प्रकृति पर आधारित कविताएँ (Prakriti par Kavitayein in Hindi)
प्रकृति स्वयं में नित्य, शाश्वत एवं चिर सुंदर है। प्रकृति परम शक्ति 'परमात्मा' का प्रत्यक्ष स्वरूप है। हिंदी साहित्य के अनेक कवियों ने जीवनदायिनी प्रकृति की सुंदरता का वर्णन अपनी लेखनी से किया है। इस पोस्ट में हिंदी जगत् के सुप्रसिद्ध कवियों की प्रकृति पर आधारित प्रसिद्ध कविताओं Famous poems on Nature in Hindi को उनके शुद्ध रूप में संकलित किया गया है।
आशा है यह प्रयास Prakriti par Kavitayein in Hindi आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगा।
बसंत मनमाना
चादर सी ओढ़ कर ये छायाएँ
तुम कहाँ चले यात्री, पथ तो है बाएँ।
धूल पड़ गई है पत्तों पर डालों लटकी किरणें
छोटे-छोटे पौधों को चर रहे बाग में हिरणें,
दोनों हाथ बुढ़ापे के थर-थर काँपे सब ओर
किंतु आँसुओं का होता है कितना पागल ज़ोर
बढ़ आते हैं, चढ़ आते हैं, गड़े हुए हों जैसे
उनसे बातें कर पाता हूँ कि मैं कुछ जैसे-तैसे।
पर्वत की घाटी के पीछे लुका-
छिपी का खेल
खेल रही है वायु शीश पर सारी दुनिया झेल।
छोटे-छोटे खरगोशों से उठा- उठा सिर बादल
किसको पल-पल झाँक रहे हैं आसमान के पागल?
ये कि पवन पर, पवन कि इन पर, फेंक नज़र की डोरी
खींच रहे हैं किसका मन ये दोनों चोरी-चोरी?
फैल गया है पर्वत शिखरों तक बसंत मनमाना,
पत्ती, कली, फूल, डालों में दिख रहा मस्ताना।
- माखनलाल चतुर्वेदी
मैं नीर भरी दुख की बदली
मैं नीर भरी दुख की बदली!
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा
क्रंदन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झारिणी मचली!
मेरा पग-पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय-बयार पली।
मैं क्षितिज-भृकुटी पर घिर धूमिल
चिंता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना
पथ चिह्न न दे जाता जाना;
सुधि मेरे आगन की जग में
सुख की सिहरन हो अंत खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!
- महादेवी वर्मा
प्रकृति का संदेश
पर्वत कहता शीश उठाकर,
तुम भी ऊँचे बन जाओ।
सागर कहता है लहराकर,
मन में गहराई लाओ।
समझ रहे हो क्या कहती हैं
उठ-उठ गिर-गिर तरल तरंग
भर लो भर लो अपने दिल में
मीठी - मीठी मृदुल उमंग!
पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो
कितना ही हो सिर पर भार,
नभ कहता है फैलो इतना
ढक लो तुम सारा संसार।
- सोहनलाल द्विवेदी
वन - वन, उपवन
वन वन उपवन
छाया उन्मन-उन्मन गुंजन,
नव-वय के अलियों का गुंजन!
रुपहले, सुनहले आम्र-बौर,
नीले, पीले औ ताम्र भौंर,
रे गंध-अंध हो ठौर-ठौर
उड़ पाँति-पाँति में चिर उन्मन
करते मधु के वन में गुंजन!
वन के विटपों की डाल-डाल
कोमल कलियों से लाल-लाल,
फैली नव-मधु की रूप-ज्वाल,
जल-जल प्राणों के अलि उन्मन
करते स्पंदन, करते गुंजन!
अब फैला फूलों में विकास,
मुकुलों के उर में मदिर वास,
अस्थिर सौरभ से मलय-श्वास,
जीवन-मधु संचय को उन्मन
करते प्राणों के अलि गुंजन!
- सुमित्रानंदन पंत
किसान
हेमंत में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है
हो जाए अच्छी भी फ़सल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से है रंगे रक्खे जहाँ
आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में
बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा-सा जल रहा
है चल रहा सन- सन पवन, तन से पसीना बह रहा
देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे
घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा
तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं
बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ' थरथराता गात है
तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते
संप्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उसको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है
मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है।
- मैथिलीशरण गुप्त
वसंत के नाम पर
प्रात जगाता शिशु वसंत को नव गुलाब दे-दे ताली,
तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली।
सुंदरता को जगी देखकर जी करता मैं भी कुछ गाऊँ,
मैं भी आज प्रकृति पूजन में निज कविता के दीप जलाऊँ।
ठोकर मार भाग्य को फोड़ें, जड़ जीवन तजकर उड़ जाऊँ,
उतरी कभी न भू पर जो छवि, जग को उसका रूप दिखाऊँ ।
स्वप्न बीच जो कुछ सुंदर हो, उसे सत्य में व्याप्त करूँ,
और सत्य-तनु के कुत्सित मल का अस्तित्व समाप्त करूँ।
हाँ, वसंत की सरस घड़ी है, जी करता, मैं भी कुछ गाऊँ,
कवि हूँ, आज प्रकृति-पूजन में, निज कविता के दीप जलाऊँ।
क्या गाऊँ? सतलज रोती है, हाय! खिली बेलियाँ किनारे।
भूल गए ऋतुपति, बहते हैं, यहाँ रुधिर के दिव्य पनारे।
बहनें चीख रहीं रावी-तट, बिलख रहे बच्चे बेचारे,
फूल - फूल से पूछ रहे हैं- 'कब लौटेंगे पिता हमारे?'
उफ़, वसंत या मदन-बाण है? वन-वन रूप ज्वार आया है।
सिहर रही वसुधा रह-रहकर, यौवन में उभार आया है।
कसक रही सुंदरी- 'आज मधु ऋतु में मेरे कंत कहाँ?'
दूर द्वीप में प्रतिध्वनि उठती, 'प्यारी, और वसंत कहाँ?
- रामधारी सिंह दिनकर
ध्वनि
अभी न होगा मेरा अंत
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसंत
अभी न होगा मेरा अंत।
हरे-हरे ये पात,
डालियाँ, कलियाँ, कोमल गात।
मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर
फेरूँगा निद्रित कलियों पर
जगा एक प्रत्युष मनोहर।
पुष्प-पुष्प से तंद्रालस लालसा खींच लूँगा मैं,
अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं,
द्वार दिखा दूँगा फिर उनको
हैं मेरे वे जहाँ अनंत-
अभी न होगा मेरा अंत।
मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण,
इसमें कहाँ मृत्यु?
है जीवन ही जीवन
अभी पड़ा है आगे सारा यौवन
स्वर्ण किरण कल्लोलों पर बहता रे, बालक मन,
मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बंधु, दिगंत;
अभी न होगा मेरा अंत।
- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
झरना
मधुर है स्त्रोत मधुर हैं लहरी
न हैं उत्पात, छटा हैं छहरी
मनोहर झरना।
कठिन गिरि कहाँ विदारित करना
बात कुछ छिपी हुई हैं गहरी
मधुर है स्त्रोत मधुर हैं लहरी
कल्पनातीत काल की घटना
हृदय को लगी अचानक रटना
देखकर झरना।
प्रथम वर्षा से इसका भरना
स्मरण हो रहा शैल का कटना
कल्पनातीत काल की घटना
कर गई प्लावित तन - मन सारा
एक दिन तब अपांग की धारा
हृदय से झरना
बह चला, जैसे दृगजल ढरना
प्रणय वन्या ने किया पसारा
कर गई प्लावित तन - मन सारा
प्रेम की पवित्र परछाई में
लालसा हरित विटप झाईं में
बह चला झरना।
तापमय जीवन शीतल करना
सत्य यह तेरी सुघराई में
प्रेम की पवित्र परछाई में।।
- जयशंकर प्रसाद
हरी हुई सब भूमि
बरषा सिर पर आ गई हरी हुई सब भूमि
बागों में झूले पड़े, रहे भ्रमण गण झुमि
करके याद कुटुंब की फिरे विदेशी लोग
बिछड़े प्रीतमवालियों के सिर पर छाया सो
खोल - खोल छाता चले लोग सड़क के बीच
कीचड़ में जूते फँसे जैसे अघ में नीच।
- भारतेंदु हरिश्चंद्र
बादल को घिरते देखा है
अमल धवल गिरि के शिखरों पर, बादल को घिरते देखा है।
छोटे छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त मधुर विष तंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है
बादल को घिरते देखा है।
ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद - मंद था अनिल बह रहा
बालारूण की मृदु
- नागार्जुन
उषा
प्रात: नभ था बहुत नीला शंख जैसे
भोर का नभ
राख से लीपा हुआ चौका
[अभी गीला पड़ा है]
बहुत काली सिल ज़रा-से लाल केसर से
कि जैसे धुल गई हो
स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
मल दी हो किसी ने
नील जल में या किसी की
गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो।
और...
जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।
- शमशेर बहादुर सिंह
कहो, तुम रूपसि कौन
कहो, तुम रूपसि कौन?
व्योम से उतर रही चुपचाप
छिपी निज छाया-छबि में आप,
सुनहला फैला केश-कलाप,
मधुर, मंथर, मृदु, मौन!
मूँद अधरों में मधुपालाप,
पलक में निमिष, पदों में चाप,
भाव-संकुल, बंकिम, भ्रू-चाप,
मौन, केवल तुम मौन!
ग्रीव तिर्यक, चम्पक-द्युति गात,
नयन मुकुलित, नत मुख-जलजात,
देह छबि-छाया में दिन-रात,
कहाँ रहती तुम कौन?
अनिल पुलकित स्वर्णांचल लोल,
मधुर नूपुर-ध्वनि खग-कुल-रोल,
सीप-से जलदों के पर खोल,
उड़ रही नभ में मौन!
लाज से अरुण-अरुण सुकपोल,
मदिर अधरों की सुरा अमोल,–
बने पावस-घन स्वर्ण-हिंदोल,
कहो, एकाकिनि, कौन?
मधुर, मंथर तुम मौन?
- सुमित्रानंदन पंत
पर्वत प्रदेश में पावस
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश, पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।
मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोकन रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,
जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण- सा फैला है विशाल!
गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में नस-नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों-से सुंदर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!
गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्चाकांक्षाओं से तरुवर
हैं झाँक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंतापर।
उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार पारद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!
धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुआँ, जल गया ताल!
- यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल।
- सुमित्रानंदन पंत
Very nice👏👏
ReplyDeleteThanks