभ (क्रोध) रहित हैं। गाली (अपशब्द), देते हुए, नहीं, सुशोभित हो रहे (आप) ।।
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु ।
शूरवीर तो, युद्ध में, अपना पराक्रम करके दिखाते हैं, बातों से, नहीं, जताते, अपनी वीरता।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु ।।
उपस्थित देखकर, युद्ध में, शत्रु को, कायर पुरुष ही, अपनी प्रशंसा करते हैं ।
व्याख्या
अत्यधिक क्रोधित होते हुए परशुराम जी ऋषि विश्वामित्र से कहते हैं - हे कौशिक! सुनो यह बालक बड़ा मंदबुद्धि और दुष्ट है। काल के वश में होकर यह अपने कुल का नाश करने वाला बन रहा है। सूर्यवंश में जन्म लेने के बाद भी यह पूर्ण चंद्र का कलंक बना हुआ है अर्थात् इतने बड़े कुल में जन्म लेकर भी यह नीचतापूर्ण व्यवहार करते हुए हमारा अपमान कर रहा है। लक्ष्मण के प्रति अपना क्रोध प्रकट करते हुए परशुराम जी आगे कहते हैं कि यह तो निरा मूर्ख, उद्दंड और निडर (ढीठ) है। अगर यह इसी प्रकार बोलता रहा तो क्षण भर में यह कल का ग्रास बन जाएगा अर्थात् मैं इसका वध कर दूँगा। मैं तुम्हें पहले ही बता रहा हूँ, बाद में तुम मुझे दोष मत देना। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो तो इसे हमारे प्रताप (पराक्रम), बल (शक्ति) और (रोष) क्रोध के बारे में बताओ जिसके प्रभाव से यह राजकुमार चुप हो जाए। इस पर लक्ष्मण कहते हैं - हे मुनिवर! आपका सुयश आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है? आपने अपने ही मुख से अपनी करनी (वीरता का बखान) अनेक बार बहुत प्रकार से वर्णन की है। यदि इतने पर भी संतोष नहीं हुआ हो तो फिर से कुछ कह लीजिए। क्रोध रोक कर अत्यंत दुख मत सहिये। आप वीरता का व्रत धारण करने वाले, धैर्यवान और क्रोध रहित हैं। गाली देना (अपशब्द) कहना आपको शोभा नहीं देता। शूरवीर तो वे हैं जो युद्ध में अपनी वीरता का प्रदर्शन करते हैं अर्थात् वीरतापूर्ण कार्य करते हैं। वे अपने मुख से स्वयं अपनी वीरता की प्रशंसा नहीं करते शत्रु को युद्ध भूमि में उपस्थित देखकर, कायर ही अपने शौर्य और वीरता का बखान करते हैं अर्थात् अपनी प्रशंसा करते हैं।
[5]
शब्दार्थ
तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा ।।
तुम, तो, मृत्यु को, ज़बरदस्ती, ला रहे हो। बार - बार मेरे लिए, बुलाकर।।
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा ।।
सुनकर, लक्ष्मण के, वचन, कठोर। फरसे को, सुधार कर, धारण किया, हाथ में, भयंकर।।
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बध जोगू।।
अब, लोग, देना, दोष, मुझे, मत। कटुवचन बोलने वाला, यह बालक, मरने योग्य है।।
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा ।।
बालक, देखकर, बहुत, मैं, बोल लिया। अब, यह, मरने वाला है, सचमुच ।।
कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू ।।
विश्वामित्र ने कहा, क्षमा कीजिए, अपराध को। बालक के, गुण - दोष, नहीं गिनते, सज्जन
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही ।।
तेज़ धार का कुठार, मैं करुणाहीन, क्रोधी। सामने, अपराधी, गुरु से द्रोह करने वाला है।।
उत्तर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें ।।
उत्तर, दे रहा है, छोड़ रहा हूँ, बिना, मारे। केवल, विश्वामित्र, विनम्र स्वभाव के, तुम्हारे
न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें ।।
नहीं, तो, यहीं, काट कर, कठोर कुठार से। गुरु के, ऋण से हो जाऊँगा मुक्त, थोड़े ही परिश्रम से।।
गाधिसुनू कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
गाधि के पुत्र (विश्वामित्र) बोले, हृदय में, हँसकर। मुनि परशुराम को, हरा हरा ही दिख रहा है।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ ।।
लोहे से बनी, खाँड़ (तलवार) को, गन्ने से बनी खाँड़ (गुड़) समझ कर अभी तक नासमझ बने हैं।।
व्याख्या
लक्ष्मण परशुराम जी से कहते हैं कि ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो आप बार-बार काल (यमराज) को आवाज़ देकर मेरे लिए बुला रहे हैं। लक्ष्मण के कठोर वचन सुनते ही परशुराम जी ने अपने हाथ के फरसे को ठीक से सँभाल लिया और बोले अब कोई भी व्यक्ति मुझे दोष न दे क्योंकि इतना कड़वा बोलने वाला यह बालक मारे जाने के ही योग्य है। इसे बालक समझकर मैंने बचाने का बहुत प्रयत्न किया किंतु अब यह सचमुच मरने के लिए ही आया है। तब विश्वामित्र जी ने कहा - अपराध क्षमा कीजिए मुनिवर! बालकों के दोष और गुण को साधु लोग (सज्जन) नहीं गिनते। परशुराम जी क्रोधित होकर बोले मेरे हाथ में यह तेज़ धार वाला कुठार (फरसा) है और मैं अत्यंत क्रोधी और करुणाहीन अर्थात् निर्दयी हूँ। मेरे सामने गुरु द्रोही, मेरे गुरु का अपमान करने वाला खड़ा है क्योंकि इसने मेरे गुरु अर्थात् भगवान शिव का धनुष तोड़ा है और यह मुझे उत्तर दे रहा है। हे विश्वामित्र! इतने पर भी मैं केवल तुम्हारे शील (विनम्र स्वभाव) के कारण इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ। नहीं तो, इसे इस कठोर कुठार से कटकर थोड़े ही परिश्रम से मैं गुरु के ऋण से मुक्त हो जाता। परशुराम जी की बात सुनकर विश्वामित्र जी मन ही मन हँसने लगे और सोचने लगे कि इन्हें तो सब जगह हरा- ही - हरा सूझ रहा है अर्थात् सब जगह क्षत्रियों का नाश करने में सफलता पा लेने के कारण, ये राम और लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय समझ रहे हैं। इन्हें अभी तक ज्ञात नहीं हुआ कि यह फौलाद की बनी, शक्तिशाली लोहे की खाँड अर्थात् खाँडा (खड्ग) है, गन्ने के रस से भरी खाँड (गुड़) नहीं जो मुँह में लेते ही गल जाती है। खेद है कि मुनि परशुराम अभी भी इनके प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं।
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शब्दार्थ
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा ।।
कहा, लक्ष्मण ने, मुनि, शील, आपका। कौन नहीं जानता ? जानता है, सारा संसार।।
माता पितहि उरिन भये नीकें। गुररिनु रहा सोचु बड़ जी कें ।।
(आप अपने) माता - पिता के ऋण से, मुक्त हो गए हैं अच्छी तरह से। गुरु का ऋण, अब शेष है, जिसके लिए आप बहुत चिंतित हो रहे हैं।
सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बढ़ बाढ़ा ।।
वह, मानो, हमारे माथे पर, डालना चाहते हैं। अधिक दिन बीत जाने पर, ब्याज भी बढ़ गया होगा।।
अब आनिअ व्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली ।।
अब, बुला लो, हिसाब करने वाले को। फ़ौरन ही, मैं, थैली खोल कर, हिसाब चुकता कर दूँगा।।
सुनि कटु वचन कुठार सुधारा । हाय हाय सब सभा पुकारा ।।
सुन कर, कठोर, वचन, फरसा सुधारने लगे। हाय हाय, सब लोग, पुकारने लगे।।
भृगुबर परसु देखाबहु मोही। विप्र विचारि बचौ नृपद्रोही ।।
भृगु वंश में श्रेष्ठ परशुराम, (आप) मुझे दिखा रहे है फरसा। ब्राह्मण, समझकर, आप को बचा रहा हूँ, राजाओं के शत्रु।।
मिले न कबहूँ सुभट रन गाढ़े। द्विजदेवता घरहि के बाढ़े ।।
मिले, नहीं कभी भी, अच्छे योद्धा (शूरवीर), युद्ध में। ब्राह्मण देव आप अपने घर में ही श्रेष्ठ होंगें।।
अनुचित कहि सबु लोग पुकारे। रघुपति सयनहि लखनु नेवारे ।।
अनुचित कह रहे हैं, (ऐसा) सब लोग कहने लगे। राम ने नेत्रों से, लक्ष्मण को, मना किया।।
लखन उत्तर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु ।
लक्ष्मण के उत्तर, आहुति के समान थे, परशुराम की क्रोध रूपी आग में।
बढ़त देखि जल सम वचन बोले रघुकुलभानु ।।
बढ़ता, देखकर, परशुराम के क्रोध को, जल के समान शीतल वचन, बोले, रघुवंश के सूर्य अर्थात् राम।।
व्याख्या
लक्ष्मण व्यंगपूर्वक परशुराम जी से कहते हैं - हे मुनिवर! आपके शील (स्वभाव) को कौन नहीं जानता? आप तो संसार भर में प्रसिद्ध हैं। आप अपने माता-पिता के ऋण से तो अच्छी तरह उऋण हो गए हैं अर्थात् मुक्त हो गए हैं। अब गुरु का ऋण बाकी है, जिसके लिए आप बहुत चिंतित हो रहे हैं। वह ऋण मानो हमारे मत्थे मढ़ा जाएगा अर्थात् मुझे मार कर आप गुरु ऋण से मुक्त होना चाहते हैं। लक्ष्मण आगे कहते हैं - बहुत दिन बीत गए इसलिए इस ऋण का ब्याज भी बढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब करने वाले को बुला लीजिए और सारा हिसाब करवा लीजिए, जिससे मैं तुरंत थैली खोलकर हिसाब चुका सकूँ। लक्ष्मण के इस प्रकार के और भी कड़वे वचन सुनकर परशुराम जी ने कुठार सँभाल लिया और यह देखकर सभा में उपस्थित सभी लोग हाय - हाय करने लगे। वे सभी किसी अनिष्ट के होने की आशंका से डर रहे थे। लेकिन लक्ष्मण फिर कहते हैं - हे भृगु श्रेष्ठ! फरसा दिखाकर आप मुझे डराना चाहते हैं। हे क्षत्रिय राजाओं के शत्रु! मैं आपको ब्राह्मण समझ कर आपसे युद्ध न करके, आपको बचा रहा हूँ। ऐसा प्रतीत होता है कि आपको युद्ध भूमि में कभी कोई शूरवीर बलवान नहीं मिला है। तभी तो हे ब्राह्मण देवता! आप अपने घर में ही बड़े हैं अर्थात् आप स्वयं को ही सबसे बड़ा शूरवीर समझ रहे हैं। यह सुनकर उपस्थित सब लोग यह अनुचित है! यह अनुचित है! पुकारने लगे। तब श्री राम ने आंँखों के इशारे से लक्ष्मण को रोक दिया। लक्ष्मण के उत्तर जो यज्ञ में आहुति के समान थे, परशुराम जी के क्रोध रूपी अग्नि को बढ़ा रहे थे। परशुराम जी के बढ़ते क्रोध को देखकर रघुकुल के सूर्य के समान श्रीरामचंद्र जी ने जल के समान शीतल (शांत) करने वाले अपने वचनों से उनके क्रोध को शांत करने का प्रयत्न किया।
* पाठ में 'सहसबाहु सम सो रिपु मोरा' का अनेक बार उल्लेख हुआ है। मुनि परशुराम द्वारा सहस्रबाहु और क्षत्रियों के 21 बार संहार से संबंधित प्रसिद्ध कथा इस प्रकार है -
महिष्मती नगर के राजा सहस्रार्जुन क्षत्रिय समाज के हैहय वंश के राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक के पुत्र थे। सहस्रार्जुन का वास्तविक नाम अर्जुन था। कहते हैं कि उन्होंने भगवान दत्तात्रेय को अपनी तपस्या द्वारा प्रसन्न करके उनसे 10,000 हाथों का आशीर्वाद प्राप्त किया था। इसके बाद से ही अर्जुन का नाम सहस्रार्जुन (सहस्रबाहु) पड़ा।
कहा जाता है महिष्मती सम्राट सहस्रार्जुन अपने घमंड में चूर होकर धर्म की सभी सीमाओं को लाँघ चुका था। उसके अत्याचारों से जनता त्रस्त हो चुकी थी। उसने वेद-पुराण और धार्मिक ग्रंथों को मिथ्या बताकर ब्राह्मण का अपमान करना, ऋषियों के आश्रम को नष्ट करना, उनका अकारण वध करना, प्रजा पर निरंतर अत्याचार करना, स्त्रियों को सताना शुरू कर दिया था।
ऐसे ही एक बार सहस्रार्जुन अपनी पूरी सेना के साथ जंगलों से होता हुआ परशुराम जी के पिता जमदग्नि ऋषि के आश्रम में विश्राम करने के लिए पहुँचा। महर्षि जमदग्नि ने सहस्रार्जुन स्वागत सत्कार किया। कहा जाता है ऋषि जमदग्नि के पास देवराज इंद्र से प्राप्त दिव्य गुणों वाली कामधेनु नामक चमत्कारी गाय थी।
जमदग्नि ऋषि ने कामधेनु गाय की मदद से देखते ही देखते कुछ ही पलों में सहस्रार्जुन की पूरी सेना के लिए भोजन का प्रबंध कर दिया। कामधेनु गाय की ऐसी अद्भुत शक्तियों को देखकर सहस्रार्जुन के मन में उसे पाने की इच्छा जाग उठी। उसने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु को माँगा, लेकिन उन्होंने ये कहकर उसे देने से मना कर दिया कि यह गाय ही उनके जीवन के भरण-पोषण का एकमात्र सहारा है। तब सहस्रार्जुन ने क्रोध में आकर ऋषि जमदग्नि के आश्रम को उजाड़ दिया और कामधेनु गाय को अपने साथ ले जाने लगा, लेकिन तभी कामधेनु सहस्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई। इसके बाद जब भगवान परशुराम अपने आश्रम पहुँचे तो अपने आश्रम को तहस-नहस देखकर और अपने माता-पिता के अपमान की बातें सुनकर वे क्रोधित हो गए। उन्होंने सहस्रार्जुन और उसकी सेना का नाश करने का संकल्प लिया। ऋषि परशुराम ने अपने प्रचण्ड बल से भगवान शिव द्वारा दिए महाशक्तिशाली फरसे द्वारा अपने प्रचण्ड बल से सहस्रबाहु की हजारों भुजाएँ और धड़ काटकर उसका वध कर दिया।
सहस्रार्जुन के वध के बाद परशुराम अपने पिता ऋषि जमदग्नि के आदेशानुसार प्रायश्चित करने के लिए तीर्थ यात्रा पर चले गए, लेकिन तभी अवसर पाकर सहस्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से अपने आश्रम में तपस्यारत ऋषि जमदग्नि का सिर काटकर उनका वध कर दिया। सहस्रार्जुन के पुत्रों ने आश्रम के सभी ऋषियों का भी वध करते हुए, आश्रम को जला दिया। तभी माता रेणुका ने सहायतावश अपने पुत्र परशुराम को विलाप स्वर में पुकारा।
जब परशुराम माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुँचे तो माता को विलाप करते देखा और वहीं पास ही पिता का कटा सिर और उनके शरीर पर 21 घाव देखे। यह देखकर परशुराम बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शपथ ली कि वह हैहय वंश का ही नहीं बल्कि समस्त क्षत्रिय वंशों का 21 बार संहार कर भूमि को क्षत्रिय विहिन कर देंगे। उन्होंने अपने इस संकल्प को पूरा भी किया था, जिसका उल्लेख पुराणों में भी मिलता है।
स्रोत : इंटरनैट (अमर उजाला)
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