कोटर और कुटीर कहानी की समीक्षा
कहानी के लेखक - सियारामशरण गुप्त
कोटर और कुटीर : एक - दूसरे की पूरक दो कहानियाँ
कोटर और कुटीर दो कथाएँ हैं जो एक दूसरे की पूरक हैं। जहाँ पहली कथा में चातक पुत्र प्यास से व्याकुल होकर अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध गंगा का जल ग्रहण करने के लिए उड़ान भरता है, वहीं दूसरी ओर बुद्धन और गोकुल की कथा के माध्यम से उसे अपनी भूल का एहसास होता है। जहाँ पहली कथा में लेखक ने समस्या को उठाया है, वहीं दूसरी कथा में उस समस्या का समाधान प्रस्तुत किया है।
कोटर और कुटीर कहानी का संदेश / सीख -
लेखक ने इस कहानी के माध्यम से यह सिखाने का प्रयास किया है कि मनुष्य को अपनी स्थिति से संतुष्ट रहना चाहिए। मेहनत करने के स्थान पर दूसरों की संपत्ति की चाह रखना ठीक नहीं है। दूसरों से माँगना और कर्ज़ लेना भी स्वाभिमान के विरुद्ध है।
कुटीरवासी बुद्धन ऐसे आदर्श जीवन से संतुष्ट होता है। साथ ही उसका बेटा गोकुल भी अपने पिता द्वारा दी गई शिक्षा को हृदय से अपनाता है और कठिन समय में भी ईमानदारी की राह को नहीं छोड़ता। वहीं दूसरी ओर कोटर में रहने वाला चातक पुत्र अपनी पारंपरिक मान्यताओं को व्यर्थ मानकर अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध वर्षा के पानी की प्रतीक्षा छोड़, गंगा का जल ग्रहण करने के लिए उड़ जाता है। लेकिन रास्ते में जब वह गरीब बुद्धन की स्वाभिमान भरी बात में चातक का उदाहरण सुनता है तो चातक पुत्र को अपने कुल के गौरव का महत्त्व पता चलता है। उसके बाद वह गंगा के जल को ग्रहण करने के स्थान पर अपने घर की ओर, अपने कोटर की ओर लौट आता है। इस कहानी में अपने संस्कारों का सम्मान करने की आदर्श सीख मिलती है।
कोटर और कुटीर कहानी का सार -
बहुत अधिक गरमी के कारण चातक पुत्र प्यास को सहन नहीं कर पाता। वह अपने पिता से कहता है कि यह असहनीय प्यास उसके प्राण ले लेगी। पिता ने समझाया कि हम तो वर्षा का पानी ही पीते हैं।मेघों के प्रति हमारी निष्ठा हमारे कुल का गौरव है। पुत्र ने अपने पिता से तर्क करते हुए कहा कि मनुष्य तो कुएँ, तालाब, आदि में वर्षा का पानी जमा करके कृषि करता है। तब पिता ने पोखरी का पानी पीने की सलाह दी। पुत्र ने उस गंदे पानी को, जिसमें पत्ते और सूखी डंठलें सड़ती रहती हैं और कीड़े कुलबुलाते रहते हैं, पीने में आपत्ति जताई। फिर उसने गंगा का जल पीने का निर्णय किया। वह गंगा की तरफ उड़ने लगा। रास्ते में वह बुद्धन नामक गरीब बूढ़े के खपरैल के पास, आँगन में नीम के पेड़ पर विश्राम करने बैठा।
बुद्धन पचास साल का पक्षाघात से पीड़ित एक गरीब व्यक्ति था। उसका बेटा गोकुल 15 -16 साल का लड़का था।पिता की बीमारी के कारण घर की पूरी ज़िम्मेदारी गोकुल के कंधों पर थी। एक दिन घर में रोटी बनाने के लिए आटा नहीं था। गोकुल अपने पिता से यह कह कर काम पर चला जाता है कि आज मजदूरी में जो पैसे मिलेंगे, उनसे वह शाम के समय घर लौटते हुए आटा ले आएगा।लेकिन वह शाम को खाली हाथ लौटा।उसे लौटने में भी देर हो गई। उसने पिताजी को देर से आने का जो कारण बताया, उससे उसके उच्च चरित्र का पता चलता है। उसे उस दिन की मजदूरी नहीं मिली। उस दिन इंजीनियर साहब काम की जाँच के लिए आए और काम में कुछ कमी के कारण ओवरसीयर साहब(निरीक्षक) से खुश नहीं थे। इंजीनियर साहब के नाराज़ हो जाने के कारण ओवरसीयर साहब ने मजदूरों पर अपना गुस्सा निकाला और किसी को भी मजदूरी नहीं दी।
गोकुल को रास्ते में रुपयों से भरा एक बटुवा मिला। गरीबी की हालत में भी उसे रुपयों के मालिक की उदासी और परेशानी का ही ध्यान आया। उसे मालूम हो गया कि वह बटुआ एक महते का है। तुरंत वह महते की तलाश में गया। महते का बटुवा उसे सौंपा। महते उसकी ईमानदारी से बहुत खुश हुआ और गोकुल को रुपये देने लगा। गोकुल ने वह रुपये न लिए क्योंकि वह उसकी मेहनत की कमाई नहीं थी।
पिता जी को अपने पुत्र की ईमानदारी और सयंम (धैर्य) पर गर्व था।
बुद्धन को लगा कि उसके रोगी और निर्जीव शरीर में प्राणों का संचार हो गया हो। उसने पुत्र से कहा कि " जिस तरह चातक अपने प्राण देकर भी मेघ के सिवा किसी दूसरे का जल लेने का व्रत नहीं तोड़ता, उसी तरह तू भी ईमानदारी की टेक न छोड़ना।"
ये सब देख चातक का पुत्र भी अपने पिता के पास जाने के लिए उड़ चला रास्ते में बारिश होने लगी। चातक ने अपने व्रत अनुसार, मेघों के जल से ही अपनी प्यास बुझाई। उसने भी अपने पिता की सीख अपनाई और अपने संस्कारों को निभाया।