NCERT Study Material for Class 10 Hindi Sparsh Chapter 13 'Tisri kasam ke shilpkar Shailendra '
हमारे ब्लॉग में आपको NCERT पाठ्यक्रम के अंतर्गत कक्षा 10 (Course B) की हिंदी पुस्तक 'स्पर्श' के पाठ पर आधारित प्रश्नों के सटीक उत्तर स्पष्ट एवं सरल भाषा में प्राप्त होंगे।
यहाँ NCERT HINDI Class 10 के पाठ - 13 'तीसरी कसम के शिल्पकार शैलेंद्र ' के मुख्य बिंदु दिए गए हैं जो पूरे पाठ की विषय वस्तु को समझने में सहायक सिद्ध होंगे।
Important key points /Summary which covers whole chapter (Quick revision notes) महत्त्वपूर्ण मुख्य बिंदु जो पूरे अध्याय को कवर करते हैं (त्वरित पुनरावृत्ति नोट्स)
NCERT Solutions for Class 10 Hindi Sparsh Chapter 13 'Tisri kasam ke shilpkar Shailendra ' - Summary in points.
1. 'तीसरी कसम के शिल्पकार शैलेंद्र' के लेखक 'प्रहलाद अग्रवाल' हैं।
2. पाठ में प्रहलाद अग्रवाल ने कवि एवं गीतकार शैलेंद्र के फिल्म निर्माता के रूप में, उनके संघर्ष के बारे में बताया है।
3. पाठ में लेखक ने इस बात का वर्णन किया है कि शैलेंद्र ने फणीश्वर नाथ रेणु की साहित्यिक रचना ' तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम' को पर्दे पर उतारा और उसके साथ न्याय करने में सफल रहे।
4. लेखक ने इसे 'सेल्यूलाइड पर लिखी कविता' कहा है। सेल्यूलाइड का अर्थ होता है कहानी को कैमरे की मदद से पर्दे पर उतारना और इस फिल्म में हिंदी साहित्य की दिल को छू लेने वाली कहानी को बड़ी ही सफलता के साथ कैमरे की रील में उतार कर प्रस्तुत किया गया है। इस फिल्म में कविता के सभी गुण मौजूद हैं जैसे- भावुकता, संवेदना, और कोमलता इसलिए लेखक ने इसे कैमरे की रील पर लिखी एक कविता कहा है।
* सेल्यूलाइड एक तरह का प्लास्टिक है जो नाइट्रोसेल्यूलोज़ और कपूर से बना होता है. यह एक कठोर और अत्यधिक ज्वलनशील पदार्थ है। इसका प्रयोग फ़िल्म और एक्स-रे बनाने में किया जाता था।
5. 1966 में प्रदर्शित फिल्म 'तीसरी कसम' एक निर्माता के रूप में शैलेंद्र की पहली और आखिरी फिल्म थी। इस तरह की फिल्म एक सच्चा कवि हृदय ही बना सकता है इसमें शैलेंद्र जी की भावुकता पूरी तरह से दिखाई देती है यह फिल्म कला से परिपूर्ण है इसलिए लेखक ने शैलेंद्र जी को कवि न कहकर शिल्पकार कहा है।
6. पुरस्कार -
इस फिल्म को अनेक पुरस्कार मिले -
(i) राष्ट्रपति स्वर्ण पदक
(ii) बंगाल फ़िल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन द्वारा - सर्वश्रेष्ठ फिल्म' और कई अन्य पुरस्कारों से भी से सम्मानित किया गया।
(iii) मास्को फिल्म फ़ेस्टिवल में भी यह फ़िल्म पुरस्कृत हुई।
7. उस समय फ़िल्म जगत में राजकपूर बहुत बड़े अभिनेता के रूप में जाने जाते थे। उन्होंने एक साथ चार फिल्मों के निर्माण की घोषणा भी की थी - 'मेरा नाम जोकर', 'अजंता', 'मैं और मेरा दोस्त' और 'सत्यम् शिवम् सुंदरम्'
8. राजकपूर : सबसे बड़े शोमैन - राजकपूर अपने ज़माने के सबसे बड़े शोमैन थे। शोमैन का अर्थ है - ऐसा व्यक्ति जो अपनी प्रभावपूर्ण कला या अभिनय के लिए प्रसिद्ध हो। जो अपने अभिनय से लोगों को आकर्षित कर सके, अपने निभाए गए किरदार से सबका मनोरंजन करे और अंत तक लोगों को अपने अभिनय के साथ जोड़े रखें। ये सभी खूबियाँ राजकपूर में थी। राजकपूर अपने समय के एक महान अभिनेता और फ़िल्मकार थे। उनके निर्देशन में बनी अनेक फ़िल्में एशिया में प्रदर्शित हुई थीं। उनकी फ़िल्मों को केवल भारत में ही नहीं एशिया में पसंद किया जाता था। जिस प्रकार आज शाहरुख खान विश्व प्रसिद्ध अभिनेता के रूप में जाने जाते हैं और उन्हें दुनियाभर के दर्शकों का प्यार मिलता है उसी प्रकार राजकपूर अपने समय के सर्वाधिक लोकप्रिय अभिनेता थे और उनका अभिनय जीवंत था तथा दर्शकों के हृदय पर छा जाता था। दर्शक उनके अभिनय कौशल से प्रभावित होकर उनकी फ़िल्म को देखना और सराहना पसंद करते थे।
समीक्षक (समीक्षा करने वाले) और कला मर्मज्ञ (कला को जानने वाले) राजकपूर को आंँखों से बात करने वाला कलाकार मानते थे। फ़िल्म 'तीसरी कसम' में उन्होंने अपने जीवन की सर्वोच्च (सबसे बढ़िया) भूमिका अदा की। लेखक के अनुसार 'तीसरी कसम वह फिल्म है जिसमें राज कपूर अभिनय नहीं करता। वह हीरामन के साथ एकाकार हो गया है। इस फिल्म में राजकपूर की मासूमियत अपने चरम पर दिखाई देती है।
9. राजकपूर : एक महान कलाकार - राजकपूर एक महान कलाकार थे। फ़िल्म के पात्र के अनुरूप अपने-आप को ढालना, उनकी विशेषता थी। फ़िल्म तीसरी कसम के समय राजकपूर एशिया के सबसे बड़े शोमैन के रूप में जाने जाते थे । तीसरी कसम में राजकपूर का अभिनय चरम सीमा पर था। फ़िल्म में उन्होेंने गाँव के एक सरल हृदय वाले गाड़ीवान की भूमिका निभाई। उन्होंने अपने-आपको उस ग्रामीण गाड़ीवान हीरामन के साथ एकाकार कर लिया अर्थात् फ़िल्म में उन्होंने एक गाँव वाले साधारण व्यक्ति जैसा अभिनय बड़ी ही खूबसूरती से किया है। एक गाड़ीवान की सरलता, एक नौटंकी वाली में अपनापन खोजना, हीराबाई की भोली सूरत पर न्योछावर होना और हीराबाई की उपेक्षा पर अपने - आप से जूझना जैसी हीरामन की भावनाओं को राजकपूर ने बड़े सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है। फ़िल्म में हीरामन के रूप में कहीं भी राजकपूर अभिनय करते नहीं दिखते बल्कि ऐसा लगता है मानो हीरामन एक सच्चा पात्र है। एक कलाकार की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है। लेखक प्रहलाद अग्रवाल ने ठीक ही लिखा है कि 'शैलेंद्र ने राजकपूर जैसे स्टार को हीरामन बना दिया था।'
10. राजकपूर और शैलेंद्र की मित्रता - राजकपूर और शैलेंद्र दोनों बहुत अच्छे मित्र थे।
(i) शैलेंद्र जब इस फ़िल्म की कहानी सुनाने राजकपूर के पास गए तो उन्होंने कहानी सुनकर बड़े उत्साह के साथ उसमें काम करना स्वीकार कर लिया लेकिन फिर राजकपूर गंभीर होकर बोले कि उन्हें अपने काम का पूरा पैसा एडवांस में चाहिए। शैलेंद्र को राजकपूर से यह उम्मीद नहीं थी कि वह ज़िंदगी भर की दोस्ती का यह बदल देंगे। राजकपूर शैलेंद्र का मुरझाया हुआ चेहरा देखकर मुस्कुरा कर बोले कि 'निकालो एक रुपया, मेरा पारिश्रमिक! पूरा एडवांस। शैलेंद्र को अपने मित्र की इस बात से बड़ी खुशी हुई कि वे बिना किसी पैसे के उनकी फिल्म में काम करने के लिए तैयार हैं।
(ii) एक सच्चे मित्र की तरह राजकपूर ने उन्हें फ़िल्म की असफलता के खतरों से आगाह (सचेत) किया। इस फिल्म की संवेदना (भाव) मुनाफ़ा कमाने वाले लोगों की समझ में आने वाली नहीं थी। लेकिन शैलेंद्र एक ऐसी फ़िल्म बनाने जा रहे थे जो लाभ प्राप्त करने के लिए नहीं थी।
11. शैलेंद्र एक भावुक आदर्शवादी कवि - तीसरी कसम की कहानी में जो भावनाएँ थी वह शैलेंद्र के दिन को छू गई थी इसलिए राजकपूर के सचेत करने पर भी शैलेंद्र इस फिल्म का निर्माण अपनी आत्म संतुष्टि के लिए करना चाहते थे। उनके लिए यही सच्चा सुख था। उन्हें संपत्ति और यश की इच्छा नहीं थी। 20 साल तक फिल्म इंडस्ट्री में रहते हुए भी शैलेंद्र वहाँ के तौर - तरीके नहीं जान पाए थे अर्थात् शैलेंद्र ने फिल्म जगत की चकाचौंध में अपने सच्चे कलाकार को मरने नहीं दिया था। इस बात को एक उदाहरण द्वारा समझ सकते हैं। फिल्म 'श्री 420' के एक लोकप्रिय गीत की एक पंक्ति के शब्द 'दसों दिशाओं' पर जब संगीतकार जय किशन ने उन्हें इसे बदलकर चार दिशाएँ करने की सलाह दी, तब शैलेंद्र ने उसे बदलने से मना कर दिया। उनका यह मंतव्य था कि दर्शकों की रुचि की आड़ में हमें उथलेपन को उन पर नहीं थोपनाा चाहिए। कलाकार का यह कर्तव्य भी है कि वह उपभोक्ता की रुचियों का परिष्कार करने का प्रयत्न करे। इसका अर्थ यह है कि शैलेंद्र ऐसा मानते थे कि कलाकार का यह कर्त्तव्य है कि वह दर्शकों की पसंद और सोच को बेहतर बनाए। दर्शकों के सामने वही प्रस्तुत करे जिसमें कलाकार का विश्वास है न कि सही - गलत की समझ को छोड़कर कलाकार दर्शकों की पसंद के अनुरूप (उनके हिसाब से) काम करे। वे अपने गीतों में शब्दों से अधिक भावों को महत्त्व देते थे, इसलिए उनके गीत भाव-प्रवण (भावों से भरे हुए) होते थे - दुरूह अर्थात् कठिन नहीं।
12. निर्माता के रूप में शैलेंद्र जी का संघर्ष - एक महान फ़िल्म होने के बावजूद तीसरी कसम को प्रदर्शित करने के लिए बड़ी मुश्किल से वितरक (डिस्ट्रीब्यूटर) अर्थात सिनेमा हॉल में प्रसारित करने वाले मिले क्योंकि इस फ़िल्म की कहानी में छिपे भाव दो से चार का गणित जानने वालों अर्थात् दुगना मुनाफ़ा कमाने वालों की समझ में आने वाला नहीं था। इस फिल्म में राजकपूर, वहीदा रहमान जैसे बड़े कलाकार थे और शंकर - जयकिशन के संगीत ने फ़िल्म के गानों को फ़िल्म के परदे पर दिखाए जाने से पहले ही लोकप्रिय बना दिया था लेकिन फिर भी थिएटर में चलाने के लिए कोई इस फ़िल्म को खरीदने के लिए तैयार नहीं था। इस फ़िल्म में जो करुणा (दुख) के भाव को दिखाया गया था, वह साधारण सोच वाले लोगों की समझ से परे था इसलिए जब फ़िल्म रिलीज हुई तो इसका कोई प्रचार नहीं हुआ। फ़िल्म कब आई, कब चली गई मालूम ही नहीं पड़ा अर्थात् फ़िल्म फ्लॉप हो गई।
13. फ़िल्म तीसरी कसम- इस फ़िल्म में राजकपूर ने हीरामन का किरदार निभाया जो बैलगाड़ी चलता है और वहीदा रहमान ने हीराबाई का किरदार निभाया जो एक नौटंकी कंपनी में अभिनय करती है। इस फिल्म में राजकपूर जैसे स्टार कलाकार ने हीरामन के किरदार के साथ पूरा न्याय किया अर्थात् इस फ़िल्म में राजकपूर ने हीरामन के चरित्र को जिया था और साधारण - सी, सस्ती साड़ी पहनकर वहीदा रहमान भी अपने समय की प्रसिद्ध कलाकार नहीं बल्कि हीराबाई ही लग रही थी। कहने का अर्थ यह है कि ये दोनों ही कलाकार बहुत प्रसिद्ध थे लेकिन इस फ़िल्म में गाँव के सीधे-साधे किरदार में ये दोनों इतने ढल गए थे कि पता ही नहीं चलता था कि दोनों प्रसिद्ध कलाकार हैं। ऐसा लगता था मानो यह सच में हीरामन और हीराबाई हो। कहानी में छोटी-छोटी बारीकियों को भी मन के भावों और चेहरों के हाल - भाव से दर्शाया गया है। कुल मिलाकर फणीश्वर नाथ रेणु की इस साहित्यिक कृति में राजकपूर और वहीदा रहमान जैसे प्रसिद्ध कलाकार, शंकर जयकिशन का संगीत, मुकेश की आवाज़ में शैलेंद्र के गीत सभी कुछ बेजोड़ था। यह सत्य है कि फ़िल्म 'तीसरी कसम' ने साहित्य - रचना के साथ शत-प्रतिशत न्याय किया है।
14. हमारी फ़िल्मों की सबसे बड़ी कमज़ोरी यह होती है कि उनमें त्रासद (दुख भरी) स्थितियों का चित्रण होता है तो उन्हें ग्लोरीफ़ाई किया जाता है अर्थात् इनमें लोक तत्व का अभाव होता है। वे आम ज़िंदगी से जुड़े हुए नहीं होते। दर्शकों को प्रभावित करने के लिए दृश्य को बढ़ा - चढ़ा कर दिखाया जाता है, जिससे लोग भावनात्मक रूप से कमज़ोर हों और फ़िल्मों की ओर आकर्षित हो सकें। लेकिन तीसरी कसम में दुख को भी सहज स्थिति में, आम ज़िंदगी से जोड़कर प्रस्तुत किया गया है।
15. लेखक प्रहलाद अग्रवाल ने शैलेंद्र जी को एक गीतकार ही नहीं बल्कि एक कवि माना है। शैलेंद्र जी सिनेमा की चकाचौंध के बीच रहते हुए भी यश और धन के लोभ से बहुत दूर थे। उनके गीतों में करुणा (दुख) के साथ-साथ मुश्किलों से जूझने का संकेत भी है और वह रास्ता भी मौजूद था जिसके द्वारा अपनी मंज़िल पर पहुँचा जाता है। व्यथा आदमी को पराजित नहीं करती, उसे आगे बढ़ने का संदेश देती है जिसका परिचय शैलेंद्र जी ने अपने गीतों के माध्यम से दिया है।
16. एक यादगार फ़िल्म होने के बावजूद 'तीसरी कसम' को आज एक और कारण से भी याद किया जाता है। इस फ़िल्म का निर्माण यह सच्चाई बताता है कि हिंदी फ़िल्मी जगत में एक सार्थक और उद्देश्यपरक फ़िल्म बनाना कितना कठिन और जोखिम का काम है।
17. फिल्म तीसरी कसम को मील का पत्थर (Milestone) माना जाता है - 'मील का पत्थर' का अर्थ है - लंबे समय तक किसी वस्तु, विचार या कार्य का प्रभाव बना रहना। फ़िल्मी जगत से जुड़े कवि और गीतकार शैलेंद्र ने जब फणीश्वर नाथ रेणु की अमर कृति 'तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम' को सिनेमा के परदे पर उतारा तो यह फिल्म 'मील का पत्थर' सिद्ध हुई अर्थात् इस फ़िल्म की जगह कोई दूसरी फिल्म नहीं ले पाई। आज भी इतने साल बीत जाने के बाद भी इस फिल्म को हिंदी फिल्म जगत की कुछ खास बेहतरीन फ़िल्मों में याद किया जाता है। इस फ़िल्म का न केवल गीत, संगीत और कहानी ही बहुत अच्छे थे बल्कि इस फिल्म में उस ज़माने के सबसे बड़े शोमैन राजकपूर ने अपनी सभी फिल्मों से ज़्यादा बेहतरीन एक्टिंग करके सभी को आश्चर्य में डाल दिया। फिल्म की हीरोइन वहीदा रहमान ने भी वैसी ही एक्टिंग की जैसी सबको उनसे उम्मीद थी।
* पाठ 'तीसरी कसम के शिल्पकार शैलेन्द्र' में प्रयुक्त मुहावरे -
1. आगाह करना - सावधान करना।
2. चेहरा मुरझाना- उदास होना।
3. जोखिम उठाना-ख़तरा उठाकर काम करना।
4. दो से चार बनाना - दुगना (double) फ़ायदा कमाना।
5. मील का पत्थर - प्रभावशाली होना, लंबे समय तक किसी वस्तु, विचार या कार्य का प्रभाव बना रहना।
इन मुख्य बिंदुओं को पढ़कर छात्र परीक्षा में दिए जाने वाले किसी भी प्रश्न का उत्तर देने में समर्थ हो सकेंगे। आशा है उपरोक्त नोट्स विद्यार्थियों के लिए सहायक होंगे।
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